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Full text of "Yugeen Shaikshik Chintan"

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युणीन 
शेक्षिक चिन्तन 


६) १ 

शः 

रण्ड 
कलासन प्रकाशन 


कल्याणी भवन 
मोडर्न मार्केट वीकानेर 
द्वारा प्रकाशित 


युगीन शेक्षिक चिन्तन 


म्रा(डँ ) जमनालाल बायती 
(पर्व बरिष्ठ सप्याःक- शिविरा नयारिभकफ) 
उप प्रधाताचाय 
एजकौय उच्च अध्ययन 
रिभा सस्थान याकानर्‌ (राजस्थान) 
1996 


कलासने प्रकाशन, वीकानर 


सस्करण 
मुद्रक 


प्रमुख वितरक 


मूल्य 
आवरण 


प्रथम 1996 

कल्याणी प्रिण्टसं 

माल गोदाम रोड बीकानेर 
दूरभाष 526890 
कामेश्वर प्रकाशन 
तेलीवाडा चौक 
वीकानेर-334 005 [राज ] 
फोन 0151-524330 
120/- 

पारस भसाली 


आत्म कथ्य 


समय समय पर लिख कुट निवन्धा का सक्लन पाठको के सम्मुख 
प्रस्तुत है। शिक्षा से जुडे अधिकासे नियोनक शिभक तथा उच्च शिक्षा के 
अध्येता इस कृति से लाभ उठा सक्तं र। पुस्तक की गुणवत्ता वा सटी 
मूल्याकन ततो पाठक हौ क! सक्ते र। पुस्तक किसी भी रूप मे यदि पाठको 
कौ कुष्ठ नया सोचने के लिए उधत कर सकी ता लेखक अपना श्रम सार्थक 
मानेगा। 

पुस्दक की रचना में लंखक को उसकी धर्मपत्रौ श्रीमती कृष्णा 
मारेश्वरी से भरपूर सटयोग भिला ह । श्रमती कृष्णा को धन्यवाद देकर उनके 
सहयाग का अवमूल्यन नी किया जाना चाहिए। वास्तविक्ता तो वह है कि 
यष्ट पुस्तक उन्हीं की है! 

पुस्तक खो अल्प समय मे पाठका ठक पहुचाने के लिये लेखक 
कलासन~प्रकाशन वेः मालिक श्री मनमोहन जी कल्याणी को अन्तर्मन स धन्यवाद 
देता हे। 

पुस्तक के सुधार के लिये पाठर्को के रचनात्मक सुञ्ञायां षौ प्रतीक्षा 
ग्गी। 


राजकीय उच्च अध्ययन शिधा सम्यान प्रो (डो) जमनालाल बायती 
बौकानेए 334001 (राजस्थान) उप-प्रधानाचा्य 


सस्करण 


प्रमुख वितर्क 


मूल्य 
आवर्ण 


प्रथम 1996 

कल्याणी प्रष्टं 

माल मोदाम रोड, यौकानिर 
दूरभाष 5268690 
कामेश्वर प्रकाशन 
तेलीवाडा चौक 
यीकानेर-334 005 [राज ] 
फोन = 0151-524330 
120/- 

पारस भसाली 


आत्म क्थ्य 


समय संमय पर तिं कुट तिवन्थ था सक्लन पाठको क सम्मुख 
प्रस्नुतं है। शिक्षा से जुडे अधिकारी तियाजक शिभक तथा उच्व शिभा के 
अध्ये इसन कृति से ताभ उडा सक्तं ह । पुस्रक की गुणवत्ता का सही 
भूल्साक्न तो पाठक ष्ठी यर सकत हे पुस्तक किसी भी रूप मेँ यदि पाठका 
खौ वुं भया सोचनं के लिए उद्यतं कर सको ठो लेखक अपना श्रम सार्थक 
मान॑गा। 
पुस्तक कौ रचना मृ लक को उक्तकी धमपतरां श्रमती कृष्णा 
माहश्वरां सं भरपुर सत्याग मिला हे। श्रीमतां कृष्णा को धन्ययाद दक्र उनफं 
सटपाग फा अवमूल्यन नत किया जाना चाहिए। वास्तविकता ता यह है कि 
यह पुस्तक उन्हीं कौ है; 
पुस्तक को अल्प समय म पाठका तकं पटुचाने के लिये लेखक 
द के मालिकः श्रो मनमाहन जी कल्याणी को अन्र्मन से धन्यवाद 
 है। 


पुस्तक कं सुधार के लिये पाठकों के रचनात्मक सुक्ावं की प्रतीक्षा 
र्णी। 


एजकीय ठच्च अध्ययनं रिक्षा सस्यात्‌ प्रो (डो) जमनालाल बायती 
ब्कानैद 3346001 (राजस्या) उप-प्रधाारचार्य 


अनुक्रम 


शिधा का स्वरूप 

अगली सनी कौ शिशा का सम्भावित स्वरूप 
रिक्षा म नवाचार 

शिधा का विकासान्सुखी क्षत्र 

व्यवसाय के रूप म अध्यापन 

मूल्या का सकट 

वैचाप्कि प्रदूषण 

शिक्षा मे नैतिक एव आचरण मूल्य 
मूल्या का मापन एव भूल्याक्न 

मितवा के लिश धिम 

सवदनशीलता के लिए शिभा 

विकास के लिए शिधा 

उपभोक्ता की शिभा 

डिग्री नार्री अलग-अलग 
अन्तविषयी शध 

समाज विज्ञाना म अनुसधान की स्थिति 


17 
30 
40 
50 
57 
64 
77 
86 
96 
103 
115 
119 
128 
142 


शिक्षा का स्वरूप 


ईस विषय पर प्रस्तुत किए जाने वाते अपने विचारः को विद्यार्थी 
कं पक्षा मे लिखे उत्ते से आरम्भ करने का लोभ लेखक स्वरण नटी 
क्र पारद्यै। अथशास् क प्रश्र पत्र मेँ आर्थिक विकास सूचक पाच प्रमाण 
मागे धे! किस विद्यार्थी न स प्रश्र का उत्तर यो आसम्भ क्या 

परीक्षा भवन में वैठे- वैठ परीक्षार्थी आर्थिक विकास के प्रमाण 

र्यो लिख रह हाग- भामाय कारखाना या निलो की स्थापना हुई है पकी 
सडकं कई गुनी यढ गई ह खर्तो कौ चैदावार बढी है विजली का उत्पादन 
कई गुना वद गया रै जगह- जगह चिकित्सालय खुल गए ह उनम आने 
पाले तेगिया कौ सद्या वढी टै वालार्वो ओर वाधा की सख्या म वृद्धि हई 
है रेलमागो का विस्तार हुआ है नए रलमार्गं वने ह कारखाना से बाहर 
आने वाले सभो प्रकार क वाहनौ कौ सख्या में भारी वृद्धि हुई है चिकित्स 
तेथा अभियान्विकी शिक्षा के सस्थाना की प्रय॑श क्षमता बदा गई है वहा 
काम कले वाले कर्मचारियों तथा अधिकारियो कौ सख्या मे वृद्वि ददै 
महानग मे वहुमजिली इमास्ते बनी है बन रही है विधालयो तेधा मटाविधालया 
कौ सख्या कई गुनी यढौ दै उनमं शिक्षा पाने वाले विदथा बदे ई । 
आदि आदि।' 

स्पष्ट दै कि यह उत्तर किसी सामान्य विद्यां या 13-17 सा 18 
वर्षं कौ आयु र्ग के विदयाथीं का नहीं है। किसी उग्रशुदा या समक्ञदार आदमी 
का उत्त हागा जिसे एकं या अन्य कारण से हायर सैकण्डरी स्कूल परीक्षा 
के प्रमाण पत्र की जरूरत रहौ होगी ! उसने पीडा के साथ आगे लिखा परीक्षक 
महोदय आप कृषा कर ठण्डे मस्तिष्क से अपने विवेक से साचिषए्‌ कि क्या 
हौ शिभा है? यही विकास रै? आदमी विकास के लिए है या विकास 
आदमी के लिए? इसे कोई सोच हौ नहीं र है। आज मनुष्य मनुष्य के 
ही खून का प्यास हा रहा ह वलात्कार- चारी- डकैती कं समाचारयो से 
समाचार पत्र भरे पड है बनिया हल्दी मेँ इंट पीस धनिये मे घोडे की लीद 
तथा हीग म मक्षी का आया मिला कर येच रहा रै कार्यालया मेँ कर्मचारी 
भिलते दौ नदीं है फिर समय पर कार्यं निष्पादन काप्रश्र ही नहीं उठता 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/1 


अनुक्रम 


शिक्षा का स्वरूप 

अगली सदी की शिप का सम्भावित स्षरूप 
शिक्षा म नवाचार 

शिभा का विकासान्मुखी क्षत 
व्यवसाय के रूप म अध्यापन 

मूल्या का सकट 

वैचारिकं प्रदूषण 

शिक्षा मे नैतिक एव आचरण मूल्य 
मूल्यो का मापन एव मूल्याकन 

मित्रता कं लिए शिभा 

सवेदनशीलता कं लिए रिक्षा 

विकास कं लिए शिक्षा 

उपभोक्ता की शिक्षा 

द्िग्री नौकरी अलग-अलग 
अन्तविपयी शध 

समाज विज्ञाना मे अनुसधान कां स्थिति 


17 
30 
40 
50 
57 
64 
7 
86 
96 
103 
115 
119 
128 
142 


शिक्षा का स्वरूप 


इस विषय पर प्रस्तुते किए जाने वाले अषने विचारो को विदा्ी 
के परीक्षा मे लिखे उत्तरा से आरम्भ करनं का लोभ लेखक सवरण नहीं 
फर पारदा ै। अर्थशास्य कं प्रश्च पत्र में आर्थिक विकास सूचक पाच प्रमाण 
मागे थे। क्सि विद्यार्थी न इस प्रश्च का उत्तर यों आरम्भ किया 

" परीधा भवन मेँ वैठे- येठे परीक्षार्थी आर्थिक पिकास के प्रमाण 
यो लिख रट हाग- भीमकाय कारखाना या मिलो कौ स्थापना हुईं है पकी 
सडक कड गुनी वद गई हे खेत की चैदावार बढी है बिजली का उत्पादन 
कट गुना बढ गया है जगट- जगह चिकित्सालय खुल गए ह॑ उनमे आने 
वाले रोगियां कौ सख्या वदी है तालावां ओर वाधो कौ सख्या मे वृद्धि हदं 
है रेलमारगो का विस्तार हआ है नए रंलमार्गं वने र कारखाना से वाहर 
माने वाले सभी प्रकार क वाहनो कौ सख्या मेँ भारी वुद्धि हुईं है चिकित्सा 
तथा अभियान्तिकी शिक्षा के सस्थाना की प्रवेश क्षमता वढाई गई दै षहा 
काम करनं वाले कर्मचारियों तथा अधिकारियो कौ सख्या म॑ वुद्धि हु है 
महानगरं मे बरहुमजिली इमारते वनी है यन रही ह यिद्यालयौ तथा महाविद्यालयो 
कौ सष्मा कड गुनी बढी है उनम शिक्षा पाने वाले विधार्थी बढे ₹। 
आदि आदि।"' 

स्पष्ट है कि यट उत्तर किसी सामान्य विद्याथीं या 13-17 या 18 
वर्प की आयु वर्ग के विघया्थी का नटीं है । किसी उम्रशुदा या समज्ञयार आदमी 
का उत्तर होगा जिसे एक या अन्य कारण सं दायर सैकण्ड़ी स्कूल परीक्षा 
वँ प्रमाण पत्र की जरूरत री टौगी। उसने पीडा के साथ आगे लिखा परीक्षक 
महोदय आप कृपा कर ठण्डे मस्तिष्क सो अपने विवेकं सं साचिए कि क्या 
यही रिक्षा है? यही विकास है? आदमी विकास के लिए है या विकास 
आदमी के लिए? इसे कोई सोच ही नहीं एटा ह । आज मनुष्य मनुष्य के 
ही खून का प्यासा हो रहा है बलात्कार- चारी- उकैती के समाचाे से 
समाचार पत्र भरे पडे ह॑ चनिया हल्दी मेँ ईट पीसे धनिये म घोड की लीद 
तथा हीम मकी का आटा मिला कर येच रहा है कार्यालयो में कम॑चारी 
मिलते टौ नही है फिर समय पर क्यं निष्पादन का श्र हौ नं रटत 


युगी त शेदषिक चिन्तन/1 


है निर्माता घटिया दवाइया यना कर रोगियों के प्राणों से खल रहे है। मनुष्य 
इतना सयेदनीन द्यो गया है कि पडोसमं कौन र्टवां उम क्याक्ष्ट 
है वह जानना ष्टौ दं चाहता कोलोनी कै माध्यम से विकसित सस्कृति 
नै लोग को अलग-यलग रटने = वियश कर दियाटै ये दस्यो से भिलना 
जुलना टी नहीं चाहतेटी वयौ ने भी इस विचारधारा क विकास मे मदद 
की है ओद्योगिक एव प्रायिधिक विकास से दश सिमट गया रै ओर्‌ मानवीय 
गुर्णो का लोप हो गया है। कारलानों के पास विकसित गदी शुग्गी क्षोपडियों 
मे मानवीय सम्यन्धों का वया रूप वदला र? मानयता का करिता हास हुआ 
है यह किसी से छिपा नही है! यह कितना सही है कि आदमी जितना 
अधिक साक्षर [शिक्षित नह } हआ है उतना हौ अधिक वह सुध हुए तरीके 
से श्रूठ वोलना सीए गया है। धोखा देने की सुधरी हई तकनीक सीख गया 
है तथा ज्ञान होने पर स्वेन्धित वता कर अपने को दोप से बच निक्लने 
का प्रयत करता है) 

प्रश्न उठता रै कि क्या यही शिक्षा रै? यट शिक्षा काप्रतिष्ल 
है? नहीं एेसा नही रै। सर्वाधिक हानिकारक वात यष्ट हुई कि रिक्षा का 
अर्थ रोटी- रोजगार लिया जाने लगा टै नौकरी रिक्षा का पर्याय समश्चा जने 
लगा है। यत्त से टस आरम्भ हौ गया। शिक्षा का अर्थं दहै- सायिद्याया 
विमुक्तये अर्थाद्‌ विद्या यह है जो मुक्ति शिक्षा का अर्थं है पिनयी नना 
विनीत एोना सवेदनशोल बनना सामाजिक-सास्कृतिकः आध्यात्मिक नैतिक 
दृष्टि से उपयागी नागरिक वनना। आर्थिक दृष्ट से भी आत्पनिर्भर नागरिक 
यनना शिक्षा का एक उदेश्य हो सकता रै पर इते ष्टौ शिक्षा के व्देश्यो मे 
प्रथम स्थान पर्‌ नहीं माना जा सक्ता। आधिक उदेश्य टौ सव कुष्ठ हो 
एसा नहीं कहा जा सकता। यदि शिभा के उदश्यो वौ क्रमानुसाए लिपिवद्ध 
किए जाए तो आर्थिक अआत्मनिर्भता को नीचै जोडा जा सक्ता है पर इसे 
शोर्पस्य स्थान तो कदापि नहीं दिया जाना चारिए। 

शिक्षा का उदेश्य है- वालक का सर्वागीण विकास उसके सोचमे 
धिचारनै का क्षेत्र विस्तृत हो पूर्वग्रहो से मुक्त होकर स्वतत्र चिन्वन क्र सकफे 
सकरुचित दृष्टिकोण का त्याग कर सके एक दूसरे के कर्ष्टो मे काम आना 
उसका दुख वाटना वडा का आदर क्वा गुरजर्नो के प्रति विनीत बनना 
छटि स्वार्थ का बडे स्वार्थ के सामने त्याग क्एना परिवार के सदस्यौ के 
साथ सराहनीय व्यवहार करना पडोसी के प्रति सहानुभूति दमददीं रखना 
सवेदनशील चनना प्राणिमात्र के प्रति दयालु बनना श्रम के प्रति निष्ठा रखना 

आदि मानवीय गुणों कवा विकास। साराशत हमारी शिक्षा का रूप उसकी 


युगीन शेक चिन्तन/2 


ध्यवस्था भारतीय सामाजिक सास्कृतिक- आर्थिक -वैतिक~ आध्यात्मिक तथा 
दार्शनिक धरतौ समे जुडा तेना चाटिए। 

श्रकारान्तर सं शिक्षा का अर्थं सीख हुए जान से वदती हह पास्थितिया 
मे अपने व्यवहार मे परिवर्तन लाना है अर्थात्‌ मई स्थितियों मेँ समायोजन 
कना ही रिभा है। गाधो ने इसी को या कहा भनुष्य मे [यायालकर्मे] 
प्राप्त प्रकृतित दैहिक आध्यात्मिक सामाजिक नैतिक ओौर सौदर्यातमक 
सम्भावनां को गुर्णो का प्रकटौकरण करवाना! इसी दृष्ट से शिक्षा कौ ध्यवस्था 
नी चाहिए, विघालय मे परठाए जाने वाले पिपर्यो का प्रावधान होना चारिए। 
उनके अनुसार रिष्षा का माध्यम मावृभापा ्ो। जव तक यालक का एक 
भाषा पर अधिकार न हो जाए तव एक दूसरी भापा का अध्ययन-अध्यापन 
आरम्भ न किया गाए। भाया-शिक्षण के उदस्य मेँ एक अभिव्यक्ति उदेश्य 
भीटै। एसा मानने केः पर्यास आधार ह कि वालक मावृभापा में टौ सर्वाधिक 
अच्छी अभिष्यक्ति करए सक्ता है। प्राथमिक विघालय मे यालक वो 5 पं 
की आयु पूरौ कएने के पूर्वं प्रयैशा नहो दिया जाना चाहिषए। परे देश में पेमा 
कानूनन अनिवार्यं कट दिया जाना -चाषटएि फ्याफि इस दग्र तक यालक वो 
सेने-कूःदने क पर्या अनगितत अवसर मिलने चाहिए। इस कवी उप्र मे 
उसे विद्यालय मे प्रपेश दिलाकर उसका वचपन नही टीना चाहिए। 

मनुष्य नातेग रहे उसे यीमारी न हो इसके लिए आवश्यक है 
कि वालक फो स्वास्थ्य-विज्ञान का ज्ञान कएया जाए, ध्यायाम का अभ्यास 
हो| उच्च स्तर के च्यायसायिक पाद्यक्र्मों यथा चिक्रत्सा विधि अभियन्तिकी 
म मानवीय सम्बन्धो पर अधिक महत्य दिया याना चारिये। अध्यापन समाज 
काये प्रबन्धन आदि के पादयप्रमों म अन्य गुर्णो फे साथ प ष्यायसायिक्ता 
का अधिक विकासो रसे प्रयत्र किए जाने चा्िए्‌। यह आण फे समाज 
की अनुभूत आवश्यक्ता ै। 

शिक्षा की सीटी सभी प्रान्तों म एक समान होनी चाटिए। इससे 
अभिभायको के एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण होने पर यै कठिना 
का सामना कएने से बच सकं) एसा छेते पर उनका कर्ती भी प्रवेश आसानी 
से ष्ट सकेगा। समग्रत शिधा फे रूप के सम्यन्धमे जो भी परिवर्तन करिए 
जं वे आधेमनसेनरहहो पूरौ मन से दृढता के साथ दूरगामी फतितार्ो 
की दृष्टि से किए जां। पाठ्यक्रम मे जो भी वर्ते जोडी जाए या हाई 
जाए उनका सभी स्तरे पर दृढता से लन हो। 

मूल्याकन शिक्षा से अभिन रूप से जुडा हुआ है। पटाने वाला शिक्षक 
ह स्वय मूल्याकन कंदे उसने अध्यापन के समय किन-किन देश्य को दिमाग 


युगीन शैशिक चिन्तन/3 


मे रखा ई इस दृष्टि सं यट अच्छा मूल्यास्ने कर सक्ता है वही मूल्याकन 
चैध भी हेता) पर आज परीक्षाए्‌ ठो विडम्यना दहा गई शिक्षको पर 
भाति- भाति के दवाव आत हं वे सदौ मूल्याकन हौ करेग यह सदंहास्मद 
ही रहता है। मूल्याकम कमै सामाजिक या लोक स्वीकृति वनी रनौ चाहिए्‌। 
यदि किसी विद्यार्थी के चत्त प्रमाण पत्र म समय की पायन्दी गुण की "सी 
ग्रेड दी ग्डूरैतोन तौ विद्यार्थी अपना प्रमाण पत्र वाना चाहता टै तथा 
न षी नियोच्छ उस देखने मे सुपि खता है। नियोक्ता भी नियुक्ति के पूं 
बो के प्रमाण पत्र को देख तेना षयि मानता है । प्रयत्र यह किया जाए 
चरि शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को दिए "सी ग्रेड की महत्ता स्थापित की जाए्‌ 
तरथा नियोक्छ उसे देखे ष्टी} तभी शिक्षक का सम्मान बदढगा। पर यहा यह 
श्री जरूरी रै कि शिक्षक को भी मूल्याक्न मेँ ईमानदार वैधे तथा वस्तुनिष्ठ 
हीना पैगा। 

आज शिक्षा का स्तर यह टै कि अधिस्नातक शिमक कार्यभार सम्भालने 
का आयैदन पत्र नही लिख सक्द्रा गणित सहित सरातक बाजार मे सच्जी 
खरीदते समय चालाक् मालिन से ठग लिया जदा है इसलिए रिक्षा की 
गुणवत्ता मे सुधार अम्‌ प्रश्च है इस षर समय रहते विचार किया जाना 
-चादिए। 

आज घ्यवहार मे देखा जाता है किं शिक्षा की ललक टर प्यक्ति 
भ॑ बेदी टै। पान बेचने घाला भी अपने चचे को एमए बीए पास देखना 
चाहता है। इससे सस्थाना मे विदयर्थिया कौ सख्या मे कड गुनी गृद्ध हो 
गई है तथा आज लोक कल्याणकारी राजनैतिक व्यवस्था मेँ उन्हं प्रवेश देने 
से मना नर्टी किया जा सकता। बडी-वदरी कक्षा मे विदयार्थिया पर शिक्षक 
वैयक्तिक ध्यान नहीं दे पाता है। रिक्षा प्रशासकों कौ एसे साधन एव तरीके 
खोजने धाटिए जिससे प्रत्येक विद्याथीं का शिक्षक से निजी सम्पर्क चन सके 
तथा शिक्षक अपने विधार्धियो मे वचित गुर्णो का विकास कर सके। 

इस वातं पर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चादिए कि अध्यापकं के 
पद पर सही व्यक्ति का चयन हो! कल्पना कीजिए कि दो व्यविति अध्यापक 
के पद्‌ पर नियुक्ति के लिण आशार्थी हे । एक प्रथम श्रेणी मे एम ए पास 
माता-पिता की आना न माननं वाला परीक्षा मे उदण्डतापूर्वकं अनैतिक तरीकों 
से नकल करना पड़ोसी सं सर्व लडने इ्गडमे वाला वात्तचीतं म॑ गाली- 
गलोज करन वाला तथी दूसरा आश्ारथी द्वितीय श्रेणी मे उतीण विनीत माता- 
पिता की इव्वतं करनं वाला सहपाठियो क साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार कएने 
वाल्ला पडोसियौ के साथ सवेदनशील शःलीन आदि गुणा वाला! कोर भी 


युजीन शेदिक चिच्तन/4 


वियेकश््मत या समक्षदार आदमी द्विताय श्रेणी मँ उत्तीण आशार्थी कौ शिभफ 
कै पद प्रं नियुक्छ कर लगा। देसे टौ अध्यापक सहायक शिक्षण सामग्री कौ 
चना भी कए सक्ते हं तेथा कक्षा कं उपयोग क्र अध्ययन का स्चिप्रद 
चना सक्तं है। 

यह याद रख! जाना अत्यन्त जरूरी ह करि वड-बड भवनो म॒ही 
अच्छी शिधा दी जाषएगी। यह कोई आवश्यक नर्त हं । छदी इमारतों म रिक्षा 
कौ गुणवत्ता प्रर नियाट प्या जा सक्ता है। सवाधिक महत्वपूणं वात तो 
यटहै कि शिक्षफं को वालक के टितिमं पूरे मनसे काम क्टने को तत्स 
वनाया जाए्‌। भव्यं भवना का शिभर्को के परिश्रम-कक्षा के मधुर एवं प्ररणास्पद 
वता्यरण जहा बालक साता है म साधा कोटं सम्बन्ध नही ै। 

कक्षाध्यापन के समय वालफ का समग्र व्यक्तित्व शिक्षक के सम्मुख 
रहना चाहिए्‌। चालक क्सि परिवार से आया रै भाई बटिना की शिभाका 
स्तर क्या माता-पिता कितना मागदशन क्र सक्ते टै क्या परिवार की 
प्ली पीढी ही विदघालय मे आई रै इन सवसं भी बालक वा सीखे के 
लिए उग्रपणा मिलती ट। यदि शिधक कं दिमागमेये सवयवातंर्ीहं 
तो कम प्रयत्ना तथा कम समय मँ अधिक चार्ज यालक्र का सिखादरं जा सक्ता 
ह तथा वालक प्रसनतापूरवर इन वात कौ आत्ममात्‌ कर लेगा। सक्ष मे 
एसा टाने प्रर शिणक याल का अधिक टित साधन कर सक्ता है! 

इन सव वातो के साथ शिक्षा व्यवस्था एेसी टो किं शिक्षा का प्रबन्ध 
विकरेन्धिवे ्ो। जिसमं हर आदमी अपना महत्व अनुभवे कर सक । शिशा कं 
पत्यक कारय से मम्यन्धित प्रत्यक व्यक्ति लगाव अनुभव कर्‌ ठस वार्य कने 
अपमा निजी काय मानं। समप म शिभा प्रशासनं एव प्रमन्थ स वह यात 
अनुत्राणित होनी चाटिए्‌ कि उपयुक्त वालक का सटी अध्यापक सं उपलव्य 
सीमित साधनो सै वेम से कम लागत पर प्रसततावद्वक यातावएण म सही 
पिपर्यो की उपयुक्त समय पर रिक्षा प्राप हो। 

(ब 


युजी चेशिक चिन्तन/5 


अगली सदी की शिक्षा का 
सम्भावित स्वरूप 


एकं समय था जव गुरू अपने आश्रम मे शिर्ष्यो को विद्याभ्यास 
करे थे न अधिक विद्यां होते थे फलत गुरु शिष्यो मे गाढे पारिवारिक 
जरं स्व्यन्धो का विकास हो जाता था न आज की तरह परीक्षके लिए 
== षयो कं शश्र पत्र से ही जाय होती थी शिक्षक ही मौखिक परीक्षा 
स्ने ये ऊर उनके हारा दिया परीक्षा परिणाम सर्वत्र सम्मान पाता था] शिष्य 
स सद विकास का उत्तरदायित्व शिक्षक पर होता था! आज शिक्षा से 
धे दुख कूर को अपेक्षा कौ जाती है । प्रयम- नागरिको को विश्च अर्थव्यवस्था 
प सूदे यनाना तथा दूसरा- उम ज्ञान कौशल तथा ज्ञानोपयोग की 
दण से र-रूरू नागरिक वनाना। आज स्थितियो में बहत परिवर्तन आ गया 
है तष्ट वर्प बाद इकोसर्वीं सदी का शुभारम्भ होने साला है। आज 
अ नेश भ्गरूस की हही नही वरन्‌ 50-60 वपं पूर्वं वाली शिक्षा भी नहीं 


2 कक्षोरेति के पूर्वं जहा आवश्यक हो यहा सेतु पाठ्यक्रम आरम्भ किये 
जाय॑गे ओर 
3 अनुपयुक्त विधार्थिथो को परीक्ष मे बैठने से हौ विधिदत रेक लिया जायेया! 

इस वात की पूरी सम्भावना बताई जा संकती है कि अगली शताब्दी 
भे इन सुञ्ञातां पर गम्भीरता से विचार हागा1 

अनि चात ओरं से आवाज आ रटी है कि शिमण सस्थार्ओ म 
आरक्षण से कार्यं का स्तर प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुं है ¡ यदि यह सही 
पाया जाता है तो शिक्षण सस्थाओं मेँ मुख्यत उच्च शिक्षा तथा चिक्रित्सा 
महाविधालयो म॑ अरिक्षण पर सावधानी पूर्वक फिर से विचार किया जा सकता 
है। नई राष्टीय शिक्षा नीति (1986) मे भी मात्र उत्कृष्टता या ब्रे्टता कां 
ही उच्य शिक्षा का आधार बताया गया है। (मेर्टि एलोन पिल षी दी वेक्षि) 
आ्षण के पिरोध म आज विश्च मँ यह बात जोरसे उष्टालीजाग्टी है 
कियाततो श्रेष्ठ बनिये या फिर मच छोडिये। प्रकृतितत्त गुणा लक्षणो तथा 
योग्यताओं का अधिकतम पिकस हो यही सामाजिक म्याय है भ्रजातान्त्रिकं 
रशो का कल्याणकारी उदेश्य हे। यदि कोई र्ट ठेते महत्वहीन विषयो पर 
उलक्ञ जायेगा तो अन्य महत्वपूर्णं विपर्यो पर समुचित ध्यान नर्हौ दिया जा 
सकेगा! इकीसर्वी सदी म र्ता या उक्कृष्टतां पर ध्यान दिया टी जायेगा 
उसका समुचित उपयोग होगा देसी प्रबले सम्भावनां लगता रै। 

स्कूल रिक्षा समा कर उच्च शिक्षा के पाद्यक्रमो मे प्रवेश लेने 
वाले लगभग 80 प्रतिशत विधाथां मानवको पाद्यक्रमों म प्रवेश लेते है तथा 
उस्े से अधिकार विद्यायां तृतीय श्रेणी ्ेँ उत्तीर्णं होते है जिनकी सार्वजनिक 
सयाओं मे किसां भा प्रकार नहीं खपाया जा सक्ता) इसलिये अगली सदी 
मे उन शिक्षा सस्थान तथा ठनमे भो मानसिकी सको के विकास कौ सम्भावना 
बहुत कम रह जायगा! 

विधयरथा अर्थपूर्ण स्कूली कार्यक्रम के लिए आवाज उठायेगे कार्यातमक 
साक्षरता प्रर जोर दिया जायेगा} अस्तित्य बनाये रखने तथा फलने-फूलने के 
लिए युवाओं को क्था जानना चदिएुसमायं तथा दश क किस प्रकार के 
शन तथा कौशल कौ आवश्यकता है इस प्रकार यदि जीवन से चुटी उपयोगी 
शिक्षा पर्‌ यदि आग्रह किया गया तो शिक्षण सस्थाओ से विधार्थियो का अलगाव 
दूर्‌ होगा उनकी उनसे खलप्रवा वढेगी। आज तो स्थिति यह है कि उन 
वि्ालेय आने को प्रयोजन या उदेश्य टौ मालुम नो है। प्रयतत यह किया 
जारहमाहै कि र स्तर पर शिक्षा अपने आप्‌ म पूर्णं हो। उच्च प्राथमिक 
शिक्षा मे प्रवेश के लिए प्राथमिक या महाविधालय मे प्रवेश के लिए सीनियर 


युगी शैक्षिक चिन्तन 


अगली सदी की शिक्षा का 
सम्भावित स्वरूप 


एक समय था जब गुरू अपने आश्रम मेँ रिर््यो को विघाभ्यास 
करते थे न अधिक चिचार्थी हेते ये फलते गुरु शिर्प्यो मे गदे पापिविारिकि 
मधुर सम्बन्धो का पिक्रास दो जाताथा न आज की तरह परौक्षा के लिए 
3-3 षट के प्रश्रपत्रसे टी जच टोती धी शिक्षक टी मौखिक परीक्षा 
लेते थै ओर्‌ उनके ह्वा दिवा परीक्षा परिणाम सर्वत्र सम्मान पाता था! रिष्य 
के सर्वागोण विकास क्षा उत्तरदायित्व शिक्षक पर टता धा। आज शिक्षा से 
दो मुख्य कार्यो कौ अपेक्षा की जाती हे । प्रयम- नागरि्वो को विश्च अर्थव्यवस्था 
कै प्रति सेत बनाता तथा दूसय- उन्हें चान कौशल तथा इानोपयोग की 
दृष्टि से जागरूक नागरिक वनाना। आज स्थितियों मे बहुत परिवर्तन आ गया 
दै। मात्र पाच छ यर्पं वाद इकीसवीं सदौ का शुभारम्भ होने वाला है। आज 
की शिभा भूतकाल की ही नरी वरन्‌ 50-60 वर्प पूर्वं वाली शिक्षा भी नदीं 
शै। तो ष्या अगली सदी कौ शिक्षा आज की सदी की रिक्षासे भित नहीं 
होगी? द्यागी वह अवरय हौ भिन्न होगी। धुधला टी सट पर आने वाली 
सदौ कौ शिक्षा का उसके स्यरूप का अनुमान लगाया जा सकता है! 
अगली शताब्दी मे यह बात जोर पकड स्केती है कि 
शिक्षा के क्षेत्र मे सख्यात्मक विकास की अपेक्षा गुणवत्ता पर अधिके आग्रह 
किया जये। प्राथमिक रिक्षा सबको मिले सम्पूणं साक्षरता हौ पर्‌ उच्च शिक्षा 
पात्र विधार्थियो को ही मिले हर्‌ किसी को निरुदेरय उच्च रिक्षा मे प्रवेरा 
म दिया जाये। वे आधे मनं से पठते है रोजगार मिलने पर पटना टोड 
देते रहै इससे सत्र के मध्य अन्य विघा्थीं को प्रेश भी नरह दिया जा सकता 
ओर इससे मानवीय साधर का दुरुपयोग होत्ता है । ज्ञान की गहरी भूख 
चातै सुपात्र विद्यर्थियौ को ही उच्च शिक्षा के लिये प्रवेश दिया जाये! इसन 
समस्या के हल के लिए अगली शताब्दी मे निघ्रलिखित तीन बातो की सम्भावना 
स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है - 
1 पात्र एष चुनिन्दा विद्यार्थियों को ही उच्व शिक्षा के लिए प्रवेश मिलेगा 


युगीन शेदिक चिन्तने/6 


2 ककषोमरति के पूर्वं जहा आवश्यक हो वहा सेतु पाठ्यक्रम आरम्भ किये 
जायेगे ओर 
3 अनुपयु विदयार्थियो को परीक्षा मे चैठने से ही विधिवत्त रोक क्षिया जायेगा। 

इस बात का पूरौ सम्भावना बताई जा सकती है कि अगली शताब्दी 
मे इन सुक्षावों पर गम्भीरता से विचार होगा। 

आज चाच ओर सै आवाज आ रट टै कि शिक्षण सस्याओीं म 
आकषण से कार्य करा स्तर प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। यदि यह सही 
पाया खाता है तौ शिक्षण सस्थार्जा मे मुख्यत उच्च शिक्षा तथा चिकित्सा 
महविधालया मेँ आरक्षण पर सावधानी पूर्वक फिर से विवार किया जा सकता 
है] कई ष्ीय शिक्षा नीति (1986) भे भी मात्र उत्कृष्टा या श्रष्टता कौ 
ही ठच्च शिक्षा का आधार बताया गया है। (मेरिट एलोन विल वौ दी बैसि) 
आरक्षण के पिरोथ मे आश विश्च मे यह वात जार सं उल जा ष्टी है 
क्यातो र्ठ पनिये या फिर भच टोषिये, प्रवृति गुण लक्षण सथा 
ोग्यताओं का अधिकतम विकास हो, यहीं सामायिकं न्धाय है प्रजातान्तिक 
दशो का कल्याणकारी उदेश्य है ! यदि कोई राट पेते महत्व्तैन विषयों पर 
उलिक्च जायेगा तो अन्य महत्वपूर्णं विपर्यो पर समुचितं ध्यानं नहो दिया जा 
सकेगा। इफोमर्वीं सदी में श्रेष्ठता या उक्कृष्टता पर ध्यान दिया हौ जायेगा 
उसका समुचित्र उपयोग होगा देसी प्रयल सम्भावना लगती है। 

स्कूले शिक्षा समाप्त कर उच्च शिधा के पाठ्यक्र्ो मे प्रवश तौने 
वारौ लगभग 80 प्रतिशते चिद्ार्थी मानपिकौ पादयक्र्मो मे प्रवेश तेते ह तेय 
`ठप्षमे से अधिकाश विद्यार्थी तृतीय श्रणी मँ उत्ताण शतै रै जिनको साद॑जनिक 
सेषाभा में किसी भी प्रकार नरी खपाया जा सक्ता! इसलिये अगली सदी 
मे ठच्च शिक्षा सस्थान तथा उनमे भौ मानसिकी सकार्यो के विकास कौ सम्भावना 
वहते कम रह जायेगी। 

विदयर्थी अरथूर्णं स्वूली कार्यक्रम के लिए आवाज वठर्येगं कार्यत्मिक 
साधा पर जोर दिवा जायगा। अस्तित्च बनाये रखने दथा फलन॑-फूलने के 
लिए युवाओं कौ क्या जानना चाहिए.माज तरथा देश कौ किप प्रकार के 
ङान तथा कौशल कौ आवश्यकता है ईस प्रकार यदि जीवनं से शङौ उपयोगी 
शिक्षा पर यदि आग्रह किया गया तो शिक्षण सस्थाओं से विदार्थियो का अलगाय 
दूर गा -उनकी उनसे सलप्रता वेगौ! आज तो स्थिति यष्ट है कि ठँ 
पिधालय अनि का प्रयोजने या उदेश्य हो मातूम ने है। प्रत्र यट क्रिया 
जारे किर स्वर पर शिक्षा अपने आपे पूर्ण ते। उच्य प्राथमिक 
शिश्वा में प्रवेश के लिए प्रथभिक या महाविद्यालय मं प्रवेश के लिए सीनियर 


युजीन शैदिक चिन्तन/7 


माध्यमिक परीक्षा पास हाना अनिवार्य न हो प्रवेश के लिए सम्भव दै एेसी 
दृढता आवश्यक न हो। प्राथमिक शिक्षा पाने के बाद हौ यह नागरिक के 
रूप मे विकसित हो। 

आने वाली सदी कौ शिक्षा का स्वरूप क्या ्ोगा या उसके किस 
रूप म॑ परिवर्तन की सम्भावना हो सकती है अगली सदी की शिधा के 
परिवर्तन को सुविधा एव स्पष्टता की दृष्टि से कुछ विशिष्ट शीर्षको में तिपिबद्र 
कियाजारहारै जो नीचै की पर्या स्पष्ट करती रै - 
शिक्षादर्शन या शिक्षा के सिद्रान्त 

शिक्षा के सामाजिक तथा वैयक्िक उद्ेश्यो मे भारी परिवर्तनं की 
अक्षा कौ जा सकती है ! व्यक्ति का सर्वागीण विकास तथा सामाजिक उदेश्य 
शिक्षा के प्रमुख प्रयोजन माने जाते थे- इन्टी की दृष्टि से विषय कस्तु का 
वयन होता है । शिक्षा मुख्यत दो प्रकार से मानी जाती है ~ उदार या सारित्यिक 
या किताबी शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा। सामाजिक धिकास के लिए शिक्षा 
या सस्कृति के सरक्षण के लिये शिक्षा या आध्यात्मिक विकास या अवकाश 
के लिए शिक्षा या वैयक्तिक कौराल प्रापि के लिए शिक्षा की जगह भव 
शिक्षाकौत्रेड एण्ड बटर या रदी रोजी से जोडा जा रहा है । आज समश्ष- 
वृञ्ञ भाई-चरि विश्चबधुत्व या वैयक्तिक विकास के लिए शिक्षा आदि उदेश्य 
महत्वर्पूण नहीं रह गये हं । इसी दृष्टि से शिक्षा के उदेश्यो मे परिवर्तन एमे 
करी प्रबल सम्भावना है तथा आशा की जानी चाहिए किं आने वालौ सदी 
भे रोजगार के लिए शिक्षा-शिक्षा के उदश्यो मे प्रमुखता से जुड जाये। अ््ेजा 
के समय मे शिक्षा का प्रमुख उदेश्य लिपिक तैयार करना था! दूसरे शब्दो 
में आने वाली सदी तक व्यावसायिक शिणा का इतना विकास दो जाये कि 
शिक्षा के अन्य वदेश्य ओश्चल एो जाये। किसी को यह मानने मे आपत्ति 
नहीं हानी चारिए कि रोजगार के लिए शिक्षा-रिक्षा फा बहुत हौ सकुचित 
उदेश्य है। पर शिक्षा मत्रालय को जिस प्रकार मानव ससाधन विकास मप्रालय 
शीर्पक से नये रूप मे परिभाषित किया गया है उसी भाति सम्भव है रोजगार 
के लि्‌ शिक्षा उदेश्य स्वीकार करते हुए शिक्षा को मानव साधन विकास 
की प्रक्रिया मे केन्र बिन्दु माना जाय तथा शिक्षा सटी अर्थो मँ कार्यं कर 
सके। 

मनोविज्ञान के स्थापित सिद्वान्तो कं अनुसार बालक के विकास षर 
उसके यशानुक्रम तथा वातावरण का प्रभाव पडता है। प्रौढ शिक्षा दूरस्थ शिक्षा 
सायकालीन कश्चायं पत्राचार पाद्यक्रम आकाशवाणी एव दूर दर्शन से पाटो 
का प्रसारण टेप केसेट आदि के विकास एव विस्तार से देश मे साक्षरता 


युगीन शैशिक चिन्तन/8 


न प्रतिशतं वढगा जिसके फलस्वरूप माता पिदा आने वाले समय म उच्च 
शिक्षा प्राप्त कर सक्ते ह! एेसी स्थिति मे यलकौ की साच समक्न सामान्यं 
ज्ञान, सूचनाये तथा युद्धि स्वर निश्चित रूप से सकारात्मक ठग से प्रभावित 
देगा) 
'पाट्यवस्तु 

यैहानिक एव प्रायोगिक विकास से विश्व टे से दायरे म सिमर 
कर रट गया है। भौतिक रूप से देश भले ही पास-पस आ गये षर 
घे अभी अपने छरे-ष्टोदे स्वार्थो म॒ही उलक्ने र्ते ह इससं मानवता के 
वृहद्‌ हितो को नि पटुचौ है। हस दुष्ट से विश्वनागरिक्ता की वात जर 
पक सक्ती है । आपसी भाई-चे तथा सवदनशीलता क विकास सूचक 
यते पाद्धक्रम मे जोडी जा सकती ह । सयुक्त परिवार एक प्रकार से सामाजिक 
जीवन र्मे वौमा का कारव क्रतं हं पर आजक्ल एकाकी परिवार ही अधिक 
विकसित हो रटे । एसी स्थिति मे सयुक्त परिवार आने वाली सदी कौ 
शिक्षा प्ययस्था मे 'महत्वपूरण स्थान यना सकत है 

अति ओद्याणिक विकास तथा अदायुग अपन विकास कां चरम सीमा 
प्रष। लगता है अव ज्ञान तथा सूचना के युग का योलबाता रहेगा। अगली 
सदौ कै पुस्तकालय आज के पुस्कालर्यो से भिन टे वा भारी भरकम 
पुमो की जग माकर फिल्म्स ठपलव्थ रहेगी जिनका विद्यार्थी अनेक कूप 
भें प्रचूरता सं उपयोग कररगे। कम्प्यूटर के माध्यम से हर घर कार्यालय संस्था 
ओघोगिक सस्थान मे उनका आवश्यकतानुसार सूचनाए सप्र टौ नहो रहेगी 
वयन्‌ घे सूचनाए्‌ अघतन भी पतेमी। 

इने परिवर्तनां के कारण रक्षको की दैति वेथा पुने दैनिग कौ 
आवश्यकता निरन्तर यना रहेगी तथा उनके पादयक्रम की विषय च्स्तु भी 
निरन्तर आयश्यक्ता एव समय के अनुसार बदलती रेगी। 
शिक्षण विधियां - 

व्या्यान विधिं से अध्यापन जिसमे विधया्थीं मात्र श्राता वन कर 
रह जाता है अपना महत्व खो देगा। अगती सदी मेँ सिखाने कौ अपेक्षा 
सीखने पर अधिक बल रहेगा। शती ष्टि से समूह कर्य कार्यं गोष्ठी दल 
कार्य अभिक्रमित अध्ययन स्लाइद्स ओवर ड पोजेकटर टेप रिकार्सं 
कंसेटूस पुस्तकालय अध्ययनं स्त्रोत विधि का महत्व दिन प्रतिदिन बटेगा 
फेस आशा की जानी चादिए जव सम्पूर्णं साक्षरता का नाए जोर पकड गरहा 
है ठौ स्वधिगम (सत्फ लिय) के लिए विभिन प्रकार को सामग्री तैयार 
कर शिक्षाथी वो उपलन्ध कराई जायेगी जिससे वै अपनी गति से तया अपने 


युजीन शचैकिक चिन्तन /9 


फुर्सत के समये का उपयोग कर शिधा का साभ उठार्येगे। जनपाधारण के 
हिये ये लर्निंग पकेजेय बड़े महत्व क टो यार्येगे+ इन सव कार्यो के लिये 
भूमिका निर्वट्न ब्रेन स्टामिंग अभिनवीकरण सरस्वतौ यात्राये महत्वपूर्णं सिद्ध 
तगौ) इम सय गतिविधियो के लिए शिक्षो को पुन प्रशिक्षण भी जरूरी एेगा। 
इने सव कार्यो के लिए नई रष्टीय शिभा नीति (1986) के अनुसार अध्यापक 
क पद पर निनान्त सटी च्यवितं का चयन करिया जायेगा जो अध्यापन के 
समर्पित रिक्षा र्मे प्रयोगो का समर्थक सत्य का अन्यके तथा अनुसधान 
कार्य मे रचि-सम्पत हो! इस प्रकार चट कहा या सक्ता है कि शिण 
संस्थां विज्ञान अनुमधान तथा सस्वृंति क सरक्षण ॒परिवरद्रन तथा सशोधन 
यौ केन्द्र यन जायेगी! 
अध्यापक-विधार्थीं सम्वबन्थ - 

ऊपर के विधचन के आधार पर कहा जा सक्ता है कि अगली 
सदौ मे यालक की युद्धि एव उसके तारिक स्तर मे अभूतपूर्वं सुधार्‌ हषा) 
एसा तेने पर ययो से चिना सोचे समञ्चे आङ्ञा पालन कौ आशा नटी वी 
ओ सक्गी। यदि माता-पिता ने किसी कामकोक्ै से यच्वे षो मना किया 
तो सम्भव है मालक तल्नल आदह्ञा का पालन न करे। गुणावगुण की दृष्टि 
से वट आका कौ देयेगा समञ्च मे न आने पर यालक माता-पिता से तर्कं 
पितर्क भी कर सकता है अपेक्षा यह भी कौ जा सक्ती है कि भातापिता 
से तर्कं करके सनुषट हाकर्‌ टौ उन्म अश का पालन करे। इसी भाति 
यदि कक्षा मे अध्यापक ने उसे कभी दण्ड स्वरूप येच पर खषाष्टोने षौ 
कहा ठो यह तत्काल अध्यापक्र कौ आज्ञा मान तेगा रेसा भी नहीं सोचा 
जाना चारिए। यालक् येच पर खा रोन॑ के पूरव अपने अपएध का खाएण 
तया उसकी गम्भीरता भी जानना चाेगा तभी वट आश्ञा पालन करेगा) अध्यापको 
तेथा माता-पिताओं को भी यालक के न तवपूर्णं विवादो को सुनने समष्ने 
को तथा उत्तर देन के लिए्‌ अपने आपको तैयार कना चाहिए। उन्हे यह 
चात अपने दिमाग पसे याह निकाल देना चारिए्‌ किय आयुमेँ ग्डेष्टोने 
से तथा अधिक अनुभवी टेन से अपनी हर यात बच्चो से मनषा तँगे। 

विधार्थी तो विनीत है उसके शालीन तथा विनीत न होने काप्रश्च 
षी नहौरहै। प्रश्न यदिह तो मात्र यह कि बाल सुलभ जिज्ञासा वृक्ति पर 
ध्यान दिया जाये ओर चालक की समय पर उचित मार्गदर्शन की आशा धुमिल 
न हो। वालक कोई भौ कार्य क्णो के पूर्व अध्यापक या माता-पिवा कौ 
आज्ञा का पालन कटने के पूर्वं यदि अपनौ शका करा समाधान या जिज्ञासा 
का च्ल चाहता है तो अध्यापक एव माता-पिता वो इम स्वीकार सरना चाटिए 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/10 


ओर उन्दं सला पपरक्य म सेना चाटिए। गिरसा युदि क वशाभूत त कट 
त यालक पृष्ट रह है तथा इते अनुशसवहीनवा या अवज्ञा के सूप भे नटी 
सेना चाहिए। 


कक्षा व्ययस्था - 

आज वक्षा व्यवस्था मे काष्टौ परिर्वतन ज गया है ! आज अभिक्रमित 
अध्ययने विधा कोई नई यात नली रट गई है{ यौ वात दूर्दशन के लिए 
भो क्ती जा सक्तो है। सम्यत्र विध्याल्यो मे पूरदशन का रिभण मेँ भपपूर 
ठपयोगष्ठा रत ै। इस विधा मे सौ ठहर उरण क रूपमे प्रयाग किया 
जाता रै विधार्थी उ््रेणा पाकर अपनी गति सं आगे पदता चलता ह । इस 
तकनीक के प्रयोग ने पर कक्षाकभ आज क समान नदी गि अध्यापन 
स्वअधिगम कं सिद्वान्त कं अनुसार अगे वदता चला जायगा। इससे स्म 
ह फि 2ावों शताग्टो मे फधाकक्ष का रूप आभ से निर््चितरूपसे भित्र 
ष्या जौर आय ये कंकषाकक्ष उस समय तक आउट श्टेड हो जायेगे। 

इक्कीसवो रहने मे विघ्ालय भवनो वथा प्रयागशालाओं का सधन 
उपयोग हागा-विधालय परियों मे लेषणे व भन कभी मेका साली नही 
रगे भवन का विद्ालय म अवकाशे फे समय सामुदायिक येन के रूप 
मे उपयोग गा पुस्टकालय-पाचनातय सामान्य नागरिको के लिए खोल दिये 
जफेगे। विधयालय पा मेँ सगने से एक लाभ य भी हणा कि शिक्षा 
फी अवसर लागव समाप्त रो जायेगी क्योकि यच्ये अपनौ सुपिधातुसार पारी 
मे षद सेग तथा शप समय पिता ये साथ काम कर उनको मदद कर 
स्ेगे या पृथक से अशकालीन या पूर्णं समय का काम कर परिवार की 
आय बढा स्फैगे। शाखाओं का लम्वा अवकाश कृषकों की सुविधानुसाए या 
फसलो क कायाधिक्य के समय रखा जाय-कृषका कौ रेसी माग प्रस्तुत हौ 
सक्ती है। 

इसमे भी अधिक कसित शोषण सै मुकष्टोने के लिए शिक्षाक 
माग कोगे। इससे सम्भव है सखे्तो तथा चगगा्तँ पर ही स्वल घलने ले। 
कईं यच्ये प्रो परिवार वे छदे-षटोटे काया को छोड कर भी पढना पस्रद 
करेगे! ये पदाई का प्रमाण पतर प्रात कर उच्च पदीं कौ ऊची-ऊचां भोकरियो 
की आरा क्रते ह वे महत्वाकामाए सजोये रो फिर चह ये एक हो क्षा 
म कई सयं रह कंर पास कदं पाद्यम यो रट को वथा गाव की आवर्यकतार्ओं 
से जा जयेगा। यदि खा सही अथौ म तो गया ता पदाः वीव मे छढने 
व स्या यहुठ धट जायेगी करयोकि तव शिभा उनको अर्थपूर्ण लगने 
लगेगी) 


युगीन शैक्षिक चिन्त१/11 


वि्ञान के विकास के साथ साथ मनोरलन के साधना म भी विकास 
हआ रै एव विस्तार भी। खेलने वथा मनोरजन कै साधनों का उपयोग करने 
के याद पिद्र्थी के पास समय ही कटा यचेगा कि वह गृह कार्य पूरा करे। 
एसी स्थिति म विद्यालर्यो को पुनर्विचार करना पगा ओर बहुत सम्भव दै 
विदयर्थियां को यातो गृह कार्य से मुक्ति मिल जायेगी या फिर यदि किसी 
अध्यापक ने गृह कायं पर जोर दिया या आगर किया तो उन्हं गृह कार्यं 
कक्षा म ही अध्यापक के मार्गदर्शन र्मे हौ पूरा कना पडे! एेसी स्थिति 
वच्चो को भारी भरकम वस्ता घर से लाने से मुक्छि मिल जायं तथा पुस्तक 
विद्यालय मे ही रखी रहे। इससे रिभ को अद्यतन जानकारी रखनी होगी 
अन्यथा वे ष्टत्रो मे विकरद के पत्र ष्टो सक्ते हं) विद्याथी जव विद्यालय 
से धर जारयेणे तो उन्हे गृह कार्य का भूत नटी सताया करेगा। 

मनोरजन के इन साधनो का एक प्रभाव कक्षा के सामा्िक सगुथन 
(सोशल कोहेसन) पर भी पषेगा। प्यवतार मेँ आप देखते हँ क्रि आज वागे 
ओर कवयलोनी सस्कृति विकसित हो गईं है। इने कोलोनिया भँ उच्चं आय 
येर्गं के नागरिक मध्यया निग्न आय वर्गं के नागरिको के षयो परया मध्यम 
आय वर्णं के नागरिक निम्र आय वर्गं के नागरिको के यहा नी आते-जते 
ससे न केवल प्राचीन सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिवूल प्रभावं पड रारे 
चरन्‌ विार्थियों का ठीक प्रकार से समाजीकरण भी नही टो र है बालक 
अलग थलग रने लगे है तथा अपने से निप्र आय वर्गं के वालको से मिलना 
जुलना बद कर रहे हँ उनफे सामाजिक सम्बन्धो काक्ेत्र अव ष्टोयाहो 
रहा है। इस भाति उनकी सामाजिकं दुनिया रे मे क्षेत्र भँ सिक कर रह 
जायेगी ओर वे केवल अपने आप मे कंद्धित होते जायगे। पडासी या सहकममीं 
या सहपाठी के प्रति उनकी सवेदना समाप्त हो जायेगी इससे उन्हें कोई मतलव 
महीं रह जायेगा कि पडोसी कसि कष्ट या दुख दर्दमेरहर्ाद्ै। एक 
विस्तृत क्षत्र मे हेते वाली अन्ते त्रिया (इन्टेकसन) से विघा्थीं वर्गं वचित 
हो जायगा। दूरदर्शन ने भी इसन विचा के विकास मे मदद कौ रै। यच्चै 
अपने ठौ धरे भें दूरदर्शन के सामने वैठे रहते है किसी से मिलते जुलते 
ही नहीं इससे सस्कृतिक रूप से पिछठडने (कल्वरल लेग) कौ पूरौ पूरी 
सम्भावना है। यह पिषटडापन वालक को किस प्रकार प्रभावित करेगा यह 
तो भविष्य हौ बतायेगा। 
मृल्याकन एव परीक्षये - 

आज परीक्षा व्यवस्था शिक्षा प्रशासको के लिये सस्था प्रधानो के 
लिये सवसे गम्भोर समस्या यनी हुई है । परीक्षाओं के आयोजक नकल रोकने 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/12 


केकी जो भी उपाय करते ह परीभारथीं उन्हें नकारते ए नकल करने के 
नये नये तरीके खाज तेते है} आज लगभग सभौ रिक्षा वों वस्तुनिष्ठ प्रश्न 
्श्रपत्रो मे जोड रटे हं । सम्भव टै अगली सदी म विश्वविद्यालयों की परीकषर्थिया 
म॑ भी इन्ठं जोडा जाय) इससे प्रश्रं की सख्या वढ जायगी तथा परीक्षार्धिरजं 
को भूरा पादूयक्रम पढना होगा। शिक्षको को वस्तुनिष्ठ परीक्षा कौ तकनीक 
तथा देशेन से परिचित करने क लिए प्रशिक्षण देना होगा) यदि एसा हो 
सका तो परीक्षा वी वैधता बढ जायेगी। यष्ट भी सम्भव है कि वार्षिक परीक्षा 
के वजाय सि्मेस्टर प्रणाली चालू ले जाय। कुछ विश्वविद्यालयों में इसे आए्म्भ 
किया गया है अन्य कुछ ने इसे चालू कर स्थगित कर दिया। सम्भव है 
इस अनुभव का लाभ उठाकर सभी सावधानिया बरतते हुए पुन सही एव 
पूरे मन से तथा गम्भीरता के साथ इसे चालू कर दिया जाय। 

आज जो परीक्षाए आयोजित होती है पे मुख्यत सूचनाओं कौ परीक्षा 
होती है। आते वाले समय मे कौशल तथा ज्ञानोपयोग की दृष्टि से परीक्षा 
का स्थान महत्वपूर्ण वन जाय। 

आज अधिकाश परीक्षाओं मेँ अक दिये जाते ह जो वई अवाछिति 
तत्वों तेथा बुदाक्ष्यो को जन्म देते है कई त्र तो अपनौ जीवन लीला हौ 
समाप कर लेते है। कई स्थानों पर 48 प्रतिशत तेथा करई स्थानो पर 45 
प्रतिशत पर द्वितीय ्रेणी प्रदान कौ जाती है) जो भी स्थिति टो 47 या 44 
प्रतिशत कौ तृतीय त्रेणी दी जायेगी। व्यवहार मे यह अन्तर सुश्मातिसुष्म रै 
जिसमं नापने या गिनने की भी गलत टो सकती है तथा विदार्थो का अहित 
हो सकता दै। इस मानवीय कमजोरौ को दूर करने के लिए गेडिग द्वति 
अगली सदी मेँ विधिवत अपनाई जा सक्ती टै 1 

परीक्षाओं मे नक्ल की समस्या से परेशान होकर कई शिक्षाशास्त्री 
अगली शताब्दी मे परीक्षा हौ समाप्त कर देने का सुञ्ञाय देते है । उनके अनुसार 
शिक्षा सस्थान के खुलने के दिन कौ सख्या तथा विद्यार्थी के उपस्थित हने 
के दिना की सख्या का प्रमाण पत्र परीक्षार्थी को दे दिया जाये! आखिर इस 
परीक्षा का उपयोग ही क्या है? जव नियोक्ता या अन्य पराद्यक्रम वाले अपनी 
प्रवेश परीक्षाए आयोजित करते ₹! चिकित्सा अभियान्त्रिकी शिपा आयुरषेद 
समाजकार्य आदि सभी अपनी परीक्षाए आयोजित कर प्रवेश देते ्ै इसी भाति 
यैक तेथा अन्य नियोच्ठा अपनी अष्नौ परीक्षाए आयोजित करते है तो इन 
परीक्षाओं की उपयोगिता या वैधता हौ क्या है? लगता है क्रि इनकी सामाजिक 
स्पीति समाप हो गई है तो फिर विदार्थो को उसके विद्यालय में उपस्थिति 
के दिना की सख्या का प्रमाण पत्रे दे कर पिड षटुडा लेना समीचीन लगता 
है। 


युगीन शेशिक चिन्तन/13 


अगली सदौ मे इस्र वातं की भी प्रवल सम्भावना टो सक्ती है 
कि विधि द्वार खुली पुम्दक परीक्षा प्रणाली को मान्यता प्रदान कर दी जाय। 
एसी स्थिति मे प्रश्लपव यनाना सरत नती हागा- शिभको को सदैव ही अपने 
को अद्यतन बनाये रखना छ्ेया। किस विपय या प्रकरण पर कौनसरी नई पुस्तक 
वाजा में आई ई- इसे टाला नटीं जा सक्ता। विदयर्थिया फां भी पितृत 
अध्ययन कं लिए अपने आपको तैयार करना हागा-उन्टं अधिक मानसिक 
व्यायाम की आदत खलनी होगी तभी वं भी परीक्षा मे अच्छे अक प्राप 
क्र सकेगे या सम्मानपूर्णं उत्तीर्णं होग। 
शिक्षा का प्रयन्ध 

शिक्षा का प्रवन्थ अगली शाब्दी तक एक महत्वपूर्णं विपय के रूप 
भे उभर जायेगां फिर भौ इस क्षत्र मँ कोई क्रानितिकारी परिवर्तन की तौ आश 
नी की जा सक्तो पर इतना अवश्य ही क्तत जा सक्ता है कि रिधा 
के प्रयन्ध मं निजी प्रयासा की महत्वपूर्णं भूमिका ठोगी। प्रामिक रिक्षाके 
क्षत्र मै निजी प्रयास सरकार के साथ कथासे क्था मिला कर आगे वद 
सक्ते हं! कंडवर्जि या टाय या विला यधुञओं के यागदान के समान ही 
कदं समाजमेवी ओौर भी आ सक्ते ह वथा शिक्षा का आर्थिक भार यहन 
कएने कौ तत्पर टो सक्ते है। सरकार निजी प्रयासो क शिक्षा के विस्ताद 
के लिए वेतन पर शत प्रतिशत अनुदान दे कर प्राथमिके रिक्षा को महत्व 
दे एटौ है। जनसाधारण की जेव पर कु टौ विचारो उच्व शिक्षा प्राप करे 
भविष्य मे वह भी सम्भव नहीं होगा! 

रिक्षा का स्तर गिरने का एक प्रमुखं कारण स्वय शिक्षा का विस्तार 
है1 स्पतत्रता के बाद विद्यालय उनमें पटने वाले विधर्था तथा रिक्षक कई 
गुने बढ़े ै। पर उनकं परिवीश्षण क लिए उपयुक्त कार्भिको का आप्रवेश 
नहीं जा है उनकी भरतीं नही ई रै। इससे शिभा कौ गुणवता मेँ कमी 
आई है1 प्र आने वाले समय भे इस पक्ष पर उचित ध्यान दिया जायेगा 
फेसी सम्भावना वताई जा सक्ती रै1 

रिक्षा प्रशासने के पाद्यक्रम को अधधतन बनाया जा रहा है जो जगती 
सदी तक पूर्णं विकसित हो जाये । अव प्रशासन का स्थान प्रबन्धन के पाठ्यक्रम 
ले दहं ₹ई। पर अभी तक उच्च प्रशासरवो को प्रत्यास्मरण भराद्यक्रमों से प्रशिक्षित 
नरह किया गया है । प्रवन्धन के नये पाद्यक्रमों म प्राधिकारिता का प्रत्यायौजन 
प्ति एव सूत्र सम्प्रेषण प्रणाली सगठन विपि एव शोध निर्णयं प्रक्रिया 
'मानसीय सम्बन्ध आदि नये प्रकरण को सम्मिलित किया जा रहा रै ज प्रशापको 
में यैहानिक दृष्टिकोण विकसित कर सकेगे। इस प्रकार अगली सदी का रिक्षा 


युगजीन शैशिक चिन्तन/14 


प्रशासन एव प्रबन्धन उददशयो पर आधारित होगा तथा सख्त से पालन भी 
किया जायेगा। 

अगली शताब्दी म निजी विधालयो या अग्रेजी माध्यम के विघ्ालर्यो 
या पन्लिक स्कूलों की माग असीमिवं रूप से मात्रा पिता वाग उठाई जा 
सक्तौ है। र इमे सरकार कानून वना कर, सम्भव है नियन्ति कर लगी 
क्योकि कोई भी सरकार अभिभायको को विघ्यालय प्रवन्धको कै शापण से 
अवश्य ही मचाने का उपाय खोजैगी वह ठनकौ प्रबन्धक कौ दया पर न्ती 
छोड सक्ती! समाज कै प्रभावी नेता व्यावसायिक शिक्षा सस्यात भिन्न भित्र 
षेत्रौ भ खोलने का प्रयाप्न करेगे एेमे पादयक्रम छोरी ्टोरौ अवधि के भौ 
हो सक्ते है जिससे ये रेजगार माध्यम या साधन यता कर प्रवशाधिरयो कौ 
आकर्षित कर सकेगे। पर स्थिति में निरन्तर उतार चदाय आता रहेगा इसकी 
भूमी पूरी सम्भावना रहेगी। 

आज हर कार्यं कन्रीकरण पद्वतरि से ठो एहा ह। किसी पाद्यक्रम 
म॑ प्रवेश सेवा मे आप्रषेश, पारद्पक्रम॒पाद्यपुस्तके परीक्षा का आयोजन 
पदीक्षाफरलो की घोषणा आदि! हस ध्यवस्था मे नोकरशाही के कारण वई 
स्तरो पर कार्यं चिगटे ह तथा उनका वाछिति स्तर यना नही रह पाया रै। 
आज स्थान स्थान पर यिकेन्द्रीकरण के लाभ गिनाये जा ररे हं। स्यायतशासी 
विधालय एव महाविघालय रीम्ड विश्वविधालय राष्ट्रीय महत्व के शोध सस्थान 
इसी विचारधारा के पोषक है। सम्भव है अगली शताब्दौ मे इनका पूर्णरूप 
विकास ठो जय। निजी विश्वविद्यालय भी इसी प्रकार का विचार हे जो क्रमश 
यतत प्रकड सकता ह। शिभा मे नवाचार तथा प्रयोग के आधार पर इ्षीसवीं 
सदी मेँ इन फार्यो का महत्य यद सक्ता हे। कुट निजौ सस्थान यहा तक 
कि मान्यताहौन सस्थान भी शिक्षा का वात स्तर वनाये रखते हए अच्छे 
पाद्यक्रम चला रहे ह तथा समाज मे सम्मान प्राप्त किये हुए रह। 

यदि कभी प्रधानाचार्य मे खेलकूद प्रतरियोगित्राओं की तिधिर्यो की 
घोषणा की या विद्यालय चस का रास्ता निश्चित कर्‌ दिया त यष विद्र्धिर्यो 
को सर्य स्कार होगा हौ देसी अपेक्षा नर्तौ कौ जा सकती है। तिधिर्यो 
कौ उपयुक्ता या अनुपयु या यस के रस्ते का सुविधाजनक या असुविधाजनक 
होने पर विधार्थियो की राय भी ली जानी 'चाहिए। इस प्रकार के प्रधानाचार्य 
फ तिर्णयन मे विद्यायां भौ महत्छपूर्ण भूमिका रय सकते हैँ इसी भाति विधालय 
प्रशासन भे भो विचार्धियां की महत्पपूर्णं भागीदारी ठो सक्तौ है। इकीसर्वो 
सदी मेँ विधार्या सदैव हौ प्रधानाचायं को हामेष्ा मिला देणे एेसा नही 
सोषा जाना चाहिए! 

अगली सदी मे दूरस्थ शिक्षा के विकास फी प्रयल सम्भायनायं है| 

युजीन शैक्षिक चिन्तन/15 


प्रथम ता नियोक्छा पुर्वं से कार्य कर रहे अपने कर्मचारिया को नई विधिया 
से प्रशिभित करना चाहते है जिससे घे नवाचार्‌ या विवेकीकरण के फलस्वरूप 
हानि वाले परिवर्तना से परिचित ह सके। इस कार्यं म स्वय कर्मचारी भी 
रचि लेगः क्योकि वे अधिक् शिभा प्रात कर अपना भविष्य उज्वल बनाना 
चाहेगे। एसी रशिभा कौ व्यवस्था अवकाश के समय मे कार्यालय समयसे 
पूर्वया बाद मे सप्ताहातम कौ जा सक्ती है इसे पृथक भवना की आवश्यकता 
मी रहेगी तथा उपलब्थ भवना का हौ सघन उपयोग किया जा सकेगा पत्राचार 
पाठ्यक्र्मो का विस्तार होगा। 

जो किन्हीं कारणा से उच्व रिभा प्राप नटी क्र स्के या बदली 
हुई स्थिति मे उच्च शिभा की आवश्यक्ता अनुभव की जा रटी है या महिलाय 
अव अपनी शिभा जारी रख कर अन्य विपर्यो की रिक्षा प्राप करना चाह 
रही टै जो गरीव या निचले वर्गं के लोग ओौपचारिक रिक्षा का लाभ नहीं 
उठा सके उनके लिए मुक्त शिधा सस्थान वरदान सिद्व हागे। पात्य देशो 
म शिभित मिलाय अन्य विषयों की उदाहरणार्थं मनाविह्ान समाज 
शस्त्र प्रबन्धन गृह अर्थशास्त्र आन्तरिक सखा आदि की शिक्षा प्राप्त करने 
के लिए प्रचुरता से आगे आ रही ह तथा वे अनौपचारिक शिक्षा सस्थाओ 
से नियमित छत्र न वन सक्नै के कारण लाभ उदा रही है। एसे पाठ्यक्रम 
अगली सदी मेँ अति लोकप्रिय रोगे सकी पूरी पूरी सम्भावना है। 

यदि धुधले भविष्य से दुनिया को वाहर लाना है इस सम्बन्ध भे 
इछीसवीं शताब्दी के विद्यां से बहुत कुछ आशा की जनी चाहिए, गव 
विकास कै प्रतिमान से उन्हं परिचित कराना चाहिए्‌। आज मानवता विकास 
के उस विन्दु पर पटच गई रै जहा भौतिक सम्पदा भौ निरर्थक हो रहौ 
र। अव तो प्रश्न यह है कि प्रात सम्पदा वा उपयुक्त वितरण कैसे हो? 
तथा भानव प्रकृतिदत्त अपनी क्षमताओं योग्यताओ तथा कौशलो का प्रकृति 
से सतुलन बनति हुए. विकास कैसे करे? इस सार्थक एव महत्वपूर्णं कार्यं 
के लिए सबकी आखे विद्यालयों पर लगी हुई हं । इस उदेश्य कौ प्राप्ति के 
लिए इकीसयी ' शताब्दी के विद्यार्थी को अधिगम कौ नव प्रक्रिया जाननी होगी। 

सक्षेप मं अगली सदौ कौ शिक्षा क सम्भावित स्वरूप पर ऊपर 
की पक्ति्यो मं प्रकाश डाला गया ह। 

0 


शिक्षा मे नवाचार 


विद्यालय समात के लघु रूप म शैक्षिक सुधार तथा समाज कौ 
पुन रचना रैर महत्वपूर्णं भूमिर निभाता है 1 विधालय दिन-एतं समसयाओ 
तथा चुनौतिया का सामना करते है। समाज कौ समस्यारये मूलत विधालयं 
की टो समस्ा्े हं! इसलिए विद्यालयों को अद्यतन ज्ञान नवीन तकनीक 
मई सूञञवूज् से जानकर होना चाटिए, उन्हं समस्याओं के टल के लिए प्रयत 
करने चाहिए! इन समस्या तया चुनौतिर्यो यो चल करने कं लिए नवीन 
कार्यक्रमो नये साधनों तथा नयाचारो पर कार्यं क्एतं ह प्रयाग कते है। इसी 
भाति विद्यालयों द्वारा भित-~भिन तरीर्को से शैक्षिक नवाचार पर कार्यं किया 
जाता रै। समाज मे परिवर्तनं के कारण विधालयो के सामने समस्या आती 
रहतौ ै। विधालया मेँ परिवर्तन पर आप्रट ही शैक्षिक नवाचाोँ पर विचार 
करने के अवसर प्रस्तुत करता है । शैक्षिक प्रशासक तथा नियोजक ही शैक्षिक 
समस्याओं तथा चुनौतिर्यो का सामना क्रते ह} 

सामान्यतया नवाचार से अर्थं लिया जाता टै-परम्परओ से ट्टना 
कार्य सम्प्र करने कौ रोज की विधिया सै हटना उनम परिवर्तन करएना। 
"नेवाचार शार्ईर आक्सपोडं इग्लिश डिक्सनेरी" के अनुसार का अर्थ है- 
नवीनताओं का समावश पूर्वं से चली आ रटी परस्परओं मेँ विकल्प कौ 
स्थापना नवीन अनुभवं तथा सुस्थापितं विधियो मे परिवर्तन। अन्तरीय श्रम 
सगठनं ने अपने एक प्रकाशन मे मवाचार को इस प्रकार परिभापित किया 
रै। उसके अनुसार नेवाचार का अर्थ है कि परम्परागतत प्रक्रिया्ओं पिरोपतं 
दैनन्दिने अनुभर्वो नियमो तथा उने हेर-फेर हौ नहीं वरन्‌ उनम उन पदव्यो 
का उपयोग किया जाता है जो वडे सयम तेथा धैर्यं क साथ किये गये वैस्ानिक 
अध्ययन का फल होती ह ओर जिनका उदेश्य लक्ष्य तथा साधन के वीच 
सर्वोपुक्त सामञ्जस्य स्थापित करना तथा यह सुनिधित्‌ कएना होता ै कि 
भरत्येक प्रयत्न से सर्वाधिक पल मिले। इसी भाति शैक्षिक नवाघार को रौक्षिक 
परिवर्तन के महत्वपूर्णं घटक के रूप र्मे नये तत्व के समावेश कफे रूप म~ 
एक प्रेरक शक्ति एव सूस्थापिवे एव परम्परागत रूपं से भित व्यावहारिक राय 
चै रूप म परिभापित क्या जाता ₹। 


युगीन शैदिक चिन्तन/17 


नवाचार शब्द की सन्थि-विच्छेद करे तां दो शब्द सामने अत्र 
नव तेथा आचार्‌। नव शब्द नवीन का सूचक ह तथा आचार शब्द परिवर्तन 
का। अत नवाचार का अर्थं जा -रेमरा परिवर्तन जो स्थापित विधिर्यो परम्पराओं 
तथा प्रक्रियार्ज मेँ नवीनता का समावश क१। 

शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार मूलत प्रयोग क वा एव शिधा प्रणालां 
का जग बनने के पहले की स्थिति है। यदि किस तत्व तेक्मीक अवस्था 
या कारक का प्रभाव ज्ञात करने की याजना बनाई जाती है तो यट योजना 
ही प्रयोग क्हलाती है। स्पष्टं किप्रयोग का क्षत्र टोट होगा! प्रयोग के 
अनुभव से लाभ उढठा क्र ही उसका क्षेत्र पिस्तेत किया जायेगा। क्षेत्रे को 
विस्तृत यनाने के पूर्य सशोधन यदि कोईएो तो किया जायेगा। शिक्षा के 
क्षेत्र म उत्साः जरा ज्यादा ही दिखता है विचारविमर्शं तथा अनुभव के 
आधार पर उनकी सफलता के प्रति आश्वस्त ही रहा जाता ै। फिर भी प्रयोग 
के रूप में समय सीमा तथाक्षत्र का सीमाक्न कर्‌ डर या सन्देह या अनिश्चय 
की स्थिति मिदा लेना चाहते ₹। इसका मटत्व इसलिए भी है कि यह प्रयोग 
सामाम्य च्यवस्था से दूर ट कर कुछ नवीनता लिए हए रै कार्य विधिम 
परम्म से चट कर विचार क्या गया है। प्रयोग से इस वात की पुटि होती 
है कि प्रयोग पर आधारित परिवर्तन शिक्षा प्रणाली या व्यवस्था के अनुकूल 
रषेगा या नटीं । शस प्रकार पनालाल वर्मा (1983), कहते ह-'* नवाचार शिक्षा 
प्रणाला के अग यनाये जाने का पूर्वाभ्यास मात्रे रै।' 

नवाचार को स्वीकार क्एे कौ प्रक्रिया कईं अवस्थाओ से गुजरती 
है। ई एम रोजसं के अनुसार ये अवस्थाए निम्नलिखित पाच ₹ै-वोध या 
-तानकारी रचि मूल्याक्न परौक्षण ओर अगीकरण 

सं नवाचारो को स्वीकार करने वाते अधिकारियो को भी पाच भागा 
मै बाते ह॑- 

1 प्रवर्तक 2 प्रारम्भिक अगीकारी 3 प्रारम्भिकं वहुसख्यक 4 
विलम्बित बहुसख्यक तथा 5 फिसड्छी 

नवाचाो कौ प्रोत्माहित कएने के लिए शैक्षिक उपयोगिता को प्रेरणा 
मानना ठीक है क्योकि जत तक शैक्षिक उपयोगिहा या लाभ की सभावना 
दिखाई नहीं देती तव तक शिक्षक या शिण सस्था उन शैक्षिक नवाचारा 
को कार्यरूप देने का निर्णय नहीं ते पार्येगे अर्थान उन शैक्षिक नवाचा्सा पर 


1 डा पनालाल वर्मा (राजस्थान मे नवाचार दशा ओर दिशा) शिषिरा 
बीकानेर प्राथमिक एव माध्यमिक शिक्षा निदेशालथ जनवरी 1983 पृष्ठ 361 


रातीत धिग चिव्त्त/12 


कोई भी कार्यं करम की जोखिम नटी उठायगे। स्पष्टत॒ अध्यापक को अपने 
काम मे सुधार की ललक शिक्षा स्तर उनयन कएने की उनकी जीयन- अभिलाषा 
ही नवाचार कौ ओर भरित करती है1 दूसरे शब्दो म अध्यापक मे अपने 
काम के प्रति असतोप हो उन्हे सुधार की सभावनापं स्पष्ट दष्टिगोचार हो 
दथा उन सभावनाओं पर कायं कटे कौ दृढ इच्छा तथा निधय ही रिक्षा 
मै नयाचार कै लिए रीढ की हौ है। इस भाति शैमिक नयाचार रोक्षिक 
प्रति का र्य मानी जा सकता है। 
यहा कु ओर नवाचार शव्द को भरिभापाए देना अप्रासगिक नही होगा- 
कोई विचार स्यवहार या च्सतु जो नया रै ओर्‌ वर्तमान रूप से गुणात्मक 
ष्टि से भित है, नवाचार कषलाता हें। 
-- एच जी बर्नेट 
नवाचार एक एेसा विचार है जिनमे व्यक्ति नवीनता का अतुभव कता है1 
-- ई एम रोजसं 
भवाचार सचेत रह कर किया जाने वाला नवीन तथा विशिष्ट परिवर्तन है जिसे 
किन्रौ उदेश्यो को प्राप्त करनं के लिए अधिक प्रभावी माना जाता रै। 
-- एमवी माइल्स 
एक अभिवृति कौशल एव उपकरण या इनमे सेदो यादो से अधिक लक्ष्य 
जिन्हे एक च्यच्छि या सस्कृति दारा पहले प्यापहारिकि दुष्ट से न अपनाया 
शया हो टौ नवार का सम्प्रत्यय है। 
-- एच एस भोला 
रौक्षिक नवाचाये के माध्यम से प्रष्ठ एव मितव्ययी अध्यापन वकनीके 
उपलब्ध कना शैक्षिक प्रशासन मे परिवर्तन लाना तेथा शिक्षण सस्थां को 
जागरूक एव गतिशील बनाये रखना ह 1 रौक्षिक नवाचार का उदेश्य अध्यापन- 
विधि शैक्षिक प्रशासन शैक्षिक नियोजन तथा शैक्षिक चिन्तन को अधिकाधिक 
धौद्विक तर्कं सगतं सजग सहज तथा उपयोगितावादौ मानदण्डो पर अग्रसर 
करना है 1 शैक्षिक नवाचार अध्यापक कौ इस बात मे मन्द क्एता है कि 
उसके प्रयब वेकार न जाए दथा उसकै प्रयताः का अधिकाधिक सुफल मिले॥ 


देश मे समय-समय पर विभिन्न शैक्षिक नवाचा्यो पर कार्य किया 
गया हे। कुछ नवाचार भित भिन्न स्थानों पर सयुक्त प्रयासा के रूप मे शुरू 
किये गये रह । उनकी भविष्य मेँ क्या स्थिति होगी? इस पर भौ विचार किया 
'जाना चाहिए। राष्ट्रीय शैषिक अनुसधान एव प्रशिक्षण परिपद नई दिली के 
क्षेत्रीय सेवा प्रसार विभाग ने 1565 मे एक मासिक पत्र "दि न्यू प्रेकिटसेज 


युमीन शैक्षिक चिन्तन/19 


इन स्वूल्स' नाम से शुरू कया था जो दुरभाग्यवश अपने डैशव मदी 
1959 मै चद ह गवा} भातत सरकार के शिक्षा मत्रालय ने रष्टय क्षिक 
नियोजन एव प्रशासन महायिद्यातय को सटायता सं 1570-71 मे भो प्रातो 
मै चल रहे 58 शैक्षिक नवावायो का अध्ययन किया! 

यटा यह स्पष्ट किया जाना उचित्त जान पडता है कि नवाचा तथा 
नये या ताजा विचारा (1100\810175 0 {6५४ 0 १6८1 18705} 
मै कैसे भेद किया जयेगा? किसको नवाचार कष्टा जये तथा किसको नया 
विचार। नये या ताजा विचार सापक्षिक शब्द ह । नील के विद्यालय मे मुक्त 
अनुशासन था रिंसी प्रकार का आदेश विदर्थिया को नर्हीं दिया जाता था। 
शिक्षाथीं प्रकृति से ही सीयते थे सभव है यह विवार इूगरपुर जिले की 
तहसील के किसी भाव के लिये आज भी सिद्धान्तव शैक्षिक नवाया माना 
जाय। इसी भाति प्रधानाध्यापक वाकूपीठ जो लगभग करीन दशाब्दियों से राज्यात 
भे कार्य कर रषौ है उदयपुर जिले की भीम त्रहसात कं किसां भी गाव 
के लिए शैक्षिक नवाचार नीं है जवकि यह प्रधानाध्यापक वाक्पौठ का सम्प्रत्यय 
अण्डमान निकोवारे द्वीप समूह मे नवाचार माना जा सक्ता है। इस प्रकार 
किसे नवाचार माना जाय तेथा किसे नटीं इस पर देश तथा काल कौ दृष्टि 
सै भी विचार किया जाना चािए। 

एक अन्य स्थान पर वर्मा वखी पीडा के साथ इने नवाचारो पर 
समीक्ात्मक दृष्टि डालते हए कहते ह कि † कई नवाचां का दम घुट चुका 
है कड मृतप्राय है कुछ अतिसिरभण कां पाडा भोग रहे तो कुट सबल 
कै लिए तरस रहे है ओर कुष्ट रिक्षा प्रणाली का अग यन चुक्मै के बाद 
भी अपना चोला नही छोड पारहैर्है। 
शैक्षिक नवाचारो का वर्गीकरण 
शैक्षिक नवाचा्े की दो वर्गो मे बाया जा सक्ता है- 
1 सेद्वान्तिकं नवाचार्‌। 
2 सगठनात्मक नवाचार। 

ैद्धान्तिक मवाचार - इसा सवध चिन्तन से है। याह कार्य हर 
शिक्षक कै वश का नटी ६ै। इस बौद्धिक कार्य के लिए गिने चुने अध्यापक 
हौ जगे आ सरकैगे। सैद्रान्तिक नवाचार का एकं उदाहरण देखिए- आज मरीक्षार्म 
मै नकल कने की दुचप्वृति येहिसाव घरं करती जां रही है नकल कौ रकन 
के लिए जो भी उपाय किये तति रहे टे वे सवं प्यत्र असफल हौ गये 
ह। एेसी स्थिति मे य८ सोचा जाने लगा है कि विद्यार्थो कौ मात्र उसकी 
विद्यालय मे उपस्थित रहने के दिनो की नक्ल क्ले को रोकने के लिए 


युभीन शेकषिक चिन्तन/20 


जोभी उपाय जाते रहे है । का प्रमाण पतर दे दिया जाय तथा जो उसको जीयिका 
याक्ताम दे रेहे है, षट अपनौ आवश्यकताआ के अनुसार उसकी परीक्षा ले 
लँ! लाक सेवा आयोग भी तो अपने स्तर पर परीक्षाए आयोजित करता हे 1 

सगठनात्मक नवाचार - इन नवाचारा मेँ शिक्षण विधि या शिक्षा 
कौ सीठी मे परिवर्तन कौ गिनाया जा सकता है जैसे- व्यक्तिनिष्ठ ऊध्यापन 
10+2+3 रिक्षा योजना या अभिक्रमित अध्ययन 

कड वार भवाचारो का यह भद स्पष्ट नदीं दीख पायेगा। क्रिस 
एक नवाचार्‌ को दोनों वर्गो म॑ रखा जा सकेगा। 
शैक्षिक नवाचारो को एक अन्य प्रकार से भौ वर्गीकृत किया जा सक्तारै 
1 सामाजिक अन्त क्रियात्मक वर्गं ओर 
2 समस्या समाधान मूलक वर्ग 
शैक्षिक नवाचारो के विभिन्न पक्ष 
शैक्षिक नयाचारो पर विचार करते समय इनके विभिन पक्षो पर भी ध्यान 
दिया जाना चाहिए 

सामाजिक एव मानवीय पक्ष - इसमे सदेह नहीं कि रौधिक 
नवाचारो कौ अपनाने से तथा `उनपर सफलतापूर्वक कार्य कएने से शिक्षा से 
जडे विभिन्न वर्गो (शिक प्रशासक नियोचक पर्ययक्षक चिन्तक आदि) 
मे से किसी एक वर्गं को सम्मान मिल जाये या वह वर्गं अधिक प्रकाश 
म आ जायै। कुछ नयाचार मानवीय कल्याण कं विरुद्र भौ माने जामे लगे 
ई जैसे परीष्माफलः का मशीन पर्‌ तैयार हान इसी भाति अभिक्रमित्‌ अध्ययन 
विधि अध्यापको मेँ यट भय चैदा क्र एही है कि इससे तो अध्यापकों का 
प्रतिस्थापन हो सकता है- इससे अध्यापक वकार टो जारयेगे। यह एक सदेह 
मात्र ही है जिसका अध्यापक तथा प्रशासक साथ वैठ कर धैर्यं के साथ 
सदो का निराकरण कर सही स्थिति समक्न सकते है । 

तकनीकी पक्ष ~ शैक्षिक नवाचारो पर कार्य करते समय इस वात 
पर आग्रह रहता दै कि वह सामान्य अध्यापक के उपयाग के लिए हो! वह 
इतना उलक्षनपूर्णं या तकनीकी पूर्ण न वन जाय कि उसको ममन के लिए 
भी एक चोटी की शिक्षा प्रा तकनीशियन कौ जरूरत पडे। इसलिए करई 
जार प्रशासक यह कहते पये जति है कि नयाचार की योजना सव की समक्ष 
मे आने षाली दो त्तथा प्रभारौ अध्यापक का स्थानान्तर होने पर भी उत्त प्र 
कार्य जारी रखा जा सके तथा उस पर किया गया व्यय तथा मानवीय श्रम 
स्यथ न चला जाये! फिर भी यह तो नहो कहा जा सकता कि सभौ अध्यापक 
उसको समश्च लगे! यह तो निश्चित रूप से मानना 'ही चाहिए कि नवाचारो 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/21 


यट होता है कि भानवीय प्रयद्र तथा धन की वचत होते लगती ्ै। इनके 
अपनाने से समाज के आर्थिक तकनीकी ज्ञान एवं मानवीयं श्रम का सयाधिक 
समुचित उपयोग हाने लगता । इस प्रकार यह कला जा सक्ता है मि शिक्षा 
म॑ नवाचें का प्रवेश शैक्षिक दृष्टि से लाभप्रद लगता है। अव तक लगभग 
20-22 शोध अध्ययनं (सभी प्रारभिक प्रकृति कं) शैक्षिक नवाघार्ये फे क्षत्र 
मे ष्टए ६। इन शोध अध्ययनो म प्रधानाध्यापक वाकूपीठ शोध धाकुपौठ 
सूक्ष्म अध्ययन अभिक्रमित अध्ययन प्रहर पाठशाला विद्यालय सगम कार्यं 
अनुभव विद्यालय यौजना, रात्रि पाठशाला आदि सम्मिलित है । इन शोध अध्ययना 
की अध्यापक उपयोगिता जानते हं! साधारणतया इन कार्यो से विद्यालय का 
सम्मान वढता ै तथा शमभिकं उपयागिता स्यय स्पष्ट है। इन शार्धो बी उपयागिता 
हुताशो मेँ अध्यापको द्वारा नवाचाते कौ स्वीकृति षर निर्भर टै। 
नवाचार की विशपतार्ये 
1 यट एकं नया विचार है। 2 गुणवत्ता की दृष्टि सै वर्तमान स्थितिर्यो से 
मवाचार शरेष्ठ विचार दहै। 3 यह एक सुधार के लिए जनवृज्च कर दिया 
शया नियोजित प्रयास हं । 4 नवाचार मे विशिष्टता का तत्व विद्यमान रटता 
है। 5 नयाचार का उपयागिता स्वाकार करत हुए इसं जाननूञ्ञ कर अपनाया 
पाता है। 
शैक्षिक नवाचा्यँ सबधी शोध की कठिनाड्यां 

नयावारो के प्रसारण का अनुमाने लगाना वडा कठिन है । नवाचापे 
को अध्यापको मै किस सीमा तके स्वीकार कर लिया रै या शिक्षा-प्रशासकों 
ने किसी सीमा तक उन पर विश्वास केर लिया है-यह एक पृथक शोध का 
विषय रै जो काफी उलङनपूर्वं तथा तकनीकी पूर्णं ह । नवाचारो की स्वीकृति 
पर सुस्पष्ट सूक्ष-वृ्पूर्णं शोध कार्य टाथ मे लिया जाना चाहिए! एक उदाहरण 
से यट स्पष्ट हो जायेगा। अभिक्रमित- अध्ययन विधि के अपनाने से अध्यापक 
के प्रतिस्थापन की सभावनः वढं जाती है। इस तथ्य को स्वय शिक्षक किस 
सीमा तक स्वीकार करने को तत्पर हँ उनके उत्तरो के विक्त्प इस प्रकार 


हे सक्ते है - 
1 निश्चित रूप से सहमत 2 सटमत 3 तटस्थ 
4 असहमत 5 निश्चित रूप से असटमवे 


इसे पच-विन्दु मापनौ कटा जाता है इसे ओर अधिक विकसित 
क्रिया जा सकता है। इस तथ्य पर प्रशसको की भौ प्रतिक्रिया जानी जा 
सकता है तथा उनसे भा इन्हीं विकल्पा पर उत्तर लिये जा सकत है! इसी 
भाति रौक्षिक प्रशासन सबधी मवाचार शिक्षक किस सीमा तक पसद करते 


युगीन शैशिक चिन्तन/24 


है? मान लीजिए शिक्षा प्रशासन मे सम्पण प्रणाली नीचे से ऊपर की ओर 
पुनर्गठित की जाये। अध्यापकों के उत्तरो के पिक्ल्पं या यन सकते है ~ 
1 दृढता से पसद 
2 पसद 
3 अनिधचित्‌ 
4 नापसद 
$ दृढता से नापसद 1 
इस प्रस्तावित सम्प्रेषण प्रणाली को स्वय शिक्षा प्रशासका मे किस 
सीमा तक स्वीकार कनं के लिए तत्परता ह? प्रथम उदाहरण मे दिये गये 
उत्त के विकल्पों को यदा भी काम र्म लाया जा सक्ता है । यष्टा यह स्मरणीय 
है कि चितने अधिक विद्दुओं पर मापन होगा मूल्याकन रपक्रण कौ 
विश्वसनीयता उतनी हौ अधिक वद जायेगो। 
फिर भी वैधता की समस्या तौ वनौ ही रहेगी क्याफि भारतीय स्थितियों 
मे प्रश्नावली या अनुसूषी पर उत्तरदाताओं से सटी उत्तरे कौ या उनके मन 
की सही बात की आशा नही की जा सक्ती तथा शोधकर्ता प्रत्यक रिक्षक 
मित्र ये पास जाकर उनके व्यवहार का निरीक्षण नर्टी कर सक्ता ्ै। गो 
उत्तर प्रश्रावली या अनुसूची पर आप पाए, सभव हं उत्तरदाता उनके अनुसार 
च्ययहार न करे। उनके लिए साक्षत्कार या निरीक्षण या अवलोकन फा सहारा 
लिया जा सक्ता है! रौक्षिक नयाचार्‌ स्वय उभाता क्षत्र है। अव॒ इस क्त्र 
मे विधिवत शोध अध्ययन उतना ष्टौ ओर कठिन कार्य है पिरि भी इस सुनौती 
पूण कत्र भे अव तक प्रारम्भिक प्रकृति कं 20-22 शोध अध्ययन सम्प्न 
षट है जिनके पिषय क्षेत्र ऊपर बताये गये र! यह स्वीकार किया जाना 
चारि किं शैक्षिक मयावारो पर शोध कार्य कएना वी टेढी खीर है-स्मय 
धैर्य सतत प्रयत्न तथा सहनशीलता की बडी आवश्यकता होती दै । टर शिक्षक 
षर दृष्टि से तैयार हो टौ यह जरूरी नही है। 
शैक्षिक नवाचाे के क्षत्र मे शोध हेतु अधुनातन शीषंक 
शैकिक शोध कार्यकर्तार्जा को निप्र क्रो मे अपने प्रयत्ना को केन्द्रित 
कना चाहिए 
† सम्प्रेषण प्रणालिया 
2 अनुदशन प्रणालिया 
3 विद्यालय का सगठनात्मक वातावरण 
4 प्राधिकारां का प्रत्यायोजन 


युजीन शेशिक चिन्तन/25 


इस्र विषयों पर आयु, लिग शैक्षिक योग्यदा अनुभव षद की दृष्टि 
से विचार किया जाना चारिए्‌। 
5 नवाचारो की स्वीकार्यं क्षमता 
6 शिक्षर्कोश्रधानाध्यापको, प्रशस्को/ पर्ययक्षण अधिकारियों 
की नवाचायो के प्रति धारणा। 
7 विच्चालयो में नवाचार्े को अग्रसर के के लिए 
उत्तरदायी यटकों को जनना। 
भीये अतिरि सूची दौ जा रही है जिन षर कक्षा र्मे काम कनै वाले 
विभिन स्तरो कै व्यक्ति अपनी रचि के विपय पर कार्यं आरम्भ कर सकते 
है। 
1 अविभक्त विध्यालय व्यवस्था 
2 शिशु क्रीडा केन्द्र 
3 पत्र वाचन सगोष्ठी 
4 युनिसेफ विज्ञान शिक्षण योजना 
$ सामुदायिक शिक्षा 
€ प्राधमिक शिक्षा देतु व्यापक उपागमन 
7 परोक्षा प्रणालो मे नवाचार्‌ 
8 समागोपयोगी उत्पादन कार्य 
% मल्टी-पाइन्ट एन्द्री 
10 विधालय एव जिला शिक्षा योजनाए 
11 विद्यालय सगम 
12 रिक्षातुसधान वाकूषीठ 
13 व्यापक अतेरिक मूल्याकन यातना 
14 नैदानिक परीक्षण एव उपचारात्मके शिक्षा 
15 स्वायत्तशासी विघ्ालय 
16 अनौपचारिक शिक्षा 
17 प्रधानाध्यापक वाकूपीठ 
18 क्रियाशौल अवकाश 
19 पुस्तकालय एव वाचनाल्रय सवाए 
20 दलीय परिवीक्षण 
21 कार्थानुभव 
22 सीखो-कमाओ 
23 खेल-कूद 


युगीन शेक्षिक चिन्तन/26 


24 प्रौट शिक्षा 

25 रूरल इन्स्टीट्‌यूट्स 

26 चलं विधालय 

27 मूक विद्यालय 

28 योग शिक्षा 

29 टेलिविजन द्वारा शिक्षा 

30 शिक्षक अभिभावक सथ 

31 कठपुतली द्वार शिक्षा 

32 दुपहरी का भोजन 

33 रक्षण सामग्री एव पौशाक का विधार्थी कौ उपस्थिति 

पर्‌ प्रभाव" आदि-आदि 
शैक्षिक नवाचारो का विरेध- 
सिद्वान्त रूप म इन नवाचारा के लाभो से परिचित होते हुए भी 

अध्यापके तथां प्रशासक दोनो टौ कई वार इनफा विरोध करते देखे जाते ई। 
अव स्थित्रिया बदलने लगी ह तथा सभी प्रशासक नवाचार्ते पर न्यूनाधिक 
रूपमसेध्यान देने लै रै। एसा माना जा सक्ताहे कि कुष्ठ समय जव 
तफ सक्रमण फाल रहेगा नवाचारो को विरोध का सामना करना पडेगा वर्योकि 
शिक्षा से जडे किक्षी एक विशिष्ट वर्ण को हानि टौ सक्ती है- यथा ऊपर 
ये" उदाहरण मे परीक्षाफलों को तैयार केएना। स्थितिर्यो मे परिवर्तन आया रै 
पर आज भी अध्यापक नवाचाते को तत्काल अस्यीकार कटने को तत्पर नटी 
हतो भी वे उसके प्रति उदासीन तो ह हौ नवाचारौ पर कार्यं क्लेके 
लिए सभी अध्यापक भु मीमा तक अपने आपको सक्षम नहीं पते ह। 
अध्यापकों के शैक्षिक नवाघा्ो के प्रति उदासीन हाने या विसोध करै के 
निप्र कारणे सक्ते ह~ 
1 नवाचाये के अपनाने सै कार्य सम्पादनं की प्रकिया मेँ परिवर्तन कला 
षोगा जिसके लिए ये तैयार नही ह। 
2 कुष्ट क्षरो मै उदाहरणार्थ- परौक्वाफलो को तैयारी या अभिक्रमित अध्ययन 
(चाहे सदेह के कारण हौ) यदि मशीन का अध्यापर्वो से प्रतिस्थापनं टौ 
गया तौ सेवा से पृथक कर दिये जार्येगे। इस प्रकार न्ह रोजगार नने 
का डप होता है। 
3 जहा मीनं की सहायता एसी जायेगी वहा अध्याप्ो को अधिक तेग 
गति से कार्यं कना होगा पतत उन्ह जल्द धक्यन गी एव जीवन का 
विस्तार क्म ले जायेगा। 
4 नषाचार्‌ ये अच्छ फलो का प्रेय स्वय अध्यापकों को मिलन क यश्व 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/2ा 


प्रशासका पर्यवेक्षण अधिकारियो शक्षिक-नियोजकों को मिल जायेगा अव 
वे क्या व्यर्थं का इक्चट मोल तँ? 
नवाचा्े के इन विरोधो को श्रोवस्तव› ने दो भार्गो मे वाय ह 
1 व्यक्तित्व जनित प्रतितेध कारक इसमे वे सम्मिलित करने ह- सन्तुलन 
आदत प्राथमिकता पराश्रिता भैतिकमन आत्मविश्वास टीनता अम्ुरक्षा एव 
प्रतिगमन तथा आत्म परितोपी भविष्यवाणी। 
2 क्रियात्मक प्रतिस॑ध। 

वास्तविकता यह है कि रौक्षिक-नवााये का विरोध शिभा से जुढे 
विभिन यगो के सोचने-विचारे के पिषठडेषन का परिणाम है। पे रोज जिस 
दग से सोते विचारे ₹ कोई भी फाम जिस ठग से लम्ये समय से सम्पादित 
कते चले आ रट हं उस लीक को छोडना नर्हीँ चात वे जोिम उठाने 
कोटौ तैयार नर्टी ह पे परम्परा से करते आये अपने तरीकेमेष्ी 
कार्य क्एमे के लिए तैयार ह। इसके सिर्वाय वे इस यातं क लिए पूर्णत 
आश्वस्त ष्टी नही ह कि परिवर्तित रोके से कार्य कना अधिकं लाभप्रद टी 
होगा। 

सरकार ने सदरान्विक रूप से शैभिक नवाचार्ो का सदव समर्थन 
किया है। यद्यपि भ्रशासक पर्यवक्षण अधिकारौ कई वार शैक्षिक नवाचागें का 
सदैव विरोध इसलिए करते टं कि सामान्य अध्यापक इन कार्यां के लिए अतिरिक्त 
धन र्टशनरी एव खाली कालाश फी माग करटगे। न कवल इतना ए बल्कि 
कटं वार अध्यापक अधिक रौक्षिक वेधा तकनीकी योग्यता प्राप व्यक्ति से भेट 
करम का आग्रह करगे जिसमे उन्दे विद्यालय सचालन मं बाधा पर्ुचेगी। 

प्रशासक पर्यवेक्षण अधिकारी जिस देग से काम कररहेटै जिस 
व्यवस्थां के ये अभ्यस्त हँ उनर्मे परिवर्तन करना उनको अच्छा नहीं तगता। 
शैभिक नपाचारो का श्रेय से अपने अधीनस्थ कार्य कर रहे अध्यापको को 
देना नही चाहते स्वय कार्यालय के कार्य मेँ इतने व्यस्त रते हई कि उनके 
पासं इन कार्यो फे लिए समय नर्टी है। एेसी स्थिति मनत पे स्वय कार्य 
कते टै तथा न ही अपने अधीनस्थ कार्य कर्‌ रहे अध्यापको फो इन कार्यो 
के लिए प्रोत्साहन देते दै। शैक्षिक नवायां के प्रति उच्वाधिकापी यदि विरोध 
प्रकट करतै है या तरस्य र्ते हँ तो यट उनके साहस के अभाव काही 
सूचके माना जाना चाहिए्‌। 


शकर शरण श्रीवास्तव शिभा म॑ नवाचार एव आधुनिक प्रयृिया आगरा 
हर प्रसाद भार्गव 4/230 कचरी धार 1987-88 पृष्ट 14 15 16 


युजीन शैशिक चिन्तन/28 


एक समय था जव शैक्षिक नवाचाते पर कार्य करने कं लिए निजी 
शिक्षण सस्यार्ओ या भैर सरकारी अभिकरण अत्यधिक तत्परता बरतते थे। पर 
आच स्थिति मेँ भारी परिवर्तने आ गया टै जो स्पष्ट दीखने लगा है। कई 
उच्च पद पर आसीत अधिकारी स्वय शैक्षिकं नवाचारो को अपनाने उन पर 
कार्य कने के लिए सभा-सम्मेलना कार्य -गोष्ठियों या कार्य-शालार्ओं मं आग्रह 
करते देखे जाते ह! पिल 5-7 वों मेँ स्थितियां मे भारी ए्रिवर्तन आया 
हैजारशिक्षाकेकषेत्र मे शुभ ललण दहै। फिर भौ प्रयो का विस्तार अपक्षि 
है] दंश की शीषस्य सस्था रषट्ीय शैक्षिक अनुस्थान एव प्रशिक्षण परिपद्‌ 
नै तो नवाचार पर क्त्यि कायो को मगवाकर पुरस्कृत करना भी आरम्भ किया 
है। क्या यही सही रूप म प्रणा ₹ै? वैसे लोक संवा आयाग राजस्थान 
दारा होने वाली प्रधानाध्यापक) की प्राथमिक परोक्षा मं नवाचारां को महत्वपूर्णं 
स्थान दिया गया है। इससे इनकी उपयागिता स्यय स्पष्ट है ओरं यदि शैक्षिक 
अधिकारी नवाचारा पर कार्य करने की गुजाइश मानते ह ता शीर्षस्य अधिकारी 
कौ एसी स्थितिया पैदा करी चादिए्‌ कि अध्यापक प्रशासक पर्यवक्षण 
अधिकारी नियाजक चिन्तक आदि सभी एक स्थान पर बैठकर शैक्षिक नवाचारा 
काकषत्र अधिकार आदि सभी स्पष्ट कर एक मधुर एक्य एव समरसतापूरण 
स्थिति पैदा कर सके। 
7 


युगीन शैक्षिक चिन्तन 29 


शिक्षा का विकासोन्मुखी क्षेत्र 


न्यूनाधिक रूप से सभी देर अपने उदर्यो कौ पूति ४ लिए शोध 
के निष्फप का स्टार सते रटे र त्था पटी कथन रिक्षाके ष्म भा 
समान रूप से य्ययहत है । पिष्ते कुष्ठ वर्पो से इस दिशा में दृढ सगठित 
एव व्यवस्थित प्रयत त्रिये गये ट। इनम प्रमुखं ह--उच अधिकारियी का 
प्रशिभण अनुभूत अध्यापन विधिवा सुनियाजित सटगामौ क्रियाए, षार्यालय 
का चै्ानिक प्रयन्थं कर्मचारिया एव अधिकारिया वो प्रोत्साट एव पुरस्कृत 
किया जाना आदि। इन परिवर्तित प्रयासों के पर्याप्त आधार रँ स्वूली भालका 
की स्या मे फट गुनौ वृद्धि रिक्षा कौ भूमिका मे परिवर्तन शिभा के अर्थ 
का कत्र विस्तृत टना तथा विघालय सं अभिभावर्को कौ अपिधा्ओं म वृद्धि 
होना। वालको कौ सख्या मे वृद्धि होने षे फलस्वरूप विलयो शिपर्को 
अधिकारिर्यो छी सख्या मे भा वृद्धि दई रै जिससे उनके मानीय सम्बन्धो 
मे अभूतपूर्वं परिवर्तन आया है तथा इनमे पेचीदगी वद गई ई । अय इन सम्बन्धो 
खो यैक्ञानिकर दृष्टि से सही पप्परिभ्य मेँ समश्षने का प्रयत्र फरिया जाने लगा 
है! आज टर माता-पिता की अपेशा है कि यच्चा पुस्तकों का क्मसे कम 
भार उठाये तथा क्म से क्म समय म अधिक से अधिक उपलव्थि वे ज्ञान 
कमस कमर यर्च एव प्रयत म प्रात कर से। आओ यह धाएणा इतनी जधिक 
ओर क्रान्विकारौ रूप में विकसितं हो गयी है कि अव प्राय पुराने लेखक 
की पुस्तके अपूर्णं मानी जाने लगी र्ै। उनफे समय मेँ नई पुस्तवो के अभाव 
मे चे पुस्तक ठीक रही हागी पर आज उनकौ पुस्तैः विधार्थी समाज की 
आवश्यकता पूरी नटी कर्‌ रही ट । इससे यट भी निष्क्पं निक्लता है कि 
पुराने लेखक शिभाविद अध्यापक बहुत पीछे रह गये ह) पुराने शिक्षा शास्त्री 
या शिक्षा प्रशासक या शैक्षिक नियोजनेकर्ता जिन सूचना्ओं तथा तर्यो के 
आधार पर निर्णय लेते थै विचार्‌ विमर्शं क्एते थे आस के तथ्य च सूचनाष्‌ 
टी बदल गई ह--जैसे कमाध्यापन के सामान्य उदश्य। आज कौ स्थितिरयो 
मे यह सम्प्रत्यय समीचीन नटी माना जादा! भगाल अध्यापन के उदेश्य हिन्दी 
अध्यापन के उद्यो से सर्वथा भिन है फिर सामान्य उदेश्य काप्रश्र हौ 
कहा रहा? सभी विपर्यो के अपने विशिष्ट उदेश्य है । 


युजीन शेकिक चिन्तन /30 


शिक्षा की प्रशासनिक समस्याओं को हल कले मेँ अनुभव पर आधारित 
परम्परा से चली आ रही निर्णय प्रक्रिया साधारण बोध प्रशासनिक चातुर्य 
सामान्य नेतृत्व प्रतयुत्पनमति आदि पर आग्रह कम होता जा रहा है ! आजक्ल 
परिवर्तन परिवर्रन एव सशोधन के साथ ही कर्मचारियों या अधिकारियों कौ 
सहभागिता का सिद्धान्त जोर पकड रहा है। यद्यपि एेसा माना जाता है किं 
षिकासशील देश में जिस गति एव मात्रा मे परिवत॑नं आना चाहिषएु. वह नर्ही 
आ रहा है। सम्भवत इसका कारण शिक्षा से जडे अधिकारियों एव कर्मचारियों 
मे खतरा न उठाने कौ प्रवृति रही है ओर यह भी सम्भव है किं एक लम्बे 
समय से सोचने विचारे के तरीके से बाहर निकल कर कल्पना ही नहीं 
करर 

शिक्षा मेँ नवीन प्रवृतिरयो का विकास या नवाचार्‌ को अर्थं है-शैक्षिक 
परिषर्तंनौ के महत्वपूर्ण घटके के रूप में सुस्थापित एव परम्परागत रूप से 
भित नये तत्वा की प्रेरक शक्ति एव व्यावहारिक रूप मे स्थापित किये जाने 
घालं एव परिभापित किये जाने वाले प्रयास । तकनीकी दृष्टि से इसका अर्थ 
है- प्रशासनिक सगठन कक्षाध्यापन अध्यापन विधियां तकनीको प्रक्रिया 
मे सजगतापूर्वक नियोजित एव व्यवस्थित सुधार। शैक्षिक मवाचार का सार 
यों बताया जा सकता है- एक एेसी प्रवृति कौ एचना या विकास करना जो 
लम्बे समय से चली आई स्यवस्था को आदर्शं मानने को तैयार न टो ओौर 
उस्म परिवर्तन परिवद्वन एव सशोधन कं अवसर एव उपाय दूढती रहती 
है। जिसके फलस्वरूप कट बार पसे प्रश्र उठते रहते है कि क्या एेसा करना 
आवश्यक हौ है ओर यदि हा तो इसके कएने की सर्वोत्तम विधि या तकनीक 
क्या हो सकती है? 
शिक्षा के अर्थं की व्यापकता 
सधारण नागरिक की दृष्टि से शिक्षा का अर्थ हौ बदल गया है। एक समय 
था जव शिक्षा को क्क्षा्मे दियं गये अनुदेशन काही पर्याय माना जाता 
था। बच्चा कक्षा में सीख रहा है या नहीं विद्यालय समय मे वच्वा आज्ञाकारौ 
हैया न्दौ उसकी सीखने कौ गति क्या पूर समय क्षामे रहता 
या नर्टौ आदि इसी प्रकार कम्रश्रो पर अध्यापक का ध्यान कंद्धित रहता 
धा। आज शिभा का अर्थ वहुत पिस्वृत एव व्यापक माना जाता है तथा रिक्षा 
को विकासशील विषय (या अनुशासन) के रूप मे लिया जाने लगा रै 1 कोई 
भी सथ्य जो यालक कौ उपलब्धि फो अनुकूल या प्रतिकूल रूप के प्रभावित 
करे उसे शिक्षा मे समाविष्ट क्या जने लगा है! चच्चै यदि कहना नरह 
मानते रै तो कर्यो? स्थितिया मे क्या य कैसं परिवतन किया जाये कि प्रवेश 


युगीन शैषिक चिन्तन/31 


पाने साले सभी बच्चे शिक्षा पूरी करके ही विद्यालय छोड अध्यापक बच्यो 
क कल्याण मं अधिक स्वि स्कूल भवन क्रीडागण तथा प्रयोगशाला 
खा अधिक तथा गटन उपयोग कैसे किया जा सकता है तकनीकी विकास 
के कारण शताब्दी या आधी शताब्दी वाद किस प्रकार के विद्यालय भवनों 
की आवश्यकता होगी अभिक्रमित अध्ययन विधा के विकसित होने पर कक्षा- 
कक्षो मे किंस प्रकार का परिवर्तन आवश्यक हो जायेगा? ये या इनते जुटे 
कई प्रश्र है जो आज से 40-50 वर्ष पूर्व शिभा से बाहर समन्ने जाते थे। 
प्र आज शिभा का अर्थं हौ यदल गया है तथा बालक के बेहतर हितं म 
इन सव पर विचार किया जाने लगा है! आख शिक्षा शास्त्र कक्षा मे अतुदेशन 
तक टी सीमित नटी है उसमं मनोविज्ञान के साथ हौ शिक्षा का दर्शन शिक्षा 
का अर्थशास्प् शिक्षा का समाज शास्त्र शिक्षा का पिकास शास्त्र रिक्षा का 
मनोविज्ञान एव रिक्षा की साख्यिकी आदि भी सम्मिलित क्ये जाने लगे 
्। इस प्रकार कह जा सक्ता है कि मानव व्यवहार के व्यापक क्षेत्र को 
समाविष्ट करते हुए शिक्षाशास्त्र पिक्रासरील अनुशासन वन गया ह तथा सामाजिक 
मूल्यों को प्रति की ओर अग्रसर है। यही कारण है कि शिभकों कौ तैयारी 
कै कार्यक्रम को प्रशिक्षण कहने के बजाय अव रिक्षा कल्ल जने लगा है। 
वेचलर आफ टीचिग (वी टो ) कौ जगह वेवलर आफ एजुकेशन तथा टैनिग 
कोलिज की जगह कलेन ओंफ एयूकेशन कहा जाने लगा है। 
विविधलेक्षी विषय सामग्री का समावेश 

अब तक बालक कौ गिने-चुने विपय पदा देना गृह कार्य देना जाचना 
परीभा लना तथा परीक्षा फला को घोषणा ही विधालय जीवन के प्रमुख 
कार्यकलाप माने जते थे। आज विद्यालय की इन क्रिया मे अनगिनत वुद्धि 
हो गई ह जैसे विघालय सगम यस व्यवस्था विभिन प्रकार की ात्रवत्तिया 
विभिन्न विध्यालयो मे उपलय्य विपय-सकाय तथा उनकी प्रयेश क्षमता सरस्वती 
यात्राए, केफेटेरिया सेवा प्रौढ रिक्षा या अनौपचारिक शिक्षा ष्यावसायिक सस्थानो 
तथा चैक डाकघर सहकारी समिति मिल कारणानो का भ्रमण एव प्रत्यक्ष 
ज्ञान टात्र ससद प्रयोगशाला कौ देखभाल विद्यालय अभितेख की देखभाल 
एव रख-~एखाय भवन मर्त विद्यालय उद्यान बागवानी तथा कृपि प्म 
विधालय पत्रिका रिक अभिभावक सथ खेलो की व्यवस्था तथा प्रतियोगिता 
इन कायो के लिए थन सग्रह या जन सहयोग या चेरिटी शो। सक्षेपमे कहा 
जा सक्ता दै कि वालक के सर्वाण विकास का प्रत्येक कार्यं विद्यालय 
की गिविधिर्यो र्मे गिना जाने लगा रै। विद्यालयी शिक्षा के त्यां के अनुरूय 
इसमे पिषय सामग्री कौ विविधता के साथहोष्षेत्र का भी विस्तार हज 
है। 


युगीन दिक चिन्तन/32 


व्यावहारिक अध्ययनं पर बल 

अव तक शध कार्यं उपाधि प्रात कएने की द्ष्टिसेष्ठी किय जाते रहर 
उपाधि क वाद ये शोध ग्रन्थ पुस्तकालय की आलमा््यो म बन्द हो जाते 
थ। अवे इस दृष्टिकोण मेँ वदलाव आया ह । शोध कं क्रियात्मक पक्ष पर 
बल दिया जाने लगा है। शोध कार्य मे स्वय शिक्षक कौ भाग लेने के तिर्‌ 
प्रोत्साहन दिया जाने लगा है क्याकि वह टौ कचा म॑ अध्यापन मं गुणात्मक 
सुधार कं लिए पणत उत्तरदायो है। इससे वहं स्वय शोध निष्को के प्रकाश 
म अपनी कार्यविधि मे सशोधन एव परिवर्तन कर सके। शुद्ध तात्विक शोध 
की अपेक्षा कभा-कक्ष की गतिविधिर्यो म सुधार की शोध याजनाओं पर प्रमुखता 
सं ध्यान दिया जाने लगा हं। एेसौ योजनाओं म कषत्रोय एव गिक भद कं 
आधार पर बालका कौ उपलब्धि गृहकार्यं शुद्रीकरण, कक्षा-कक्ष मेँ समायोजन 
शिक्षक के साथ च्यवहार, विद्यालय की सम्पत्ति के प्रति ममत्व एव विनय 
करा सम्प्रत्यय प्रमुख है। पिष्ठले कुष्ठ समय से मानवीय मूल्या के विकास 
के तरीके एव साधना पर भी प्राथमिकता के साथ ध्यान दिया जाने लगा 
है। य॑ सब इस प्रकार कं शोध प्रयत हं कि अध्यापक स्वय अपना अन्र्दशनि 
कर सक्ता है अपनी समस्या का निर्धाए्ण कर हल खोजने को तत्पर मन 
सक्ता है यदि की क्मौ दिखती रै तो वह सुधार करने को स्पतन्र है। 
इससे स्वय शिक्षक अपने स्थान के प्रति आश्वस्त हआ है तथा शोध निष्कर्पो 
से लाभ उठाने कौ ललक उसके मनम जगीर! 

अनोर्विषयी अनुसधानों पर बल 

क्रियात्मक अनुसधान के साथ ही इस वात चा प्रभाव स्पष्ट एने लगा दै 
कि बालक को न तो अलग-अलग षामा जा सकता है तथा न टौ वालक 
कोज्ञान टुक्छो मे दिया जा सक्ता है। इसका अर्थं यह हं कि वर्यो को 
पदढाते समय उनको समग्र स्थिति-भाई-वहिरनो की शिक्षा सगौ साथियो का 
स्तर माता-पिता फी माली हालत आदि सभी वार्त पर ध्यान दिया जाना 
चारिये। इसी भाति किसी विषय, उदाहरणार्थ नागरिकि-शस्त्र षदाते समय उसका 
सामाजिक सदर्भं छोड दना वाष्टनीय नही होगा। मान लीजिए, वच्वौ कौ उपलब्थि 
न्यून है। इस पर शोध कं चरणो मे तथा कटु स्तण पर की जायेगी तभी 
समस्या करे सही रूफ मे हवान कर हल क्रिया जा सवेया। मनौवैानिक 
उसकी युद्विलव्थि जाच रहे है समायशस््री उसकी पारिवारिक स्थिति पर 
ध्यान रखे हए रै निरशन कार्यकर्ता चर पर पटने-लिखने की सुविधाओं तथा 
माता-पिता की सहायता पर ध्यान दे रहे हं विषयाध्यापक देख रहे ह कि 
वच्य को किस विपय में तथा किस विशिष्ट प्रकरण में सर्वाधिक मार्ग दर्शने 


युगीनं शेक्षिक चिन्तन/33 


फनी आवश्यक्ता है। इतना हौ नर्तौ यदि समस्या ओर भी गम्भीर हुई तो 
सहायता की ओर भी दिशाए खाजी जा सकती ह । घर पर आरामदायक फनींचर 
उपलव्य टै या न्ती वादार तथा प्रकार वात्ता कमरा ह या नर्टी षया 
आवश्यक्ठानुसार नीद लं पार्ट या न्दौ करटी परिवार के ये सदस्य 
जमीन या अन्य किसी प्रकार क मुकदमा भेदो फते हए न्ती हं क्योकि 
यै सभी वात भ न्यूनाधिक रूप से बालक की उपलव्थि कौ प्रभावित क्ती 
है। यदि एसा है तो इन्जानियर डाक्टर तथा वकील से भी सहायता ती जा 
सकती है। इन सय प्रयत्रा का आधार यह है कि यालक के हितिरमे एक 
से अधिक मसिष्क स्यष्ट एव कारगर साच-पिचार कर सक्ते ह । इससं दिन- 
प्रतिदिन अन्तैविपयी शोध के जोर पकडने का आधार एव क्षत्र स्यष्ट ्टेता 
है। 
पाद्यक्रम की पुरवचना 

परिषतन प्रकृति का नियम हं। आज इन परिवतनों के फलस्वरूप 
रिक्षा का स्वरूप शिक्षा की विधियो विचार्या कौ रचिधो-आवश्यकताओ 
एव देश कौ अयेक्षाओं एव आवश्यकताओं मे धारौ केर-वदल टौ गया है। 
फलत शैक्षिफ तियाजनकर्ता शिषा-शस्त्री तथा रिभाविद्‌ पाठ्यक्रम की 
पर्वचिना के लिए मानस तैयार फर रहे है । आय प्राथमिक स्तर फो शिभा 
से लेकर उल्व शिक्षा तक के पाट्यक्रम की पुरनईचना का विचार जोर पकड़ 
रष ै। एेसा कएने के पीठे आशय यह है कि शिक्षा को जीवन से जोडी 
जा सके उस अधिक सारपूर्णं यनाया जाये। 
अन्तं सेवा शिक्षा का विस्तार 

पिष्ठलै बु समय से पूर्वं सै नियोजित शिक्षको का अन्त सेवा 
प्रशिक्षण शिविरे के माध्यम सै अभिस्थापन क्रिया जा रहा ए जि्रसं वे अपने 
कान तेथा अपनी विषय सामग्री को अधतन यना सके तथा अध्यापन विधियो 
तेथा तकरीर्को का अधुनातनं ज्ञान प्राप कर सके। शिक्षफे से प्रशासक या 
पर्थवेक्षक अधिकारी वनते टौ उसे भिन प्रकार की प्रशासनिक विधि जानने 
की आवश्यकता देती है एव उसमे भिन्न प्रकार के चार्य कै निष्पादन कनी 
अपसा की जाती है। इसके लिए विभिन अभिकरण कार्यं कर रहे ह-रिक्षा 
महाविघालया से जु विस्वार संवा विभागं एग्थां मे स्थापित शैक्षिक अनुसधान 
एव प्रशिक्षण संस्थान या परिषद्‌, रषीय शैक्षिक अनुसधान एव प्रशिक्षण परिषद्‌, 
भारतीय लोक प्रासन सस्थान भारतीय सामाजिकं विडान अनुसधानं परिषद्‌, 
राग्य लोक प्रशासन सस्थान एव राष्ट्रीय शैक्षिक नियोजन एव प्रशासनं सस्थान। 
इनम से अन्तिम पाच सस्थान उच्च स्तर के विशिष्ट ष्यावसायिक एव प्रशासन 


युमीन शैशिक चिच्तन/34 


सम्बन्धी पाद्यम सचालित करते हे एव अन्तिम सस्थान का कार्य क्षेत्र 
भाव सं वाटर पद्चैमो र म भी कैला हज है! विकसित दशी मेँ इस 
प्रकार क पाट्यक्मा का वाहृत्य है! रिक्षा-प्रशसक सं अधिक उन तया 
स्यवस्थित तकनाका खा व्यावसायिक कौरालो का तथा प्रशासनिक प्रणालिया 
फे रान कौ अपक्षाौ जातौ है तथा य सस्थान अपने कायक्रम या पाठ्यक्रम 
इन्त अपेक्षाओं फे अनुसार नियोगिव क्एते है। 
शिक्षा के क्षत्र मे जनसप्यकं 

आज शिक्षा का सम्बन्य केवल टात्र उसके माता-पित्रा तधा उसके 
अध्यापक से टी नीं रह गया है षत्‌ रिक्षा के वारे मे इन सवके सिवाय 
शिक्षाविद्‌, सामाजिक कार्यकर्ता सामान्य ऊनता शिभा प्रशासक एव रिक्षा 
नियोजक आदि सभौ रचि लने ले हँ। शिक्षा सस्थान अपनी नीतिरयो एव 
कार्वक्रमा का जनसम्पक अधिकारौ छाया सामान्य उना र्म प्रचार करती रै। 
यही कारण कि विश्वविधालयों मे जनसम्पक- अधिकारी दाटरी भूमिका निभाते 
ह-रिधा से शन-प्रतिनिधि गणमान्य व्यक्ति लोकश्रिय व्यक्ति तथा जनैवा 
क्या ऊपेधाएं रणते ह उनसम्पर्य अधिकारी यह जानकारी प्राप्त कर सप्यन्धित 
अधिकारों कौ परटुचाते हं गिससं उनको अपने कार्यक्रमो फा भूल्याकन कद 
उने सशोधन कटने म॒ सरलता होती रै । रिक्षा कौ नवीन वोगनार्ओं तथा 
विद्यालयों कौ समस्या से ऊन-साधारण को परिचित कराकर उनसे सहयौग 
प्रास करना आग की परिस्थितिया मे अपरिहार्य हो गया है । प्री को समाज 
के आदर्शो सिद्वानतो मूल्यो विचारधारां गथा दर्शेन से परिचित कएने कै 
लिए विशिष्ट च्यक्छिया के च्याख्यान तथा सैत्नानिका कलाक सारित्यकारा 
एषे समाज सुधारक} के प्रयोगात्मक कार्यो कौ जानकारी दम के लिए प्रसार 
भाषण-मालार्ओो का आयोजन कयां जानै लगा टै इससे स्पष्ट ह कि शिक्षा 
कै माध्यम से अय जन-कल्याण कौ प्रवृत्ति का विकास एो र्ह। इस 
षट से सभी शिभा सस्थान म जनसम्पर्क अधिकारी के पद क सृजन न्यायोचित 
लगता है। 
विभिन्न विभागो म समन्वय 

सालचर, राष्री सवा योयना रेष्क्रास सोसायटी एसीसी 
याईएमसीए जैसा सगठन तो अभिन्न रूप से शिधा सस्थानो से जुे ए 
ही हं। यं सगठन राष्ट एव समा हिवि की पिचारधारा विद्ार्धियो मे विकसित 
कैरते है आज स्थिति यट है कि विधार्थिरयो चलो शिष्ठा उपयोगो रूप म॑ तभौ 
दौ जा सकती है जवकि शिक्षा सै सम्बन्धित विभिन सगठनों मे समन्वय 
हो। इन विभिन्न सगठना या विभा्ों कौ इस प्रकार सै गिनाया जा सकदा 


युगीन दिक चिन्तन /35 


है- रज्य या रष््ठीय सैकषिक अतुमधान एष प्ररिभणं परिपद्‌ या सस्थान, 
माध्यमिक शिक्षा बो विधविद्यातय सारित्य अकादमी हिन्दी ग्रन्थं अकादमी, 
विश्वविधालय अनुदान आयाग उद्योग विभाग वैरानिक एव ओौद्योगि अनुसधान 
परिषद्‌, नियोजन विभाग समाज कल्याण विभाग भारतीय सामाजिक विज्ञान 
अनुसधान परिषद्‌ तथा सस्कृति विभाग आदि। प्रत्येक विभाव से यह अरेक्षा 
छी जाती है कि वट शिक्षा से सम्बन्धित प्रतयैक विभाग या सगठन या जभिकरण 
छी गत्िविधियो तथा क्रियाओं कौ अपनः कायक्रम मे सम्मिलित कर एवं उनसे 
जीवन्त सम्बन्ध बनाये रखे । ठेसा करने से निस्सब्देट विधार्थिरयो के व्यष्ित्वं 
का समुचित विकासं निया जा सक्ता ह। इसलिए न सव विभागों का समन्वय 
विदार्थो के येहतर हित के लिए उपयोगी ₹ह। 

तुलनात्मक शिक्षा पर आग्रह 

जव शोध र्मे विभिन चरा को समाविष्ट कर उनका प्रभावं देखा जता है णो 
सहज ही जिज्ञासा यती है कि किस चरा तथ्य का अधिकं प्रभाव है। 
अध्यापक फे पास विभिन प्रकार की सूचनाए्‌ एव तथ्य राते ह॑ यह उमे 
गुलना करक दता है पता लगाता रै कि अमुक समस्या कै लिए कौनसा 
उपचार अधिक काएर या प्रभावी सिद्ध षठो रहा है। प्रभां मे सामूहिक 
नकल आज सभी रिक्षा अधिकारियो तथा परीक्षा नियत््रकी के तिरए सिरदर्द 
वती ई ै। भारत मेँ इस प्रवृत्ति के विकास के लिए वाह्य परीक्षा के प्रमाण 
पत्र या उपाधि पत्र को अत्यधिक महत्व देना रहा है। इस समस्या के हलं 
के लिए जरूरी टै कि जहा-जहा यह समस्या पाई जाती टै उनदेशोमे 
इस समस्या फे लिए उत्तरदायी कारणो कौ जानकारी प्राप कां जाये तथा प्राप 
निष्कर्यो क प्रकाश म॑ कदम लिए जाय। उदाहरण के लिए, भारव कौ तुलना 
मे यह समस्या अमेरिका मेँ कम गम्भीर हे तो वा सके लिए उत्तरदायी 
कारण है- सस्था का आत्रिकं मूल्याकन सत्र मै एक से अधिक वार मूल्याकन 

रिक्षाथीं के सरि मे सस्था प्रधान की राय सूचक्र निष्प टिप्मणी। इसी आधार 
पर भारत मेँ भी आन्तरिक मूल्याकन तथा सिमेस्टर प्रणाली पर नि्तर जोर 
दिया जारा दहै! मौरे रूप से यट मानने के पयति आधार टै कि "शिक्षा 
कर तुलनात्मके अध्ययन स॑ शिक्षार्थी क सांचनं-पिवारनं का क्षत्र विस्वृत्त तेता 
# चथा वट सहिष्णु बनता है। टिमाचत प्रदेश ससे कुछ विश्वविद्यालयों मे 

तो ठुलनात्मक शिक्षा को इतना अधिक महत्व दिया जा रा है कि एमरएड 

स्तर पर सका एक अनिवार्यं प्रश्र पर टौ जोड दिया गया है। 

विज्ञान के रूप में शिष्षाशास्र 

अवि तक रिक्षा कौ कला माना जाता रहा है। अमुक भूर्या का विकास 


युगीन शैशिक चिव्तन/36 


किया भाना चार, व्यक्त्य फे विकास क समय अमुक चरट्को प आग्रह 
फिया जाना चाहिए, इस भावि अय ठक रिक्षा पर आदर्शात्पक श्प मषी 
विचार क्रिया गया है। रिक्षा-शस्प्र म फिसी टना या तथ्य या उप विषय 
खा विधिवत क्रमवद्व अध्ययन किया याता है इस अर्घं में रिक्षा शास्त्र को 
विमान ए क्च जाना चारिए्‌। पर्‌ नं फेषल इना ८ पात्य दशं तो इससै 
भी कहो आगे वद गर ह। एक दशक से पाथात्य देशो मे रिक्षा कौ चिक्रित्सा 
अभियान्यिक्ौ अपथ शास्य तथा भौतिक यिङ्घानों कै समान टौ पिज्ञान फ 
स्पे प्रतिष्ठित फले के केशर ये यदत प्रयास ए ह । मुख्यत अध्यापन 
कार्यमे हिमा म नपु व्ययो कौ तौ नियाञिते करवा जाता है तथा अन्य 
ए किसी य्यक्ति स अध्यापन कौ आशा नर्टी कौ जाठी। रिक्षा के लस्य 
दैनिक पाठ के लक्ष्यो का निर्धारण पाठोपस्यापना कौ तकनीक खोगपूर्ण प्रश्न 
चरो थौ प्ल का लाभ उठाना पाठ का प्रभावौ प्रस्तुतौकरण यिचार्धियो 
की अधिगम में सहभागिता प्रश्र षौ तकनीक छर्म से वाष्टित उत्तर प्राप्त 
रना श्यामपट लेखन प्रो कौ सौखनं के लिए उस्रेरित करना पाठात 
की कुशलता आदि षौरला दक्षताओ चातुयो लक्षर्णो तथा तकनीक का 
यतने चाले अध्यापका मेँ उन प्रिभण के दौरान विकास किया जाने लगा 
है। भारत मे भी इस प्रकार के दयुट-पुट प्रयत्र शिक्षा कै प्रगत अध्ययन केन्र 

यक्ठौदा तथा अन्य स्थाना पर ए । इसमे सन्देह नर्टी कि अने घाल समय 
मे शिभा कौ विज्ञान टौ माना जायेगा फिर भले हौ वट आदर्शात्मक धिज्ञान 
38. 

शिष्ठा का स्वतन्र विपय^अनुशास्तन के रूप भे उभरना 

ष्यापक क्षेत्र को समाविष्ट करती हुई विपिधतापूर्णं अनुभवो प आश्रित पिषय 
सामग्री क्रियात्मक अनुसधान विज्ञान के रूप मे शिक्षा शस्त्र अन्र्षिपयी 
शोध तिष्कर्पं पिले दो दशवौ से एक स्यदन््र विषय के रूप म॑ प्रतिष्ठा 
पाने को उत्सुक है। कुछ विश्वविदचालयो मे शिक्षा शस्त्र वो पृथक सकाय 
के रूप मे मान्यता मिल गई रै पर अन्य शेष विश्वविधालयो मे शिक्षा शास्र 
कफो पृथफः सकाय के रूप मे न मानते एए की कला संकाय मे समाविष्ट 
किवा गया दहै तो कटी समाज विज्ञान सकाय मेँ हौ समाविष्ट कर रखा है! 
शिकषाशास्यर खो जोधपुर एव अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय ये फ़रमश कला 
एव समाज विज्ञान सकाय मं समायिष्ट किया गया है। देश में स्कूल शिक्षा 
के युद वादों ने शिक्षा को अपे पाठक्रम मँ स्यतन्तर विषय के रूपभे 
स्यान दिया है। यी स्थिति कुट विश्वविधालयों कै खातक तथा सरत्तयौत्तर 
भाव्यक्रमो के लिए भी कटी जा सकती है। उदाहरणार्थं कुर्षेत्र अलीगढ 

आग खयनपुर गौहाटी कलकत्ता आदि विश्विदालयां मे स्नातक परीक्षा के 


युगीन शशिक पिन्तन/37 


विष्यो मे शिभा भी एक विपय है तथा रिक्षा विषय सित घातक यदि 
चाट ठो दो वर्षीय अधिस्रतकः शिक्षा विषयक पाठम भी अध्ययन के लिए 
चुन सकते हं। पर इन पाट्यक्रमा का उदर्य कौशतयुक्त निष्णात अच्छे अध्यापक 
उपय्लध कराना कदापि नी है । इतिटास या समा्शास्म् या भूगोल या अर्थशास््र 
या दर्शत शास्त्र मे एम ए. पास व्यक्ति वैक र्ये या अन्यत्र तिपिक्र यन सक्ता 
है या अन्य प्रतियोगी परीभा मे चैठ सक्ता है। ठीक इन्टी सतर विष्यो कौ 
भाति रिक्षा शास््ो म एमए पास व्यक्ति भी अध्यापक पद फे साथी 
अन्य सभी प्रदोके लिए भी समाते रूप स प्र टै] यह स्पीकार्‌ किया 
जाना चारिए करि शिक्षा शस्त्र पिप्य की सामग्री मे अभूतपूर्य विस्फार टज 
है विकास हुआ रै एेसी स्थिति मे ठसकै स्वतन्त्र विषय यननं कौ पूरी- 
पूरी सम्भावना उगागर ई है) एक समय धा जव इस पिपय की सामग्रा 
को अगुलियो पर गिना जा सकता था तथा समाजं विज्ञाना मेँ रिक्षा को उच्व 
विषय (अनुशासन) ने का स्तरन दिये याने कं पाठे एक सुव्यवस्थित 
सिद्धाने का अभाव हौ था पर आज एेसी स्थिति मी रै) यद्यपि शिक्षा 
मे वैज्ञानिक अध्ययन-अध्यापत कौ परभ्यग अभी नईं हं एव शैक्षिक शोध 
कौ जनसाधारण से स्यीकृति भी नही मिल पाईं है। फिर भी रिक्षासे जुष्टे 
लोगों को रिक्षा शस्त्र को एक विषय क रूप मे उदारता एव विनप्रतापूर्वक 
स्यीकारं करना चाटिए। 

शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था 

आज यह निध्ित मान लिया गया है क्रि रिक्षा की ओौपचारिक च्यवस्था भारत 
म॑ निरक्षरा र्ट मिटा सक्ता। निरक्षरता के उपचर के रूप म॑ चैकल्पिक 
व्यवस्याए सोची गई है- अशकालीन शिप पत्राचार पाठयक्रम दूरस्थ शिक्षा 

शिक्षाक षत्र ्मे निजी प्रयास प्रौढ रिक्षा तथा अनौपचारिक रिक्षा। प्रौढ 
शिक्षा कौ मद पर व्यय को राशि शिक्षितो की सद्मा तथा उनकी शिक्षा 
केः स्तर पर भी प्रश्र चिट तयाया ताता है। कोई जररी नर्ही कि टर रिक्षार्थी 
नियमित रूप से निचित समय परस्कूलर्म दही ष्ढे सभी विष्यो की परीक्षा 
दें तथा पास भी टो। शिक्षा के इस ओपचारिक यन्धन से शिक्षार्थी फो मुक्ति 
दन फी आवाज यल पकड रहौ है। किसी निश्चित समय मे तिधित पाठ्यक्रम 
पढ कर सभी विषयों मे परीक्षा पास कना जररी न हो देसी य्यवस्था भारत 

के लिए अधिक हितकर हो सप्ती है जिसमे शिक्षार्थी अपनी सुचि के विषया 

भ अपनी गति से अर फुर्तत के समयं मे पड क्र कुशलता प्राप क्रते 

इसे हौ अनोपवारिक व्यवस्था कहते है। इस व्यवस्था मे एक ही छात्र अपनी 
उपलब्थियो के अनुसार प्रात्र समय में उदाहरणार्थं छठी कक्षा की अग्रेजी 


युगीन शैक्षिक पिन्तने/ॐ8 


नेर्वी कक्षा की हिन्दी पाचषी कसला कौ भूगोल दसवीं कक्षा कौ गणित तधा 
सातवी कक्षा का इतिहास एक हौ साय पठ सकता ₹ै। इस प्रावधान षी 
"मत्दापा्ट एष्टौ" को सज्ञा दी गई है। कुष्ट अशा मेँ भत भं इस प्रकर 
कौ व्यवस्था की आवश्यकता मानी जा रहौ है। निरक्षप्ता समाप कलना टौ 
षन सभी व्यवस्थाजा के मूल मेरै। 
उक्त विवेचन से स्पष्ट टै कि रिक्षाशास् का अर्थ समय-समय पर 
दलता र्य है फलत इसे स्वरूप तथा अर्थं म भी परिवर्तन आया है। 
भाज शिक्षा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से युटो हरेक बात इसमे सम्मिलिवे 
की जनं लगी है। आते वाले समय भे जोयन ओर पेचीदा टे वाला है 
त्व रिक्षा कौ भूमिका ओर भी भहत्पपूर्णं होगी। शान्ति नि शस्प्रीकरण, 
स्यचालन उत्तरदायित्य॒वैज्ञानिक एष तकनीकी विकास भाई-चारा एव 
नगरीकरण आदि के लिए शिक्षा मष्त्व प्राह कर लेगी। शिभा कषेत्रम 
नस्या विस्फोट तेथा उसका नियन्प्रण अस्वास्थ्यकेर उत्पादरनो भर रोकथाम 
भी कषर नटी पारयेगे। इसी लिए रिक्षा से सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता 
सूप भे भी सरल भूमिका की अपेक्षा की जाती है! शिधा शास्र कं एकं 
सामान्य विधाया के रूप मे इनं भूमिका क निर्वटन के लिए निस्सदे् 
भागिक मे नयौतं गुर्णो एव क्षमतार्ओ कौ जरूरत होगी। आज रिक्षा के इस 
यदलतै हुए. अर्थ तथा पिकसित होते हए क्षेत्र कौ देख कर स्वय अनुशासन 
कैरूपमे रिक्षा शस्त्र के *पिकास तथा निर्माण" की पर्यास एव उज्यल 
सम्भाषना व्यक्त की जाती रै। 
।9। 


युगीन शैशिक चिच्तन/39 


व्यवसाय के रूप मे अध्यापन 


शिक्षाके क्षेत्र मे आयोजर्को प्रहयासकों तथा ऊध्ययन से जुडे स्वय 
भक्षको द्वारा अध्यापन के तिएु आवश्यक गुणो प्रविधियो तकनीकों तथा 
विशिष्ठतार्ओो के सिकास पर बहुत कम ध्यान दिया गया ह। विभिन स्ते 
के शिक्षक शिक्षा के पाद्यक्र्मो मेँ व्यवसाय शब्द करई बार भ्रयोग हो सकता 
है पर ध्यवसायी के गुर्णो तथा अन्य लक्षणो को विसी व्यवसायी सपे द्वा 
श्रमाणिते नहीं किया जाता। किसी व्यवसायी सघ द्वारा उनका स्तरीकरण महीं 
किया गया। प्राथमिक एव माध्यमिक विघयालयो मे नियिक्तं अध्यापक स्वय 
अपने कौ निप्र मानते हुए यह स्वीकार करते ह कि अध्यापन सेवा का व्यवसाय 
के रूप र्मे विकास छे। महत्वपूर्णं यह रै कि अध्यापन व्यवसाय कै सम्प्रत्यय 
को विततरना ध्यान दिया गया है तथा इम सम्प्रत्यय का शिषको विद्यालर्यो 
वालको तथा उनके सरधकौ के लिये क्या महत्व है तथा वे इससे वया अर्थ 
लेते है? 

धये की अपेक्षा व्यवसाय का ठव्व एव सम्मानजनक अर्थं लिवा 
जाता है एव व्ययसाय शब्द उच्च सामायिक प्रतिष्ठा का सूचक है। शायद 
एसा इमलिये रहा होगा किं जनसाधारण के अनुसार व्यवसाय मे लगे व्यक्ति 
उच्च शिक्षित ्टेते ह न कि वे पारवारिक व्यवस्थाओ से जुडे टोतै है व्यवसायी 
सामाजिक पद-सोपान की दृष्टि से भी उत्व वर्गो सै शुडे होते दै जवकि 
धधे निप्र सर्म के लोगो से। इससे स्म्ट ्ोता है कि व्यवसाय व्यक्ति कौ 
दी जाने वाली प्राह स्थित्ति फो जनसाधारण से स्वीकार करता है। 
व्यवसाय का अर्थं 

प्यवसाय के रूप मे अध्यापन विषय पर भारत मे बहुत कम साहित्य 
का सृजन हुआ है एेसी स्थिति मे उसके विधिवत प्रकाशन कातोश्रश्रद 
नटी उठता! प्रशासकीय अधिकारियो ने भी अध्यापन को ध्यवसाय सक्ता न 
देकर समाज सेवाओं मे सम्मिलित किया है ! पाश्चात्य देशो मँ भी कुछ उत्साही 
सेखफो के नाम इस क्षेत्र मै यदाक्दा लिये जते रहे है जिन्ोने भी अपने 
ठग सै विषय का प्रस्तुतीकरण किया रै! 


युगीन शशशिक विन्तन/40 


12096 (1920) ने व्यवसाय की परिभापा इस प्रकार की है- व्यवसाय 
किसी दिय ए कार्य को सम्मत्न करनं केः लिये एक उद्योग (ट्रेड) के रूप 
मे निरिवित रूप से अपूर्णं पर युद्विमवा से व्यवस्थित क्रियाम को कहा जानौ 
चाहिए। देखने मे लगता टै किं यट युद्धिमतपूर्णं व्यवस्थित क्रिया नैतिकता 
पर आधापििं है तथा इस उदर्य को प्राप्त कएने के लिए लोक कल्याण पर्‌ 
आग्रह है! पियेकपूर्णं व्यक्ति लोक कल्याण से हट जाय रेस नी माना 
जा सक्ता है। 

-जनसाधारण व्यवस्था चथा च्यव्तायी चैते सामान्य अर्थ भ तेते रहै 
है। साधारण दृष्टि से व्यवसाय (००५०2101)) का अर्थं किसी धपे म अधिक 
समय तक कार्य करना है तथा उस धधे के लिये कम से क्म अवधि का 
प्रशिक्षण देता टै । उदाटरण के तिये टक डावर का षार्य इस दृष्टि से व्यवसाय 
माना जाना चारिए्‌ इस भ्रकार के अर्थं पे सामाजिक प्रतिष्ठा सयु्छ नही ह} 
सके दूरी ओर किसी धये को च्यवसाय कटताने के लिए इस धधे से 
सथधित प्रशिभण की अवधि कोई प्रभाव नर्ही डालती है। नई सदिर्यो से 
एक टौ काम कएते आ रषे है पर उसै व्यवसाय नर्ही माना जाता दै। एेसा 
विश्वास किया जाता है कि प्रत्येक व्यवसाय का अपना क्षत्र हेता है- व्यवसाय 
लगे लोग एक विशिष्ट भाषा रौली का प्रयोग करतं है उनकी अपनी ष्यवहार्‌ 
प्रणाली होती है उनकी अपनी विशिठताए हाती हं 1 सरस्यतरी यात्राए, सम्प्राप 
दक्षताए, शिभक-शिा प्रशिक्षण दीक्षातत समारोह उपचारात्मक शिक्षण आदि 
शब्दों वा शिणाकेष्ेत्र मे एक विरिष्टं अर्थम ही प्रयग होता है। वह 
के रीर्ति-पिविज पप्पराए्‌ वहा के निषासी ही पुरी तरह से सी पति है1 
व्यषसाय के लिए बौद्धिक प्रशिक्षण के फलस्वरूप विशिष्ट दक्षता एव चार्थ 
प्रात किया जाते रहै! व्यवसाय कहलाने के लिए यटी मुख्य लक्षण टै} किसी 
भी धे कौ व्यवसाय कहलाते के लिए निप्र लक्षण गिनाये जा सकते है। 
1 कार्यया सेवा को सम्मत क्ले के लिए विशिष्ठ धधे का पर्या लम्बी 
अवधि का प्रशिक्षण दिया जाय । खादक स्तर पर भी पर्याप तैयारी की जाय। 
चिकित्सा विधि तथा अभियान्तिकी का क्षेत्र म वास्तविकं कार्य आरम्भ करने 
ध. एपरन्टिसिशीप सहित पाच से सात वर्प तक का प्रशिक्षण प्राप करना 

त्रा} 
2 इण्ियन्‌ वार्‌ काडन्धिल या इष्डियन काडन्सिलि अफ भेडीसिन्स या 
इन्जीनियसं इण्डिया जैसे राटी स्तर पर कोई अभिकरणं हो जो व्यवसाय 





1 7 1 र्णाल/ € ‰ल्पपाजौ४८ ऽत्लथ४ ॥५९५ एस 
(वाए्छणा 87205 ०7 ४०0 10५ 1920 092 


युगीन शैशिक चिन्तेन/41 


करै लिए र्ट के सामने एक सल आवाज उठा सफे1 वट अभिकरण टी 
सदर्स्यो कौ कार्य सपन कंटने की अनुमति प्रदान करे लाहसेस दवे। तिर्योग्यता 
ष्टे षएयाकार्यं का वाति स्तर प्राप न ्टौने पर अभिक्रण हार स्यीकृत 
मानदण्ड प्राप न हने पर अनुमति फो रद्द किया जाए, व्यक्ति कौ ला्सेस 
लौरा देने को क्ल जये। पिले दिना राषटीव शिक्षक शिभा परिषद्‌ वो अधिक 
प्रभावो वनात का फ़रम शुरू आ है। इसे विधार्था शक्तिया देकर अधिक 
कारगर बनाया जा रहा है। आशा की जाती है कि शक्ति सम्पन्न हेते पर 
यह सस्या टिया या निग्र स्तर का षाम कए पाते शिमर्को या सस्थाओौ 
को काम करने से तरेक सकेगी। 

3 विधि तथा चिक्त्साकेष्ेत्र मे कार्यं से जुडे दोनों सम्भागी हती पारिश्रमिक 
तये कसते है। सेयाओं के विक्रय कौ अपेक्षा मूलत सेवाओं या परामर्श तधा 
पारिश्रमिक या येतन का परस्पर निर्धारण एव आदाने प्रदान छता रै। ग्राहक 
तथा क्रेता दोन में व्यप्िगित सवथ रहते हं वेधा दारौ एक दूरे फा विधासं 
क्पेरहं। 

4 पारस्परिक सामूहिक प्रतिष्ठा से आशय चह रै कि मौलिक व्यवसाय सामाजिक 
प्रतिष्ठा का सकेत करते हं । व्यवसाय मे लगे समूह की व्यावसायिक उत्तरदायित्य 
कौ सजगता सम्पन कौ जाने वाली सेवाओं कौ उत्कृष्टता तधा सेवा मेँ लगे 
सदस्यो फे लिए कौशर्लो क्षमताओं चतुर्यो का प्रमाणोकरण तथा प्रशिक्षण 
मे प्रयेरा पर नियन्त्रण के माध्यम से गुणात्मक्ता कौ बनाये गा जाता है। 
किसी भी व्यवसाय को सम्पते करने के तिए उत्तम कौशल तथा बौद्धिक 
प्रथन की जरूरत होती है जो प्रशिक्षण की अवधि तथा कार्यं के सार पर 
निर्भर करती है। 

5 -एक आचार सहिता जिसे यैधानिक रूप से लागू किया जा सके कार्यं 
का उच्च स्तर यनाय रखने के लिए भी आचार सहिता जरूरी टै ओ इसलिए 
भौ कि अदक्ष या निम्न ्रेणी फे सदस्यो की अनुमति रदे कर उन्टं कार्यं 
कले से रोका जा सके! पिते दिनो रा्ट्रीय शैक्षिक अनुसधान एव प्रशिक्षण 
परिषद्‌ प्राग वि्यालसी शिक्षकों के लिए तथा विश्वविघ्चालय अनुदान आयोग 
द्वारा उच्य शिक्षा से जुडे शिक्षको के लिए आचार सहिता तैयार कौ गई एे। 
पर इस सम्बन्ध मे अभी भी किये जाने के लिए बहुत क्षेत्र है। 

6 घ्यवसाय कट्लाने के लिए क्षेत्र निरिचव दना चादए। चिकित्सा का क्षत्र 
जौवयविज्ञान तथा रोगनिदान है त्था पकालत का क्षेत्र राज्य शासन सरकार 
कानून तथा सविधान है। 


युगीन शेशिक विन्त/42 


क्या अध्यापने व्यवस्राय दै? 

एक लवे समय से किय वीसर्वी शताब्दी के पूर्वं तक भ्त ममे 
अध्यापन कौ सेवा ही माना उता था न कि व्यवसाय। अध्यापक समर्पण 
कौ भावना सै वचो का पडते थे तथा समात्रं हौ उनकी पालन-पापण कौ 
ष्ययस्था करता था । अध्यापन को येवा भावना से अपनाने के आधार पर 
हौ एकलव्य तथा द्रोणाचार्य आरूणी त्था उसके गुरु कृष्म-सुदामा तथा उनके 
शुम सदीपन करै सवध भारतीय रिक्षा कै इतिहास मे अमर हा गये है। अव 
खना यट है कि क्या भारत म आज अध्यापन कार्य को ऊपर दौ गई इन 
कसरटिर्यो पर व्यवसाय कहा जा सकता है? यदि नहीं तो इस दिशा क्या 
प्रयत ओर कयि जाने चाहिए? 

अध्यापने य्यवसाय म प्रवंश करने के लिए सरातक क लिए शिक्षा 
स्नातक पाद्यक्रम एक स्त्रे का टै) प्राथमिक शिभक का पाट्यक्रम अवश्य 
ही दो स्रौ का है! व्यायाम शिक्षक शिशु शिक्ष उद्याग शिभक मादिसरी 
क्िण्डर मान कोस्मिक ट्ैनिग एक एक सत्र कौ हो उपलव्य हं प्रवेश की 
पात्रता कै लिए श्यारह यपीय विप्रालयांशिक्षा जस्ूरौ हे शिक्षाधि सतक पाद्यक्रम 
भीषएकटौ स्त्र का है। इस्क विष्रीत सगीत चित्रकला गृह विज्ञान के 
अध्यापन टतु विना प्रशिक्षण कं भी काम चला लिया जाता टै} अध्यापन 
क्रो अपनानं यार्लो के लिए खरातव तथा स्रातेकोत्त स्तर पर छोटे या 
सटायक{ऽ५७७।५।३।४) विषय के रूष मं शिक्षण तकनीक मनोपिङ्ञान तथा 
सामाजिक मूल्यो का विकास किया जाय तथा प्राथमिक अध्यापक के लिए 
भी एेसी तौ किसी व्यवस्था पर विचार किया जा सक्ता रै} 

पिले वो मं 5-7 विश्वविधालर्यो म (उदाहरणाय कुरक्षत्र गौटाटी 
अलीगढ कलकत्ता आगरां आदि) शिक्षा अधिन्लातक पाद्यक्रम दो वपं का 
वनाया गया ह पर उसका उदेश्य दूसरा है। शिक्षा को एक अुश्ासन मानकर 
अन्य विपर्यो के समान हौ स्रातकीत्तर पाद्यक्नम फा विकास किया गया है। 
कोई आवश्यक नहीं किं इस पादयक्रम से अध्यापन कौल एव चातुर्यं का 
विकास हो। 

गरीय शैक्षिक अतुसधान एव प्रशिधण परिषद द्वारा चार कषत्रीय शिक्षा 
महाविध्यालया मेँ चार वर्षीय शिक्षा के पाठयक्रम आरभ किये गये थे-प्र इन 
पाद्यक्रमो से शिभा दोक्षा प्रात दिभकं भी अच्छा प्रभाव वनाने मे असफल 
रहे षे भी प्यवसाय कै प्रति समर्पित शिक्षक तैयार न कर सके। केवल उत्तपरेदश 
सरकार एक सत्र के प्रशिभर्णोपरान्त लाईसस ओंफ यीविग कौ उपाधि देती 
धौ- इते भौ वु सस्या म स्थगितं कर दिया गया तथा यह उप्रधि भी 


युगीन शैशिक चिन्तन/43 


अन्य मानदण्ड पर व्यवसाय नहीं कटला सकत्री। 

अध्यापन कार्य मेँ लगे व्यक्तियों की प्रवद्ध वर्गं के सदस्य निने जामे 
चाष्िए्‌ तथा रषटीय जीवन मे उनकी सेवाओं को पयि मत्य स्थान तथा 
मान्यता दी जानी चाटिए। यदि अध्यापन को व्यवसाय कौषी प्रेणी मे लाना 
है तौ प्रशिक्षण कौ अवधि बढाई जानी चाहिषए्‌। सरातक पूर्वं पाठ्यक्रम फा 
विकास किया जाना भी इस दिशा म महत्वपूर्ण स्थाने रखता है । छातक पाठ्यक्रम 
को समृद्ध कर अवधि यढाई जा सकती है एव सरातकोत्तर पाठ्यक्रम वो भी 
समद्र किये जाने कौ पर्या सम्भावनाये दँ । अन्य अल्पावधि पाद्यक्र्मो पर 
भी फिर से विचार सिया जाना घारिएःयदि वै तेबी अवधि के न चल सके 
तो बद कर दिये जाने चाहिए। 

अध्यापन वार्य मे बालक को अध्यापक द्वारा पढाया जाना है। 
विद्यां शिक्षक के ज्ञान पर विश्वास् कर इसके लिए निप्र बाते जरूरी है 
प्रथम- अध्यापक ह्वार बालक कौ सामान्य शिभादेना टै या पिभित विषयों 
छा अध्यापन कना ह । गणित एक सामान्य विषय ह-जिसका जीवन मे प~ 
पग पर ष्यावहारिक उपयोग र। सामान्य विष्यो षौ अपेक्षा कुछ विशिष्ठ विषयो 
के अध्यापन की अपेक्षा कौ जा सकती ह फिर यह विशिष्ट विपय को ज्ञान 
उसके धर्धो से जुडाो सक्वारं। 
द्वितीय अध्यापक अपना काम दक्षता के साथ क्र सके इसके लियै भी 
णु विपर्यो को शिक्षके शिक्षा मे सम्मिलित किये गये है मनोविज्ञान शिक्षण 
विधि सामाजिक मूल्य आदि। शिक्षक रिक्षा के इस कार्यक्रम मे कक्षाध्यापन 
का व्यावहारिक अभ्यास भी जोडा जाता ह। शिण विधि पर निलन्तर प्रयग 
ष्टो रहे ह तथा जज भी अन्तिम रूप से कुछ नही कहा जा सक्ता 

मनोविज्ञान सामाजिक मूल्य तथा शिक्षण विधिके ज्ञान फी मात्रा 
षी अध्यापक को सामान्य नागरिक के पृथक करता है ओर इसी आधार 
पर कहा जा सक्ता है कि चिकित्सा तथा वकालत के समान हौ अध्यापन 
क्यौ भौ व्यवसाय भाना जाना चाहिए । शैक्षिक उदेश्यो तथा पाठ्यक्रम का सीधा 
जनता से कीरं सवथ नही है परं विद्यालय उनके वर्चो को किस प्रकार 
कैसे शिभिततं कर र्हारै- इस रूपमे तो वे विधयालय से सवधित्रहै दही 
तथा पे विधालय से भित्र राय भी रख सक्ते हँ । यदि अध्यापन भी चिकित्सा 
की तरह व्यवसाय हो विशिष्ट तकनीकपूर्णं एव कौशन युक्त हो तो सभव 
है जनसाधारण विधालय के साथ वाद-विवाद नटीं करमे। 

इतना सव होते एए भी आज कोई यह स्वीकार करन की स्थिति 
मे नर्ही है कि अध्यापन कार्यं चिकित्सा या वकालत की तरह तकनीकी पूर्ण 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/44 


ह+ कारण कि अध्यापक आज भी अपने कौ किसी विशिष्ठ कार्य को सम्पन 
क्पे के लिए उत्तरदायी मातते टौ नही ₹1 अध्यापक कर वार्‌ एेसा कहते 
हए सुने उतेह किये कार्‌ भां विषय षठा सक्तं रह। व॑ यह सच भी 
नहीं पातै करि एसौ शिथिल रिप्यणी से अध्यापन कां व्यवसाय बनाने के लिवे 
क्ितिना धका लगा है? 
अध्यापन कायं क लिए प्रशिभण प्राप्ति टी एक प्रकारे से अनुमति 
या लाडरदेष भाता जाता श्या है! पर यह अनुमति देने वली सम्था चिकित्सा 
या वकालते कौ स्वीकृति दने वालो सस्या सं भित टै व्यार वह स्वायतशासां 
सस्थां टै सवल है याति स्तर प्रास न हानं पर अनुमति रद कर दतौ है। 
यह अभिङ्रण ही प्रमाणीकरण की शर्ते तय करती ह, परिवर्तन दथा सशोधन 
करती ह। पाठको को स्मरण हागा कि 1955 मे जव शिभर्को कौ कमी अनुभव 
की गई तो अल्पकालीन प्ररिक्षण देकर्‌ 'हौ उनका भरतीं कौ गई! आज भौ 
कई जग अप्रशिधित अध्यापक काम करते हुए मिल जातं ह । कंवल यहा 
नही कई उदाहरणों मे तो प्रशिक्षण तो दूर अधूरी शिभा प्रात व्ययो की 
भी भरतो अध्यापका कै पद पर कर ली गई। एसा गणित विज्ञा गृहविज्ञान 
चिग्रर्ला तथा सगीत विपया म होता रत है। दुर्गम स्थान या पिष्ट या 
अनुसूचित जाति या अतुसूचित जनजाति वल्ल क्रो मेँ एसे हौ रिधर मिल 
सक्तं है पर चिकित्सा या वकालत या अभियान्तिकी क्षत्र मै पैसा नर्टी 
ाता। अधूमी शिभो प्राप्त य्यक्ि इन धधो म कही नहीं मिलेगे। ेसा सभव 
नटी है करि विना चिकित्सा विह्न कौ रिक्षा पाये व्यि कौ स व्यवसाय 
मँ प्रवेश की अनुमति मिल जाय या उसे शल्यक्रिया कएने को कह दिया 
जाय-वही बात अभियान्ति या वकालत के लिये भी कही जा सकती टै। 
यह अपेक्षा की जाती है कि इस्रसे उपयुक्छ प्रत्याशियों का चयन 
होगा। विश्वविद्यालय या राज्य स्तर पर यनी पात्रता सूचिर्यो क आधार पर 
श्रत्याशिर्यो षौ प्रयेश दिया जने लगा है अत किसी को असन्त्राप भी नहीं 
'होता। हा इन परोक्षार्मो का रूप अभी निश्चित नर्द हो पाया है। कटी एक 
प्रशरपत्रठोवरै तो कहीदो यादन भी कातो सभी प्रश्र वस्तुनिष्टहोति रह 
ठे कते सिप्त उत्त वाले भी! अभी ये परीक्षाए्‌ शैशयास्था टी है तथा 
सपय यीतने पर तथा अनुभवो से सादते ए ये परीक्षाए्‌ स्थायी रूप तै 
५ । इससे ऊध्यापन वौ व्यवसाय के रूप भ विकमितर कटने कं लिए मदद 
गी 
चिकित्सा तथा वकालत क्रेता तथा विद्रता या ग्राहक तथा च्यवसायी 
का सौधा तथा व्यद्िग सवधं रहता है। इस प्ल्‌ पर रिक्षा के तरे 
भौ बटुत लिखा गया है। यैयछिक निदेशन तथा शिभणः आज के समय की 
युगीन शैदिक चिन्तन/45 


ज्वलन्त समस्या रह। प्राय शिक्षक अधिकार समय दलो रमे कार्यं करते है 
प्रथा दलं के सदस्य या कणा के विद्यार्थी विशिष्ठ लक्षण रखते है उतकौ 
भिन्न भिन आवर्पकतार्ये ोती र॑ टर यच्वा दूसरे यच्वै सं भिन्न होता । 
यहा प्रश्र उठता रै कि यदि प्रत्येक यच्वे को उसकौ आवश्यकता के अनुसार 
पाया जाय ता अध्यापक के लिए अध्यापन दुरूह टो जत्रा है1 यहा यह 
स्मरण रखना चाहिए कर शत प्रतिशत वैयकिक शिक्षण सीधे तथा व्यक्तिगत 
सवथ न वनाये जा सक्ते पर शस दिशा ममे यह प्रयत्र तो किया टौ जाना 
चाहिए कि अध्यापन को व्यवसाय नाने के लिए कभा का आकार ्टोय 
सेष्छोयाष्टोया कक्षाम्‌ पठने वाले छत्रो फौ सद्या न्यूनातिन्यून टौ जिससे 
आवश्यकता क समय शिक्षक प्रो के साथ चैयक्ति का सवध यना सफे। 
यहा तर्वः दिया ख सक्ता है कि वकील तथा विवित्सक को सेव्ये प्राह 
कलने के लिये कापी ग्राटक होते टं तथा अधिक प्राक हौ अधिक सफलता 
के सूचक है! ये र ग्राहक को व्यक्तिगत आधार पर ही देखते ह । अपवाद 
रूप मे चिकित्सा मनोविडानी के समान अध्यापक सामूषिक निर्देरान के सिद्वानत 
पर भी आग्रह कए सक्ते हा 

अध्यापन को व्यवसाय यनाने के लिए इस यात के निधय हौ प्रयत्र 
किये जाने चाहिए कि कक्षा कक्ष मे अध्यापक द्वारा पिघाधीं के वैयक्तिक 
सवधो फे लिए अधिकाधिक अवसर दिये जायं प्रत्येक विघया्थीं की आवश्यकता 
का अनुमानं लगाया जाथ उसकौ निर्योग्यता जानी जाय उसकी कमी का 
क्षेत्र ज्ञातं किया जाय तथा तदनुसार उपचार किया जाय एव बालके को लाभ 
पहुचाया जाय। 

सेवाओ के लिए निचित यैतन के रूप मे पारिश्रमिक फे इस विदु 
पर चिकित्सा या अभियान्नरिकी या वकालत तथा अध्यापन मे समानता लगती 
है प एक अन्य ्रश्र उठता है कि पारिश्रमिक कौन तय करता है} चिकित्सा 
तथा वकालत म॑ सवधित पभो द्वारा या व्यावसायिक सर्पो ह्वार यह तय किया 
जाता ह जवकि अध्यापन रम राज्य अन्य सेवाओ के समान तेय कत्ता है। 
शिक्षक सथ समय समय प्र रार्ण्यो से समञ्नौता करके वेतन बदवाते रहते 
ह| कु रागो म॑ तो विधानसभाओं मँ से प्रस्ताव पारित करवाक्र एक्ट ब नवा 
दिये ह । इनका उल्लघन ्टोने पर दोनो पक्षो मेँ से कोई न्यायालय से सहायता 
के लिये आवेदन कर सकते हँ! 

येततन के रूप मे पारिश्रमिक निशित होने चाहिए। ण्यो -ण्यो शिक्षक 
की योग्यता तेथा कार्य क्षमता वदती है उसे मिलने वाला पारिश्रमिक भी 
उसी अनुपात मेँ बढता रहना चाहिमे। चिकित्सा त्रकालव या अभियान्तिवी 
के व्यवसाय मे यह ग्राहक पर निर्भर करता है कि वह किसकी सेवाओ 


युमीन शैक्षिक चिन्तन/46 


का उपयोग करे। क्या अध्यापन मे एे्ठा सभव ह । यदि हा तो किसी सस्था 
के पास सभव रै ठेर सारे विद्यार्थी इकदट्ठे हो जाय तथा दूसरे के पास 
एक भी न रै। एेसी स्थिति में उसे घोर आर्थिक कठिनाईया सहनी पड 
सकती ्ह। परहा कु अशा में एसा च्यवहार मे देखा जा सकता है! कर 
वार अभिभावक किसी विशिष्ट शिक्षा पद्रति से पास तो नीं पर विद्यालय 
विशेष में हौ अपने वच्वो को भती कराना चाहते है! एसा करने के उच्च 
शिक्षा प्रात्र शिक्षक समद्र पुस्तकालय उद्चतन प्रयोगशालाए, सुरभ्य व्रीडागण 
आदि कई कारण चो सकते ह! कुछ अशो म इस दृष्टि स अध्यापन को 
व्यवसाय कहा जा सक्ता है! 

अपनी बात को जनता के सामने रखने के लिये एक शक्तिशाली 
व्यावसायिक सगठन- 

कोई भी चिकित्सक आख मा दातं का डाक्टर होने से पूर्वं सामान्य 
चिकित्सक है तथा चिकित्सक व्यावसायिक सय का सदस्य है । यही वात्‌ 
वकीलो या अभियान्व्िकीं म लगे व्यक्तया के लिये कटौ जा सक्ती ै। 
पर अध्यापन के लिये एेसा नरह कहा जा सकता। प्राथमिक, माध्यमिक 
महाविद्यालय शिक्षक प्रशिक्षक चित्रकला भाषा गृहयिडान सगीत व्यायाम 
उद्योग इतिहास भूगोल अराजपत्रित तथा जपत्रित् अध्यापक सघ मेँ सभी 
अध्यापन भे लगे अध्यापक बट हुए है फलत उनकी आवाज बलहीन एव 
मद ष्ठो जाती ह। सभी शिक्षको की राय मेँ मतैक्य नटी हं। जव शिक्षक 
प्राथमिक कक्षाओं से माध्यमिक कक्षाओ के रूपम या निप्र षेतनशृखला से 
उच्च वेतन भृखला मे पदोनत हो जाता है तो अपने पिले जीवन मेँ बमी 
निकरता या लगाव को भूल जते हँ पदोन्नति के बाद निप्र वेतन भृखला 
मे कार्यं कर रहं शिक्षको के हितो को परिलाभों को ये भूल जते ै। कुछ 
विषय कठिन माने जते है उदाहरणर्थ- अग्रेजी तथा गणित । इन विषयो के 
पढ़ाने वाले शिक्षक भी पृथक अपने मघ बना लेते ह तथा अपने को अलग 
थलग एव महत्यपूर्ण समञ्लने लगते है अन्य शिक्षको कौ तुलना मे अपने 
को समाज से अधिक मान्यता प्रा समक्षने लगते ह तथा उधोग कृषि चित्रकला 
एव सगीत शिक्षकों को अपने से दीनं मानने लगते है । समग्र अध्यापकं जाति 
के दहित उनकी दृष्टि से ओजल हो जते ह। 

कुछ अध्यापक सथ राजनैतिक दर्लो से जु जाते र॑ इससे भी 
कभी कभी सदस्यों को भारी हानि उठानी पडती ई । यदि सत्तारूढ दल उदाहरण 
के लिए काग्रेस दै तो जनता पार या रष्टीय स्वय सेवक सय से जुडा अध्यापक 
सघ सरकार से वाछित लाभ नही उठा सकता न सरकार ही उनकी भागो 
पर शष्ट मण्डल के ङापनो पर ध्यान देती है। 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/47 


यदि अध्यापन को चिकित्सा तथा वकालत के समाने व्यवसाय यनाना 
है तो प्रथम स्थान पर इस वात की आवश्यकता है कि सभी रशिभक अपना 
स्तर यतन तथा विषयों का महत्व भूल कर्‌ एक व्यार्यमायिक सघ के रूप 
मै सगठित हो जाय एव आवश्यक लक्षणों का विकास किया जाय स्वय 
शिक्षक अपने को एक टौ सथ का सदस्य बनाए, उससे स्वद्व करे। इस 
प्रकार के साटित्य को व्यापक ए्चना कयै जाय तथा रिक्षके शिक्षा के पाठ्यक्रमो 
मं प्ररिव॑तंन तथा परिवद्वन किया जाय कि अध्यापिनं का व्यवसाय के रूप 
भ॑ हय न माना जाय। 


मल्याकने 

इस प्रकार कार्य करे तथा सोचने विचारने के दो केन्द्रीय विषय 
दीखतै है । प्रथम-अध्यापक तथा नैर अध्यापक के धधे सवधी सस्कृति रौति 
रिवाज तथा कार्यं कलाप मे अन्तर तथा द्वितीय-अध्यापरों के कार्थ कएने 
की श्त तथा स्थितिर्यो परर सघ के रूप मँ शिभवीं का नियन्त्रण जो समाज 
हाय मान्यता प्राप हो। अभिभवे का शिक्षा सस्थाजो से निकट सम्पर्क 
इन कार्यो का खोत ह। सामान्य नागरिक जानता रे कि विपालय म अच्छा 
कायं करने चालं शिक्षकों का मेत्वपूणं स्थान है! सरकार क साथ ही स्वय 
शिभक तथा शिक्षक सध भी रिक्षा का प्रभावित कएने चाले अभिकरणो म॑ 
से एक रै। यह सभी स्यीकार्‌ करेगे कि आधुनिक समय मेँ विद्यालय के 
कार्यक्ला्पो मेँ सभी रुचि लेने ल ह। यह स्थि शिभा रेः लिये अच्छी 
तथा बुरी दोनों रूपों मे टो सकती है। 

एक लम्ये समय से बालक कौ उपलब्धिर्यो पर बालक तथा विद्ालय 
के सामाजिक एव अन्यान्योश्चित कार्यकलाप तथा सस्कृति का प्रभाव स्वीकार 
किया जाता रह है। महानगसे मे इन सवधो का विकास नटी प्रतार 
तथा मधुर सवधों का अभाव कई नई समस्याओ को जन्म दे रहा है। अध्यापक 
तथा भैर अध्यापक के विचारो का अन्तर अध्यापको के कार्य करने की स्थितियो 
तथा शतो मे अन्तर कौ कभी सराहनीय नहीं कहा जा सकता चूकि अन्तत 
यै सामाजिक सबध ही वालक के अधिगम की प्रभावित क्रते ह। 

जव तक शिधा पर सरकार का नियन्त्रण रै पाद्यक्रम शिभकीं 
की निरुक्ति उनका वतन नई सस्था या उसकी क्रमानति आदि पर सर्कार 
का निर्णय द्य एक मात्र कायकारां प्रभाव डालता है तथा शिभक तथा शिभाथीं 
के क्रेता तथा विक्रेताके ल्पे सवधो का विकास कला कठिन ही न्ह 
असभव लगता है। शिक्षका की नियुक्छि सरकार करती ट तथा विद्यालय म 
प्रवेश कै समय श्िमकँ कौ एव का कोई महत्व नर्ही ह । शिष्पका के चैतन 


युगीन शेदिक चिन्तन /48 


निधारण मेँ भी वर्व्वो या उनम अभिभावकों का क हस्तक्षेपु नही होता हे। 
व्यक्तिगत सवधा का जहा त्क प्रश्र हं वी वरटी कभाओं म उनके विकास 
क अवस्नर टौ नही आति ट। फिर मानकीकरण की समस्या भी महत्वपूर्ण 
है । एक चार शिक्षक का रोजयार प्राप्त करने के वाद, यदि वह शिक्षक निग्र 
स्तरका्ट्जातो भी सरकारी सेवा म पृथक करना अध्यापन काय से वचित 
करना अत्यन्त कठिन र । इससे भी अधिक मानकौक्रण स्वय भी कठिन लगता 
ह। कु अशो म स्वातशासी सस्थाआ मं एसा हो सक्ता है पर वहा भी 
मातकौकएण का सिद्धान्त शत प्रविशत रूप से कार्य करेगा ठी सदह सेपरे 
नटीं हय यदि शिक्षक स्वय एक सस्था के रूप म विकसित हो तो मानकौक्रण 
हौ नरह पारिश्रमिक की समस्या भौ टल हो सक्ता ६। इस विदु पर एक 
अन्य दृष्टि से भा विचार क्रिया जाना चाटिए्‌ किं वकील केवल पारिश्रमिक 
पाता है चिकित्सक पारिश्रमिक एव वतन दोना पाता टै जवकि अध्यापक 
केवल व॑तेन पाता है। इस प्रर सामजस्य कैसे वैटाया जायेगा? व्यवसाय का 
एक साधिक महत्वपूर्णं लभण स्तर बनाये रखना है (0५३४ ॥211810) 
करना ठ! यदि इसे किसी प्रकार लाया जा सके ता अध्यापन व्यवसाय का 
युत यष्ठा हित हौ सक्ता रहै! 

ऊपर कौ विवेचन से लेखक का यट आशय कदापि नहीं है कि 
अध्यापने कौ य्ययसाय के रूप म॑ मान्यता मिले या व्यवसाय न माना जाय 
सा अध्वापन मे व्यावसायिकता अच्छी रै यावर एसा भी कटी सक्तं 
मरही किया गया है। इसे समञ्जनं का प्रयव किया जाना चाहिषए्‌ कि अध्यापन 
फो व्यवसाय न मानने से इसमे लगे कार्यरत अध्यापर्को कौ कक्षाध्यापन की 
दृष्टि से क्याष्तनिं ष्टो रटौ रै अध्यापक क्या खा ररे है। पिपरौत स्थिति 
मेये क्यालाभ उठा सक्ते हं? पिर चाह वह आर्थिक शैक्षिक इसक सामाजिक 
भैषिक या अन्य लाभ ही ो। अध्यापन को व्यवसाय क रूप मे मान्यता 
दिलवाकर विदार्थो को क्या लाभ पटुचाया जा सक्ता 1 लाभ कैसा हो 
हो अन्ते उसका उपयोग विदयाथीं समुदाय कै लिये टी होगा 

19 


युजीन शैषिक चिन्तन /49 


मूल्यो का सकट 


आज चारं ओर अनैतिरता अपनी चरम सोमा पर हे) दवा-निर्माता 
प्राणलेवा घटिया दवाश््या वनाता रै य्यापारी चृत्दी मे इंट पौसवा लेता रै 
चायला मं सफेद छरि-छोट ककर मिला क्र धैचता है केसर र्म लकडी 
का रगौन बुरा मिला देता है इन्जीनियर पुल बनाते समय मीमेट वी जगे 
अधिक यालू मिला कर कमनोर पुल वना देता है सरकारी कार्यालयों मे 
असनी से कार्य नरह टता किसी दस्तायज की नक्ल चारिए- टथेली गर्म 
करो रेल या वस मे जगट का आरभण करवाना रै सो उक्तर मिलता रै 
सीट उपलब्ध नहीं रै रिश्वत दो तो अमुक स्थानं पर आरक्षण सरित टिकट 
लाकर दे दगे निर्माणाधीन भवन कौ टे रात्तोरात गायव हा जाती है 
महाषिद्यालयो मे छात्रा्भो की सार्ईकिर्लो को कुए मं खाल देभे के उदाहरण 
भी सुनने षौ मिलते है चलते वानो मं कई मदिलार्ओं द्वा यत्रियो कमै 
जेव काटने कौ घटनाए भी प्रकाश मेँ आई र सत्तार्मे पद पर आरूढ मप्र 
अपने चहेतो कौ सिप्तरिश अन्य त्रियो तक पष्ुचाते हँ कभी विभागाध्यक्ष 
रिष्ठा का हनन कर्‌ अत्यन्त क्म लम्बौ सर्विस तथा क्म अनुभव वार्लो 
को उपर पटच देते ह॑ फलस्वरूप आघात न सह पाने षः कारण एसे उदारो 
मे की गई हतारये भी यदा-कदा प्रकाश मे आती रहो ह दटेज की वलिबेदी 
पर चत्ने वाली मर्टिलाआ के दुखद अत के समाचार सदैव समाचार-पग्रँ 
मे मिल ही जायेगे। तोये रह गष र्द आज जीवन कै मूल्य। 

ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि आज विश्च को जिनं कठिना्यो 
का सामना कएना पड़ रहा रै उन सव मे एक मौलिकं कठिनाई मूल्यों के 
सकट की है। वास्तविकता यह ह कि सभो कठिन्या के मूल मे मूल्या 
का सकट ही टै ओर आर्य यह है कि इस पर बहुत क्म ध्यान दिया 
गया है। 
न्ञान का विस्फोट 

सभीक्ष्म ज्ञान का विस्फोट हआ दै तथा शोध कार्यं जारी है 
पर मूल्यो काक्षेत्र इस दृष्टि से अयूदा हौ है। इसका कारण यह बताया 
जाता है कि विज्ञान मूल्यो से मुक्त है या मुक रखा जाए! यह विचार कट्‌ 


युजीन शेकषिक चिन्तन 50 


वैज्ञानिकों के मस्तिष्कं मे जमा हुजा है यध्पि यह विचार श्रमपूर्णं है । इम 
क्षेत्र मेँ दिखावा बहुत क्रिया गया ह त्था सही अर्थो म॑ काम मुत कम 
हु है। कुद्धा प्रयत हए पूरं मनसं बहुत काम क्म हुआ दै 
से-धोकर कुष अधूरर कार्य किया गया ह । आच्िर एेसा क्या? इसका मूल 
कारण यह है किं मानव स्वभाव के स्थिर होने पर एव सदिर्यो से चले आए 
मूल्य प्रतिमान पर नत्तो कोई प्रश्च किया जाता है तथा नं ही उन मान्यताओं 
पृर कु वहस की जाती है। शन मान्यताओं को या मूल्य प्रतिमार्नो कौ 
मनु. बुद्ध जेरोस्टर ईसा मुहम्मद आदि से जोड दिवा जाता है। प्रत्यक्ष म॑ 
चाहं इन मूल्यो के प्रति आदर न हो या इनके प्रति निरन्तर प्रतिवूल व्यधहार्‌ 
कियाजारहाहों फिर भी इन्तेने न्यूनाधिक रूप सं समाज की सेवा की 
है। अत समाज को इन मूल्या का अनुगृहंत घ्ना चाहिए। अब इसी मान्यता 
पद्‌ ्श्र-चिनट लगाया जा रहा है। 

मूल्या का यह सकट कई आधारे पर्‌ परखा जा सक्ता है! उनीसर्वीं 
शताब्दौ के अन्ते मे मत्से ने मूल्या के सक्रमण पर प्रकाश खला। उनका 
दर्शन पूर्व-प्राथमिकता के विचार्यो प? आधारित था तथा गभी अज्ञानता का 
द्योतक था। उसके द्वारा प्रतिपादित नये मूल्यो की चैधत्रा जितस उसनै पुराने 
मूल्यो का प्रतिस्यापन क्था पर ही प्रश्र-चिटं लगा दिवा। 

मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र के नए निष्कर्पो पर भी ध्यानं दिवा 
जाना चाहिषए। यह सटी है कि उन्हे सार्वभौमिक मान्यता नटी मिली रै उस 
प्र ओर विचार किया जाना शप है यद्यपि षे पिचार आरभ कएने के लिए 
'पयापत सामग्री भी प्रस्तुत करते है । वास्तविकता यह टै कि अन्य कोई विकल्प 
ही नतं हे। 

प्रथम बिन्दु जा विचारणीय है या होना चािए्‌, वहं यट टै कि 
दय तथा मत्तिष्कं के यौच काडई दीवार न एे। साने तथा उसं प्राह करने 
कौ विधिया अन्तत नैतिक मूल्यो से अविच्छिन रूप से जुडी हं। ये याह्य 
भानदरण्ड न्दी टं जिन्ह कि तटस्य रहते हुए विहन के नैतिक पक्ष षर लामू 
किया जा सके। 

याईटटैड के अनुसार जह्य प्राप्य न धटनाआं के प्रम को बदल 
सकता ए वहीं अज्ञानदा अभिशाप के दाप स जुदा आ है। उसने जोर देकर 
खाया कि आथुनिक जीयन की स्थितियों म नियम अपरिहार्य हं पूर्ण 
धम्‌ (वर्ण धुल्व हे आ (कि प्रसा ऊ महत्वरान मानता है \ पह पिच सरित 
भारत कै सामने एक प्रकार छा विशिष्ट चेतावनी है। 
द्वान तथा अभ्यास 

इख पर जोर दिया जाना चाहिए कि प्रारम्थ कै रूपमे श्रा क्तौ 

युगीन शशक विन्त+/51 


जवरेलना मूर््यो का हौ प्रभाव है) फिर भी इस यात पर्‌ ध्यान द्विया जाना 
चाहिए कि श्रेष्ठ गुणा का ज्ञान तथा उनका अभ्यास दो भिने-भित्र वस्तुए्‌ 
ै। विकृत मस्तिष्क दुर्योधन दुख प्रकट फरता है कि भै अच्छाई जानेवा 
षटू पर उसका अनुगमन नटी क्र्पार्टाद््‌। म जात्वा कि बुराई क्या 
है? फिरभीर्मे उसे न्ट छोड यपारहाह्‌ या उससे अपने को वचा नही 
पा रहा ट। इसी तरद सतुलित मस्तिष्क वाले अर्तुन कौ समस्मा भी उपस 
भित नर्टीरं। षे गताम पृषत रं कि यह कौनसीयाष्याचस्तुहंजो 
मनुष्य कौ अपनी इच्छा के विपरीत बुराई क्एे फो वाध्यं करती है। यही 
मदान्‌ समस्यां है रध्स्य ₹॑। 

आधुनिक मनोषिनान दसका आशिक उत्तर देता है! प्रायड मे वहत 
पटले विलियम जेम्स ने बताया धा कि मनुष्य के व्यवहार तथा अभ्याम्‌ म॑ 
अचेतन मन की बटुत यडी भूमिका रती टै। इस विवार का फ़रायड जुग 
तथा अन्य प्रवुद्र मनोयेज्ञानिकौ ने भिन-भित दृष्टिकोण से विकास किया यद्यपि 
अपने अध्ययन के तरीकों तथा निष्को मे भित रहते हुए भी भानव मन॑ 
येः गतिशौल क्रिया-फलारपो मे अचेतन मन कौ मत्वपूर्णं भूमिका स्थीकार 
कएते हं तरथा उस्तको कार्य-प्रणालो का भी गत्यात्मक मानते है। वास्तविकं 
प्रेरकं ऊपरी सतह पर नहीं ह सरन्‌ नीचे गहे र । गहरा या यारौक या सूक्ष्म 
मनोविज्ञान व्यवहा के आधारो के वारे मे विस्तृत जानकारी देता है। 

यह कैसा सूक्ष्म मनोयिज्ञान हं जो समस्याओं मेँ ओर मुख्यत व्यवसाय 
तथा अभ्यास के अन्तेर के यारे म वताता हे ? यट बताता रै कि हमारी किना 
उस सधर्प या विरोध को उपज है जा चेतन तेथा अचेतनं के वौच पैदा 
होता दै 1 इन कठिन्या का टले मुख्यत सभव सीमा तक सर्पो एव विपेधा 
फे निवारण पर निर्भर करता ह । मानवोय व्यवहार के सचालन का मूल अचैतन 
मन मेँ है तथा सञ्ञात व्यवहार अचेतन मन के विवेकपूर्णं या ओचित्पपूरण 
अभिग्रपए्को की उपज है। 

आरवर्य के साथ कटना पडदा है कि यह स्थिति वास्तविक्ता वौ 
स्वांफार करने की अपेभा स्वप्नो मे विचरण क्रती रै जो कि मनुष्य के अन्त 
स्थल के भावों कौ बताती है । जागृत अवस्था में अचेतन मन के साथ प्रत्यक्ष 
सवध वना नहीं रट सकता। उस तक पटुच केवल अप्रत्यक्ष रूप सै सकेतो 
या कल्पनाओं से टी मभव हे! सक्षेप मे यह सकेत या कल्पता या विश्वास 
हौ अचेतन मन कौ भाषा ह । इस स्थिति को स्वीकार कला, मनुष्ये की भूमिका 
तथा उसके मत्व को नए भानर्दण्ड पर देखना है। एेसा होने षर सहज हौ 
अनुम लगा. ज! सक्ता दै कि असहाय चेतन म्न तथा नैतिकता क्स्‌ 
प्रकार अचेतनं क्षेत्र मे ऊपर की ओर उन्मुखी है। इसका आशय यह नहीं 
ह कि इच्छा शतितिटीन रै या क्षीण है पर एेसा पयाप्ततासे तो दूर है। 
आधुनिकं मनुष्य के साथ मुख्य समस्या ही उसकी मानवौय इच्छाओं के षिस्तार्‌ 


युजीन शैक्षिक चिन्तेन/52 


प्र आं मूद कर देखना हं। व्यवहार म॒ दंखा जाता है कि इच्छा शक्ति 
के सीमा से अधिक विस्तार का अनुमान भयकर्‌ प्रतिक्रिया लता है। यही 
सही मनोविन्नान हे। 
इच्छा शक्ति 

जय आदभो अपनी इच्छा शक्ति से यह गतिेध या ठट्एव अनुभव 
करता है ता यह संहज हौ एक एम स्ट की आसा करता है जोकि उस्नकी 
श्च्छा के अनुरूप नहीं है या उसकी ईच्छा शछ्छि से किसी प्रकार सवपित 
टी है। यह महत्यहीन नहीं है कि इस सहारे पर भगवान या नियम या 
अन्य कोई शि के रूप मेँ विचार क्रिया जाए! मनुष्य का सदिया का अनुभव 
है कि इस प्रकारं का आधार तथा पुस वाली शक्ति सभी दृश्यमान वस्तु 
के पीछे एहती है । यह स्वय अपनी ओर नटी बढती है पर यदि हम चां 
त्तो उससे अपने को सम्वद्र वना सकते ₹। धर्म ग्रन्था के अनुसार उठो जागो 
पूषटो खोजो तथा प्राप्त रोने तक प्रयत्न करत रहो। आप खटखयाइये आप 
छार खुला पायगे। यही शाश्वत मूल्य टै जो अन्य सभी मूर्त्यो का सोत है 
सह एक समन्वयकारो चटक रै । इसके न ोने पर सभी मूल्य हवा हो 
जार्येगे षे सष्हौन लगे) 

महात्मा गाधी की शक्ति का रहस्य उस लय या भावना मे निहित 
है जो अदम्यं इच्छा -शक्ति के अभ्यासं तथा समर्पण की अनन्त भावनां के 
सतुलनं से प्रा होती है। यहा यह स्मरण रखना चाहिए्‌ कि अदम्य इच्छ 
शवतत तथा समर्पेण की उत्कृष्ट भावना एक दूसरे वो पुनमिलन प्रदान क्ती 
है। इच्छा शकि या गर्वं हौ स्वय उसी की बहुत ची भाया है । जनसाधारण 
की समक्ष से परे ठेते ए ध्यनि करता है। एक यदी विचार अजेय ै। 

मनोयैततानिक रूप से बात कर्‌ तो देखा जावा है कि पापाण युगान 
अभाषीय तथा स्वहितं विचारे ने हौ भानव व्यवहार को मिर्दरिव क्वि टै 
तथा अनुभव मनोविजान से पृथक नटीं है । पर फिर भी साधारणत मनोधिान 
की पाठ्यपुस्तक मे इसे समुचित रूप से स्थान मर्टी दिया गया है! इन अविवेकी 
सधरकी को पृथक कर देने खौ भी च्लेई्‌ सभावना नर्त है! एषा सोचना 
निर्मूल रै किं आदमी अपने उदेश्य विचार, भावनाए्‌ तथा सवेगं शप्र हौ 
श जाएगा। यदि एेसा आ तो मनुष्य के रूप मे एम अपनी श्रेष्ठता खो 

॥ 


यह जानना जस्र रै कि ठम सव पिवेक तथा परिपववता के भिन- 
भिन स्तर पर सज गति से कारमं व्यहार करते ह! इसके दूसरी मर एक 
महान मनोवैज्ञानिक ने तो यह भी कट दिया कि कुछ पिवैकहौनता मानसिक 
स्वास्थ्य के लिए जरूपौ है । मानवीय मूल्यो के रूप मे विषेकीकरण क सुवित 
विचार प, सावधानी के साय समाज मनोधिडान तया समाशा दानो ने 
पुनर्यलन का आग्रह किया हे। इन शसो कै अनुसार मनुष्य के प्यक्ठित्व 


युगीन शैक्षिक चिन्तन /53 


५ ~ 


क्रा विकास शून्य मे या समाज से पृथक या जगल मे नीं हता रै बल्कि 
यह निधित्‌ रूप स समाज में टौ विकसित होता है! इस अवसर पर विश्वास 
किया जाना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार भूमिका 
निर्बहन करता है तथा समाज के मम्बद्र उसी से निर्देशित है। एक प्रवुद्ध 
समाजशास्त्री के अनुसार ^“ यदि व्यक्ति पृषता है कि वह चैयक्त्कि रूप से 
भूमिका तथा अभियान या पहचान के रूप मेँ कया है? यह कितना महत्वपूर्ण 
रता इका एक ही उत्तर हो सक्ता है कि अमुक स्थितियो मेँ उसका यदह 
रूप है? वह कितना महत्वपूर्ण है? तो इसका एकं ही उत्तर टो सक्ता है 
कि अमुक स्थितिर्यो म उसका यह रूप है तथा इससे भिने स्थितियों में उसक्य 
चह रूप दै। इस सव का हमि मूर्तयो के परीभण तथा नीतिशास्त्र के लिए 
क्षणिक उपयागं है 
भारतीय मल्य 

एक उदाटरण से मूल्यो का सम्प्रत्यय स्पष्ट ए जायगा। सामान्यतया 
इमानदारी गुण का मूल्यो के क्रम म॑ वहत उचे म्थान पट्‌ अकन किया सता 
है फिर भी आज के ज्ञान कं प्रयाश में इस गुण का स्थान लोक पिरद्र 
या शकावुल हो गया है । इस प्रकार आज कोई भी अपनी भूमिका का (गभीरता 
से) निर्धन करे के साय हौ अपने को भूमिका से दूर तथा असबध भी 
रख सकता है। यही भारतीय तथा पश्चिमी मूल्यो मे एक मौलिक अन्तर स्पष्ट 
दृष्टिगोचर होता ्ै। प्राचीन समय सं पास्कल तथा उसकं समकालीन 
अस्तित्ववादिया अनुसार प्रतिबद्वता नैतिक मूल्यो म॑ गूढ पिपयक शीरपस्थ स्थान 
पर निना जाता धा। इसके दूसरी ओर भारत म आध्यात्मिकता से अलगाव 
या असम्बद्भता सभी भूल्यो के योग के वरावर जाना जाता हे! इस प्रकार 
ईश्वर को नियता तथा दर्शन के रूप में चित्रित किया जाता है तथा ससार 
की सभी वस्तु उसकां बनाई हुई मानी जाती है । उसकी भाषा मे अनेकार्थ 
वाले गूढे सून समाविष्ट ह जा वास्तविकता या कृत्रिमता के रूप र्मे उसके 
सर्णन को असभय वना देते है या वर्णनातीत हाता है। यहं वु पेसी वस्तु 
है जिसे गभीरता से नीं लिया जाता पर अलगाव से अनुभव की जा सकती 
दै। 

इस सत्य वो महात्मा गाधो के उदार स्पष्टं दथा अटल नीति के 
माध्यम से प्रस्तुत किया जा सक्ता है। वे 26 वर्घं के लम्बे अन्तरत तक 
बाहर रहे तथा रोल्सर्योयरस्कन तथा थोर आदि पश्चिमी विचारको से प्रभावित 
हुए। उनके जीवन का तरीका भारतीय था लेकिन उनकी नैतिकता महात्मा 


युजीन शेदिक चिन्तन/54 


सासे प्रभावित थौ ओर यही कारण टै किव पश्चिमी देशक लोगा को 
प्रभावित कर सक। इसी भति मीडलटन मे ने गाधी जी कन प्रसिद्ध पुस्तक 
"दन्द स्वएज'" के विषय मेँ आहाद कं साथ लिखा- हिन्द स्वराज "पुस्तक 
आज के समय कयै महत्वपूण एव पवित्रतम पुस्तक ह । यह प्रश्न आसानी 
सपृष्टाजा सक्ता है कि गाधी जी भारत क थे उनकी पुस्तके * टिम्द 
स्वराज" कितने भारतीयों ने पढ़ी है तथा इस पुस्तक के लिए मीडलटन मरे 
के समान महत्वपूर्णं राय वनाई है? 
प्रकृति एव दशन 

मूलत रिन्दूत्व का अलगाव क्षमा कीजियेगा गाधी जी हारा प्रतिपादित 
मूल्या कं पद सोपान मे समाविष्ट नहीं है। य॑ पुरे हदय स पारणिक तथा 
शस्त्रो पर स्यप्रयत दुनिया मे कभी प्रवेश न कर सकं जिस पर सम्पूर्ण 
चद्‌ प्रकृति एव दशन निर्भर है! यदि कोई व्यक्ति यह साच कर आर्थर 
करे कि गाधी जी का दर्शन व नीतिशास्त्र भारत में अस्थायी तथा वाह्य मूल्या 
पर्‌ आधारित हाते हुए भी सार्वभौम प्रदर्शन पूर्णं रहा तथा भारत मेँ जन समुदाय 
को आरपिते कएने भे असफल रहा तो इसका फेवल एक टौ ठर हं कि 
नीति तथा दर्शन पृथक्‌ नही क्यि जा सक्ते पे एक दूसरे कौ ्टाड नटी 
सकते उनका सवध दूध ओर उसकी सफदो जैसा है। गाधौ जी से भित 
आगे चल शर्‌ पण्डित नेटरू ने चन्द्‌ प्रकृति तथा उससे जु गूढ दर्शन को 
आरिक ही समन्चा। सामान्य आदमी कौ उनके प्रति गहरौ प्रतिक्रिया जो भी 
ष्टो फ़रायड फे अर्थमे दो विरोधी गुणों से सत्रिहित रही- चेतन श्रद्वा ता 
अचेतन विरोधी सिद्वानत या प्रविरल मत। इस अज्ञात विरोध या सपर्यं ने 
सोचने क लिए रास्ता यताया दै । इस मूल्याक्न भे आधुनिक भनोविज्ञान तथा 
समाजशास्म का समर्थन मिला है। 

मूल्या के सकट पर विचार क्रते समय मनुष्य के य्यक्तित्व का 
-सम्प्रत्य विस्तृत अर्थो में लिया गया जव कि आन व्यक्तित्व पर ब्हुत 
सकरुचित तथा आव फे सदर्भं से पे विचाग्‌ किया गवा है इस सवध म आधुनिक 
ज्ञान ने इस प्रकार से विस्तार मृ (मनाविह्ान ने गहन रूप भं तथा समाज 
शास्त्र न॑ विस्सृत्र रूप मे) सटायता कौ है फलस्वरूप मारी नैतिकता का 
शत्र भी विस्तृत हज है चाना चाहिए॥ 

न्यूटन्‌ के सिद्धान्त के अनुसार पदार्थं षा अणु अन्य अणु को प्रभावित 
एता टै पीघता है देया समान रष से प्रतिक्रिया करता एै। वदी सिद्वा 
नैतिकता के कषत्रम प्रभाव डाला दै अभा समय रै कि आडइन्मटान तरपा 


युखै शैशिक चिन्त/55 


आइन्सरीन के याद वे वैज्ञानिको ने कई क्षेत्रो मे जो प्रभाव डाला रै उदाहरणार्थ 
सादृश्यता सिद्धान्त आदि पर विचार किया जाय। 

आधुनिक मौलिक चित्क भार्शल ने समस्याओं के घल के लिए 
पुराने एक समान तरीके की जगृ क्षेत्रीय या बहुविध तरको का स्थान दिया। 
यही वाते मूल्यो फे क्षेत्र मे भी समान रूपमे लागू होती टै। मूल्यो का 
फेल उनकी समन्वयवादी प्रकृति फे साथ लाभप्रद अध्ययन क्या जा सक्ता 
है। “"माध्यम टौ सदेश है" मार्शल फा महत्वपूर्ण वावयाश ह। 

इस पत्र मे मूल्या के महान्‌ एव विस्तृत क्षेत्र के मात्र विने को 
स्पर्शं किया गया ह। मूल्यो कौ सहायता के पृथक-पृथक्‌ पहलू पर स्वतत्र 
रूप से विचार करएने की अपेक्षा समग्र रूप से विचार कटा उपयोगी लगता 
है। एसा विचार कते समय सपपर्णं मनुष्य जीवन पर- 
विव॑कौ या अवियेकी यैयक्तिक या सामूहिक-दृष्टि रखनी चाहिए्‌। जव तव 
हम कोई विचार न बनाये न कोई षेय टै न कोई वडा न कोई सम्वद्र 
है न कोई अप्रासगिक। यद्यपि हर तथ्य पर समय तथा काल के सदर्भं मे 
विचार करना चाटिए। उन पर समयानुसार विचार करना ही समस्या के समग्र 
रूप पर हल रतु सम्षट दण से प्रहार करना है अन्यथा हम असमजस 
मे हौ पडे ररे जैसा कि विलियम जैम्स क्ता है- ^ यह समरसता 
टौ गत्यात्मक सतुलनं है जिसमे स्वतत्रता के साय ही मर्यादाए, गतिशीलता 
के साथ विश्राम देना समाविष्ट हे। इसे टौ हिन्दू दर्शन मे सत्य कहा णया 
है णो धर्म का दय है। यही समरसता मनुष्य तथा समाज एव समान प्रवृति 
के बीच स्वस्थ सतुलित परस्पर सहजीयिका प्रदान करती है तव भनुष्य नही 
ब्रह्माण्ड का मात्र यर वन जाता है। 

0 


युगीन शेशिक चिन्तन/56 


वेचारिक प्रदूषण 


आज चारो ओर दो वातो पर चर्चां कौ जा रा है। प्रथम है नैतिक 
शिक्षा या मानव भूयो की प्रतिस्थापना तथा दूसरौ ह पर्यावरण शृद्धि। दाना 
ही समस्याओं कौ अपनी अपनी गम्भीरता एव अपना-अपना महत्व है। देखने 
मे दोना समस्यार्ये पृथक-पृथक लगती रै पर ज गम्भोर 'होकर, शान्त चित्त 
से सोवे तौ समस्या एक हौ लगती ह । मानव मूर्तयो कौ स्थापना पर्यावरण 
शुद्धि समस्या तो टै पर इस पर मानव मू्यो कौ स्थापना के साधन के कप 
भे भी विचार विया जा सक्ता हे। पर्यावरण शुद्धि या सरक्षण स्यय अपने 
आप मे कौई साध्य न्ती है। साध्य तो मानव कल्याण या मानव मूल्यो की 
स्थापना ही है तथा पर्यावरण शुद्धि या पर्यावरण सरक्षण तो उसका इस साध्य 
कौ प्राति का साधने मात्रै। 

आतर की मानव जयन सदियों कै प्रयतो से सुधया हुआ रूप है। 
मनुष्य जैसे-जैसे संमञ्ञदार तथा सुसस्कृत देता गया वैसे-वेमै उसे अषने 
जीवन को कृत्रिमतर, रेय बधो मे जकड लिया। जय वह असभ्य या जगती 
धा धोखा दना या द्षूढठ योलना नर्टी सीखा था तय तक याट अपने साथियो 
फा टित सोचा क्ए्ा था त्था प्रकृति के साध ताल-मेल या तारतेम्य यनयि 
रखता धा मनुष्य मै अपनी सुख सुविधा के लिए रेल मोटर, वायुयान रेडियो 
रेलीषिजन अणुरक्ति चिकित्सा आदि का विकास किया पलु इन सभी के 
उपयोग का सूप्र अतुलित कर्‌ प्रकृति के सुन्दर वाठावरण कौ प्रदूपिद्र कर 
दिया तेधा मानवे कौ तदह-वरह के र्गो के जाल मे फसा लिया- एक प्रकार 
से वट अपने द्राण बनाये लै मे स्वय ही फस गया 

कारखाने में पालतू यची यस्तुर्ओ को नदौ या सागर म भिराया 
जता है इससे जले प्रदूपित तो जता है इससे मटलिर्यो फा जीवन खतरे 
भे भड जाता है। कल-कारा्ने व कैव्दरयों के विपाक एव कीदणु युक्त 
जल से नदौ सागर तथा वालायो मे मछलिया आदि मर जाती ै। न केवत 
इतना टौ यल्कि नदिर्यो का पानी मानवे फे लिए जहर वनं जाठा है। अनेक 
यैजञानि्ो ने यह आशकः च्य कौ है कि मधुर की रिफा$्नरो से निकले 
चाले अपरिष्ट पीं से जमुना नदी का पानो ठो निश्चितं रूप से दूषि 


युजीन शिक चिन्तन/57 


होगा ओर साय दी विश प्रसिद्र स्मारक ताजमट्ल कौ सुन्दरता पर भा प्रतिकृ 
प्रभाव पठने कौ पूरी-पूरौ सम्भायना है जिससे उसका सौन्दर्यं नष्ट ते सफता 
है। 

यष्ट मानना चारिए कि नितना खवप यादा सगतं को रै उतनाष्टौ 
खतरा अन्तर जगन या चैचारिक धरातल या मनागगतं यौ भी हई । अत मानय 
मात्र फा सजग रहना चारिए्‌ कि प्रदूषण के यादा प्रभाय से अपनी चैचारिक 
पृष्ठभूमि षो कैस यचाया जाये यद विश्वासपूवक कटा जा सक्ता कि 
साक्षरता का स्तर जितना ऊँचा ओर उसका प्रतिशत जितना अधिक यदाद 
उतना टौ अधिक मानव मूल्या का स्र हुआ रै। एस इम अर्थे कि 
अधिक पदा-लिखा व्यक्ति उतने हौ अधिक सुधर दए तरौक्रौ से तथा यारीकी 
से धाघा दना सीख गया चंड योलना सीख गया र नैतिक अनैतिक तरके 
से धन वदास फे तरीके सीख गया ई । प्राण लेया दवाइया घटिया खाघात्न 
तथा धनिको क ओद्यागिक सम्थानों पर रोव के मरे जने वाले छपि ध्सका 
प्रमाण है। ह्न कामो क लिये मानव अपना व्यवहार इस करट यना रा है 
कि दुसणे खोयुरान लगे या दूसरे फो युरा लगने पर आत्पकन्धित टेन 
का वाना यना कर्‌ यच जाये। 

पैचारिक प्रदूषण के प्रसार में या स्पष्टे कट तो मानव भूर्ल्यो क 
छ्ास मे टिसात्मक एवं पृणाव्दरक चलचित्र तथा श्रष्य दश्य सामग्री का भी 
कम महत्वपूर्ण स्थान न्त रा ई । एक यार चण्डीगढ फा एक समाचार पटा 
था कि उच अधिकारियों के वच्वा ने मार आनन्द लने के लिए सिविल 
लाइन्स मे शौचालय के मार्ग मे यरा मं प्रवश कट्‌ विभित वस्तुओ को नुकसान 
पटुचाया। पूष्टने पट्‌ ज्ञात हुआ कि वर्यो ने ये कार्यं सिनेमा देखकर सीषे 
थे। न रिल्मो मे हिसा मार धाड बलात्कार यून चोरी-डकैतौ हत्या आदि 
के वुःकुत्य प्रचुप्ता से दिखाये जते ्ह। इसं प्रकार के कुकृ्त्यों की हिंसात्मक 
फिल्मों से आज भी यदा कदा तागे चाले या इसी प्रकार के अन्य लोग यात्रियो 
कोयातो एकान्तमे ते जाक चाव षो की नौक पर्‌ लूटे ह या उनके 
साथ कुकृत्य करते ई। यह सव घटिया फ्त्म का हौ प्रभाव है। 

पिष्टे दिनों जयपुर मे विध्रालयो तथा धार्मिक स्थानौ के याहर 
महिलाओं के अर्द्नप्र चिर को देखकर उनके पिरोध मेँ जनसाधारण ने प्रचार्‌ 
किया था। ये विक्ञापन के साधनके रूपमे काममे लिये जारे थे। इनसे 
विज्ञापन दाताओं। बो लाभ दौ रहा है -या नहीं यह दूसरौ वाते है1 पट इससे 
सामान्य जनता के मन में पाशविक या युःत्सित प्रवृतिरयो का विकास सहज 
है। आंखो के सामने एक ठी चित्र की बार-बार आवृत्ति ्टोने से देर सवेर्‌ 
प्रभाव तो पडता ही है। 


युमीन शेदिक चिन्तन /58 


यह उपचारटीने कायं हा एसा नहीं कहा जा सकता। सरकार कौ 
कयनून व्यवस्था को जग कठारता से व्यवद्यर कर इसका निवारण किया जा 
सक्ता है। एेसा करने सं जनता का एक छोटा लाभाम्वित होने वाला वर्गं 
सप्रसन टौ सकता है पर समाज को बं हित के सामने छोटे हित के त्याग 
कं लिए तत्पर रहना चाहिए! 

यह वैचारिक प्रदूषण काही फल है कि आत चार्यो आर अवष्टनीय 
गतिषिधिया टी दृष्टिगाचर्‌ हा रही हं ! चिकित्सालय मे रोगिया की समय पर 
देख-भाल नही की जाती है प्राणलेवा घटिया दवाक्या वनाई जाती है स्वस्थ 
रहनं क लियं मच्छगकाहां नाश कियाजारह् है छात्रावासा मेँ नीद 
तेने कौ गालिया लेकर छटात्र-षात्राये तनाव से मुक्ति पते हं याधार की 
उपज चढ़ाने के लिए णगल काट कर खेती की जा रही रै। फिर उन्ह भले 
हौ मवरिर्यो कं लिए चरगाह या जगली टिसक जानवो के चरने षिचरने 
के लिए जगह म मिते सम्जियौ के पौधा पर विडिया न यैठे इसके लिए 
उन पौर्धो प्र जहरीली दवाक््या छिडकी जाती हं फिर भते हौ उन दषाओ 
से चिखिया मर जाये यनिया पीसी मिर्च मे लकडी का वुरादा या हल्दी 
म टट पिसवा कर वचता है उने इन चीजों के खाने वालों के स्वास्थ्य 
कौ कोई चिन्ता नटी है। आयं दिन शाध ग्रन्था म प्यं यै शाध ग्रन्थो की 
नकल के समाचार ष्ठे जते ई! शोध छत्रा कौ एक या अन्य कार्णो सै 
परेशान किया जाता है यां छात्राआ का अपण किया जातां ह। अनुतीर्ण 
छात्राओं को स्वर्णं पदक दिलवाये जाते ₹। किसी-किसी विशिष्ठ पाटयक्रम 
भे प्रवेश पाने के लिये अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्यं 
करार क्ररवाये जते है। शध छत्र सै मिटाश््या सादया फनीचर तेथा अन्य 
खीमतौ उपहार लेना या अपने वच्वां का उनके साथ सिनेमा भेगना क्या 
विक्त मस्तिष्क कै चातक नह है? किराया तय कर ताग से चलने प्र गन्तव्य 
स्थानं पर पटँवे कर तागे वाला लड-क्षगडकर अधिक चैसे ते तेताटै यट 
सव आचिर क्या हो रषा ह । क्या इसं चैचारिक या सामातिक प्रदूषण नहीं 
जये? चस्तुत॒ आज मानव मूल्या की खोज गुलर का फूल सिद्र हे 
र्हीहै। 

इस प्रकार प्रदूपण भक्तो मे तथाकथित पे-लिखे सम्पन्न ठेकेदार 
पिज्ञनधत्ता प्रवाशक राजनयिक उधौगपत्ि त्था युद्धिजीवो लोग पाये जते 
है। यतेन मन धन सं समपि तकर सश्द्वा उपासना कतं ह ओर इच्छा 
करते हैकियददिनामे हलो श्रौ सम्पन्न हकर दानवीर, समा सैवौ तथा 
अत्रि पिरिष्ट लाक ितैपौ वन जाये! यह वाव अलग ह कि उनकी सम्पनेता 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/59 


आस-पास के सम्पर्कं भँ आने वाते यारा लोगों छो क्सीन किसी रूप 
म रोगी पगु, पागल एव मत्र समान वना देती ह! वहा के जलवायु मँ 
वायु मण्डल मे अन्तर आ जाता है प्रकृति विकृत टो जाती टै यनस्पति 
चर्णं-सकर हो जाती है कई यार पयावरएण रक्षा कनौ याव की जावो है प्रदूषण 
रोकने कं प्रयास भी सुनते ह। पर लगता है यट सव दीएावा है ओर 
प्रदूषण दैत्य खा भाई टै जो विश्च में चैल जायेगा। 

व्यवहार मे दंखने पर स्पष्ट ्टोता है कि आन्‌ रष के सामातिक 
सास्कृतिक आर्थिक नैतिक मनोचैज्ञानिक पर्यावरण तथा सर्व शक्तिमान द्वारा 
प्रदत्त उपहारो मे अर्थात प्राफृतिक दनं मे सामञ्जस्य नटी है1 एक तरफ 
खाधान युद्धि के लिए. जैसा कि ऊपर याया गया है चरगाह जोती जा 
रही है। दूसरी तरफ मयेशिया षं लिए घास क्मप्तोरही रै सिचाईके 
लिए्‌ नद्यो का याध कर जगह-जगह पानी रका जा रहा रै तथा दूस 
आर लागा को पनि छा पानी ही उपलव्य नहींषहोराटै प्रकृति का अपना 
सौन्दर्य है। इस प्रकार जोवन मे समरसता (हार्मनी) समास हाती जा रहौ 
है! इस प्रकार सौन्दर्ानुभूति का विचार तुष होता जा रषा है। वास्तविकता 
यष्ट है कि आज वै सभ्यता या जोवन प्राकृतिक सम्पदा फे उपयोग भर 
हो निर्भर ष्ठो गया है। आज प्रकृति का उपयोग न कर्‌ ठसका शोपण किया 
णा रहा है! यटी कारण है कि प्राकृतिक रक्छिया मात्रा मे क्म हतौ जा 
शटी है- उनकी गम्भोरता भी क्म होती जा एही है तथा यह स्वीकार क्रमे 
मे तनिक भी रिचकिचाहट नटी होनी चाहिए कि प्रादृतिक शक्त्या प्रदूषितं 
हौ रहीर्ट। 

एक उदाहरण देखिए-वम्बई कं पास समुद्री भल क निल्तरं प्रदूपितं 
होने के कारण मरलिया आदि जल के जीवा मे भोनोमोदिया एक विरोप 
प्रकार का रोग फैल रष्ठ है। यम्ब से आगे पुणे फे रास्ते प्र एक स्थान 
निरन्तर प्रयास करके मच्छर समाप्त कर दिये इसमे आदमियो का मच्छ 
के आतक से टकार पाना तो समञ्च भँ आता है पर इससे छिपकली दुबली- 
पतली रोने लगी तथा डाकरो ने पाया कि आदमियो को मच्छरो से प्रतिरोध 
करने कौ शक्ति (रेजिस्टेन्स पावर) क्षीण टो गई "अव वे छोटी-्ोटी वीमारियो 
से पौडित रहन लगे। इसते स्पष्ट है कि प्रकृति के नियमो के विपरीते नर्हौ 
चलना चाहिए। भच्छर-मच्छर की जगट रदेगे तथा अपना काम करेगे। आखिर 
मच्छर भी तो किसी के लिए उपयोगी होगे हौ। कटु वार्‌ कहा जाता ह 
कि रासायनिक खाद प्रयोग करके गोभी या मटर कौ अथिक मात्रा मे फसल 
प्राप की जने लगी है! पर यह गोभी या मटर स्वादहीन भीहै एेसी भी 


युजीन शेक्षिकं चिन्तन/60 


कड चार उपभाक् शिकायत क्तं है। लगता दै प्रकृतिं कं उपहारा का उषवाग 
करने का सूत्र गडवदडधा गया है1 

प्रकृति कौ विपुल सम्पदा वेः आगे मनुप्य रक कं समान है पर 
स्थिति यह टै कि वह मालिक बन कर इसके दाहन मेँ यिना विश्राम किये 
लगा हु है ओौर यट दहन भां प्राना क साय विनम्रतापूवक न होकर 
वलात्कार के रूप मे ह्य शा है। मनुष्य कौ प्रकृति कां रक वना देने की 
इस इच्छा के फलस्वरूप ऽसकी भौतिक सम्पति तो यढ रषी है भनुष्यं का 
उस्र पर्‌ अधिकार भी हौ रह है! दूसरे शब्दा म मनुष्य कौ वैचारिक दरिद्रता 
'या आन्तरिक धरातल दुराग्रह कौ सीमा धूल लगी है। सम्भवतया मनुष्य कन 
यह ज्ञान नहो है कि वट प्रकृति के साथ अत्याचार क्के स्वय हौ दण्डित 
षो रा है1 मनुष्य एक ओर ठो वाहय पर्मावरण को जिसमं जीव-जन्तु, जत 
वायु, पेड पौधे पृथ्यी नदी तालाव कुष, यन पर्त ओर आकाश आदि 
सम्मिलित हें प्रदूषित कर रहा है अपने चाग ओर के ससार को विषाक्त 
कर रहा है तथा इसके विपरीत दूसरी ओर अपने मनीजगते रूपी आनरिक 
पर्यावरण क पूर्णं सर्वनाश के वीत यो रद्य ै। प्रकृति तथा प्रशु-पक्षी का 
यिना मनुष्य कौ सहायता के भी अस्तित्य रहता आया हं। पर यदि मनुष्य 
उनकी सुरक्षा करता है तो एसा करके मनुष्य स्वय अपनौ सुरक्षा के प्रति 
आधस्त हो रहा ह तथा वह प्रकृति सा पशु-पक्षी पर कृषा नही कर रघ 
है। 

आतेरिक पयावरण या मनोजगत या वैचारिके पृष्ठभूमि आज जितनी 
प्दूप्ति हो गदं है, सम्भवत भानव जाति के विकास के इतिष्टास में एसा 
पूर्य मे कभी नही हुआ। मनुष्य-मनुष्य का शत्रु बन गया है आज की जैसी 
मूल्यटीन सस्कृति पूर्व मे शायद कभी नटीं रही आज क्यौ जैसी व्यापक 
सवेदन हीनता का भूतकाल मे कभी सकेत नीं मिलता हे। यदि आज का 
पर्यावरण विषैला रै मूल्यदीव है मानव कल्याण सेपेहै तो सस्कृति भी 
उससे कैसे वघ रट सक्ती ? यह भां उससं प्रभावित चो हागी हां । आन्तरिक 
विचारा मनागगते या चैचारिक पृष्ठभूमि हमारे जीवन मूर््यों नैतिक मातदण्ड 
तेथा हमरे मानष धर्म कं स्तम्भो पर टिकी हुई हे। पर आज की स्थिति 
मय॑ स्तम्भ चरर गयै हं टष्ने लगे ह। “"जीज आर जीने दो'" कौ कमह 
पसा लगता है कि उसने दूसरों को मार कर्‌, मैदान से हटा कर स्वय अकेले 
तौ जीने का तिश्चय कर लिया है। यह स्वीकार क्रिया जाना चा्िए्‌ वि 
भानवे सभ्यता के विनाश का असलो खतर; अन्त जपत मा यैचारिकि प्रदूषण 
हि जज फे प्रदूषण फे लिए कुष्ट उत्तरदायी पक्ष ह~ यगला का अनियन्नित 
कयव कारखाने एव कैकटयियो के अनुपयागो कचर्‌ का मुक उष्सर्भन मितावट 

युगीन शैदिषक चिन्तन /61 


राकने में शिथिलता काटनाश एय रासायनिक खादा का खेत मं अधाधुष 
प्रयाग कारखाना-सशीना कौ अनवरत युद्धि जलवायु -पृथ्यी आकाश को चिपाक्त 
कएने वाते वातायरण कौ सृष्टि सभ्यता-सस्कृति के नाम पर्‌ कणकटु चीत्कार 
कए वाल साधन कला तथा विनोद की आड में रचि तथा चतना षने विवृत्त 
करनै वाले शृगार एव प्रसाधनमुक्त नाच गान के उपक्रम आदि-आदि। प्रदूषण 
का फल है-समाजे म पिघरटन असुरक्षा तथा नकं के समान यातना भागना 
ओर एक टी शब्द में कहे तो अपराध। 

"खो पिवेकौ राय ने कितनी पीडा के माथ सही लिखादरहै कि 
चनो को फाट कर आफाश को विपेलो गैसो से भर कर नदियां कौ सत्यनारौ 
क्चरो से परिपूर्ण कर ओर उर्वर धरती भ रासायनिक खाद व दवाओं का 
जहर मिला कर क्या भनुष्य अभूतपूर्वं क्रूर टिसके आस्थाहीन स्वार्थी 
अहमकेद्धित असामाजिक आर्‌ फिर इनके प्रभावों से तनावग्रस्त खण्डिते 
भग्राशय उखडा खवाडोल तथा पागल नटी होता जा रहा टै?'" 

क्या इस मनाजगत को शुद्र वनाये रखने का कोई तरीका है? क्या 
ईस नदते वैचारिकं प्रदूषण को रोकने को कोई तरीका है? ष्या मनुष्य को 
प्रकृति षै गोद म लौटना होगा? इसका उत्तर ्ौ मं देना होगा कारण कि 
अन्य कोई रास्ता नहीं दौख रहा दै! विज्ञान मनुष्य के बाह्म पर्यावरण को 
प्रभावित करता है काव मे कता है। सिज्ञान ने ही उसे प्रदूषित कएणे मे 
पटल कौ है तो क्या वह उसे शुद्र कणे मे पीछे रहेगा? मही नरी उत्ते 
शुद्र भी करेगा पर उसकी पहुंच बाह्य पर्यावरण तक टौ रै वैचारिक पर्यावरण 
उसका क्षेत्र नीं रै। मनोजगत को वैचारिकिषत्र को शुद्र क्ले का कर्यं 
धर्मकादहै कर्तव्य का है। धर्मं सुनकर आप आश्चयं न कौजिये-यलं धर्म 
का सम्बन्ध शाश्वत कर्तव्यो सं है मानव कल्याण कार्य धर्म हौ वहं तत्थ 
है जो यैचारिक जगत को जौवन देने वालो ऊर्ना प्रदान करता है। धर्मफे 
सार्वभौमिक शाश्वत लक्षण धृति क्षमा दया दान सेह शौच इन्द्रियनिग्रह 
धौ विद्या सत्य तथा अक्रोध दी ऊर्जा प्रदान कएते ह। यह विश्वास करने 
के लिए पर्याप्त आधार है कि मनोतगतं कौ वैचारिक पृष्ठभूमि षो आन्तरिक 
पर्यायरण को शुद्ध करने वाली ऊर्जाआा को पुष्ट कएने से आदमी बाह्य पर्याषरण 
को अशुद्ध कएने प्रदूषित कने सं अपना हाथ पठे खौच लेगा उसे प्रोत्साहन 
नही मिलेगा तया पर्यावरण को अशुद्ध करने को प्रदूपिते करने खा सादसं 
नही करगः1 

ऊप कं इस विवेचन स स्पष्ट है कि हम सव एक दूसरे पर निर्भर 
एक को फलन-पूलने के लिए दख कौ सहायता चादिए्‌। यन वने रष्टगे 


युगीन शैक्षिक चिन्तन /62 


त्रो जगली जानवर सुरनिते रंगे ओर वर्षा हागी वर्षा होगा तो नदिया भरी 
र्गी नदिय भरो रटेगी ता मगर-क्द्ुआ ओर मषटलिर्यो जीवित रहेगी ओर 
मनुष्य को अतिरिक्त भावन मिलगा ओर अत्तरिक्त पानी से खता में सिचाई 
हागी सिचाई हाने सं खेतों म खाधाना कौ मात्रा बढगी खादयानों की मात्रा 
दढन पर मानव को आवश्यकतानुसार पौष्टिक आहार मिलेगा तथा आहार्‌ ही 
मानव कौ पठाडो कौ सैर करे की शक्ति दगा। मटे रूप मेँ जीवित रहने 
के लिए, फलन-पूलने कं लिए-हम सव को एक दृसर कौ सहायता चारिए। 
'पहाड नली खलिहान खत मैदान पशु, पभी आदि सभी प्रकृति के उषटार 
मानव जीवन का अधिक युशहाल वनात हं । इसी को कते हे अन्तनिरभरेता। 
इस अन्तनिर्भर्ता का सूत्र विगडतं टी प्रकृति कै विपरीत एक का दूस द्वारा 
अधिक उपयाग-शोपण कएने परर तालमल विगड जादा है ओर मानव तथा 
प्रकृति में उत्पन विसगद्रिां उनक लिषए प्राण लवा सिद्ध हाती हं। यही कारण 
ह कि आज मानव का समरसतापूर्णं जावन समाप्त टा गया सा लगता ह। 
इनौ आधात पर मानव को सजगतापूवक सटी दिशा मेँ प्रयास करने हें । 
प्रदूषण की समस्या के निवारणार्थं युद्ध-स्तर पर सवगतापूवक 
अनार्य स्तर पर प्रयव्र हाने चारिए। सयुक्त गष सघ कं एक प्रतिषदन 
के अनुसार राग आरम्भ हाने के पूर्वं राग के कारणो का उपचार कएना कहीं 
अधिक अच्छा टै ये प्रयत कम यर्चीले भी होगे इससे धनं वचेगा तधा 
मानव स्वास्थ्य की भी रक्षा हां सकगी। इस अध्याय को एक नयादित कवि 

की रचना से समा कएना समीचीन लगता है- 

"आआ। मन कौ पावनता क साथ-साथ तन को भी पुनीत वनाय। 
जल वायु, मृदा कौ स्वच्छ वनाकर जीवन फा सच्चा सगीत सुनाये। 

|| 


युजीन शैशिक चिन्तन /€3 


शिक्षा मे नेतिक एव आचरण मूल्य 


पिले एक अध्याव म भावनोय जीवन मे आई अतैनिक्तारओं क 
कट उदाटर्ण भिनाये गये गो भाएतवासियो ये नैतिक पतन फी मटकाष्ठा 
यतात ह । आशर्यं तो तव हाता है जय यच्चो को आदर्श नागरिकता चल पाठे 
पटाने याला नागरिक शास्प्र का अध्यापक स्वय टौ अपने निवास स्थान फौ 
उपयी मजिल से धिना अपने परासिया की सुख सुविधा का ध्यान रखे कचय 
चूडा एकट नीचे पक्ता है! एक समवय था जव भारतवासी धरा मेँ ताते 
नटीं लगाते थे घौ दध को नदिया यद््ती धी। पर पिषली तान चार शताच्दिमा 
सै मारौ नैतिकता का निरन्तर घस हदा जा रघ है) कुठ अर्शो मे इसका 
एक महत्वपूर्णं कारएण हमारी प्रचलित शिक्षा प्रणालो कौ यताया जा सक्ता 
है। पर नैतिक पठन कायटी एक मप्र कारणप्े एेसाभी न्ती कहाजा 
सक्ताहै।तो पिर । आघिर इसका कारण य्या है? भारत धमप्राण 
देश र है अधिक्राश भातवासियौ के जौवन भे धमं एक प्रेरक शक्ति क 
रूप भं विमान है! कोई भी धर्म यह तर्ही कत्ता कि पडोसी कौ दु 
दर्द भ सल्ययता न कणे या किसी क कष्ट पटुचा्ओं या किसी का सामानं 
चुणजो। सभी धर्मं ईमानटारौ ओर सच्चाई दूसरे का ख्याल रणना यद्रजनो 
ये प्रति आदर, प्शुमौ पर दया दीन दु छि्यों क॑ प्रति सहनुभूति जैसे चरि 
के आधारभूत गुर्णो प यल देते ह६। गोदा के माध्यम से भयाने श्रीकृष्ण 
ने धर्मं का कैसा स्थाभाविक स्वरूप सामनं रखा है? धारयति इति धर्म अर्थात 
धर्मं वही रै जो धारण किया जता है। पानी का धर्म यहना टै सूर्यं का 
धर्मं गमीं देना रै। इसप्रकार सभी यो अपने अपने नैसर्गिक धर्मं कौ जानकार 
मिलती है। भगवान्‌ कृष्य आग चलकर कटते हं कि अपने धर्म का पालन 
कंसे हए मृत्यु भी श्रेयस्कर है पर दूमतें के ध्म वो स्वोकार करएनै कौ 
कल्पना भी भयावह है- स्वधर्मे निधन प्रेय परधर्मो भयावह । 

इसी की व्याख्या पूर्य वापू ने ओर भी अधिक स्पष्ट की ह । उनका 
कहना है कि कुम्हार यदि पड लिखकर वकील यन ऊादा रै तो उसे वकालत 
खल धधा सेवा कौ भावना से अपनाना चाहिए तथा जीविकोपार्जन के लिए 
त्तौ उसे कुम्हार के व्यवहार पर ष्टौ निर्भर र्ना चािए। कितना उचा त्याग 
वाला दर्शन है इस व्याख्या मे। 

युजी त शेशिक चिन्तन /64 


मूल्य शब्द से तात्यर्थ- 

ऊपर क विवचन से यट समीचीन लगता ह कि मूल्य श्ब्द का 
अर्थं स्पष्ट किया जाय। मूल्य शब्द अग्रेनी क षल्य [४२।८९]शब्द का हिन्दौ 
रूपान्तर हं तथा यतल्यू [४2८९] शद अग्रजी में क्रिया स्प म भी प्रयोग 
किया याता रा है जिससे आराय ह महत्व किया जाना विचार किया जाना 
या यरोयता देना आदि। अग्रेजी फे व॑ल्यू [/०।५७] शल का यही अर्थं यतेमान 
मन्दर्भ म समीषान लगता रै। इस प्रकार मूल्य शब्द का आशय है उच 
स्यान दना प्राथमिक्दा दना क्रमानुसार महत्वपूणं मानना विचार करना आकाक्षा 
कए्ना यरीयतां वताना दृष्टिकोण स्म्ट करना चाहना इच्छा करना आदि। 
सभी इच्छाए या विचार या यृतिया समान न्ती छती रै अत इन विचारं 
इच्छाओं तथा आकाक्षाओं म महत्व के क्रमानुसार वरीयदा नित की जाती 
है। यटी कारण है कि मूल्य शब्द से भित्न-भिन विचारक भित्र-भिन्न अर्थ 
लगाते ह तथा अपने तरीके से परिभाषा प्रस्तुत के हं। मूल्य वे आदर्शं 
सम्प्रत्यय पूति धारणाए्‌ या परिचार टै जिनी भतुष्य इच्छा कए्ता है तथा 
प्राप्ति के लिए सव ्रकार का त्याग क्रते को तत्पर रहता है। मूल्या क 
सुस्थापिति सेने मे अथक मानवाय प्रयासो क साथ हौ तम्या समय कमत 
के रूपर्मे चुकाना प्रा ै। इस प्रकार मूल्य जीवन भे स्थायी विशवास या 
धरेह है। 

मूल्य मार्गदशक निर्देशक तत्व है दोप स्तम्भ दै। ये हौ मानव 
जीवन के क्रम वो तिर्थारित क्एते टै जीवन का सार वताते हं ये क्य 
प्रयास तथा यरौयता क्रमे का चयन एव निधारण कत्ते है ये मानव के विचार, 
उनकी आकाक्षा या अभिचृत्ति तय क्रतं हं मूल्य टौ जीवन को अपूर्ण 
तधा गुणवत्ता प्रदान कते रह। 
नैतिक शिक्षा 

इसो दर्शन पर्‌ आधारित नैतिक शिक्षा का विकास किया जाना चहिए। 
यैत्तिक शिक्षा को विस्मृत एव सटौ अर्थो मे धम से पृथक नहीं क्यीजा 
सकता दानो पर पृथक-पृथकं रूप से विचार नटी किया जा सकता ठौक 
उसी प्रकार जिस प्रकार की सफदौ को दृध से पृथक नहो क्या जा सकता। 
एेसी शिक्षा जो केवल सातात्कालिक उददश्यों को टौ पूति करती हा उस समग्र 
शिक्षा व्यवस्था नर्हा कहौ चा सक्ती। शिश्वा का शाश्वतं मूर्यो-सत्य शिव 
सुन्दरम्‌ के विकास का आग्रह कना चाहिए। 

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के भूतपूर्वं अध्यक्ष एव विख्यात शिक्षा 
शस्त्री डो खौ एम कोठारी का यह कथन कितना सत्य है कि *श्टम नैत्तिकदा 


युमीन शैक्षिक चिन्तन /65 


विहीन शिधा कौ कल्पना भां नहीं कर सक्तं! इसी भाति विद्यात शिक्षा 
शास्म स्वर्गीय प्रो पीएस नायडू ने कहा धा कि ' ईशर विटीन शिभा एसी 
जुराई है जिम पर विचार भी नहीं करना चारिए 
एक भयकर मृल 

यह देश का दुर्भाग्य हौ कहा जाना चाहिए कि नैतिक शिपा पर 
उचित ध्यान नहीं किया गया ई। विभिन शशिभा आयाग ने त्तिक शिक्षा के 
लिए समय समय सस्तुतिया की है प्र उन पर सही क्रिसन्सयत की दृष्टि 
से कोई प्रयव नर्द दिया गया। क वार यह भा डर था कि भैतिक शिभा 
को विद्यालय के अन्य पाठ्य विषयों कौ तरह यदि एक विपय वना दिया 
गया तो इसरा अध्यापन भी यात्रिफ मनउवाऊ एव नीरस जन जायगा विदयार्थियो 
को सूचना मात्र दी जायेगी। अन्य विष्यो कं समान टौ विद्चाथी नैतिक शिक्षा 
के सिद्वान्तो एव धिषयवस्तु को रट कर उत्तोरण हो जायग ओर यहा तक 
कि प्रथम श्रणौम भी] रत्रिमे दर तक याद करके परीक्षा म॑ उगल देना 
तो नैतिक शिणा का मूलभूत उदश्य नली है। नैतिक रिक्षा को परीक्षा मं 
प्रथम श्रेणी के अक्‌ प्रात कर या सम्मान सहित परीभा पास कर परीक्षा भवन 
से लौटे समय परीक्षा देकर लौटतो हुईं सहपाठी छात्र का दुपटूय खीच 
लेना या साइकिल स्टैण्ड पर्‌ खडी सादकिलि को हया निकाल देना या सार्बजनिक 
खुर्ले मल भे पानी वहने देता तो नैतिक शिक्षा का प्रतिफल नहीं है। यट 
तो नैतिक रिक्षा करा उपहास रै मखोल है। 


कथनी ओर करनी 

यह याद रखा जाना महत्वपूर्णं ह कि नैतिक शिक्षा कक्षाके कम 
मदी नहीदौ जा सक्ती उसका अध्यापन गितती के कालाशो या घटो 
म॑ नही कराया जा सक्ता। यदि एसा फिया गया तो नैतिक शिभा न टोकर्‌ 
सूचना मात्र रह जायेग ! नतिक शिक्षा की व्यवस्था ईस प्रकार की जानी वचार्हिए्‌ 
करि विद्यालय के हर कार्यक्रम से विद्यालय हा हर गतिषिधि से विधालय 
के कण-कण सं वालको को नैतिक शिषपा मिले स्कूल के जीवन एव वाताषरण 
मे नैतिक शिभा प्रतिबिम्बित दोनो चार्हिए। विद्यालय का कोना काना नैतिक 
वातावरण प्रस्तुत करे यही प्रय होना चार्हिए। 

भैतिक शिक्षा प्रदान क्रे का कायं किसी एक उच्व शिक्षक का 
ही उत्तरदायित्व नही रोना चदधिए, बल्कि इस कर्यं कौ जिम्मेदारी सभौ शिक्षन्ते 
को समान रूप स अपने कथो पर लेनी चाहिए शिक्षका का यह निश्चय 
कर्‌ लना चाहिए कि अपना विशिष्ठ विषय पढाते हए ओर छात्रो के सम्पर्क 


युजन शक्षिक चिन्तन 66 


मं आत समय सहज रूप म॑ विना अहिरिक्त प्रयत्ना या तैयारी कं ईमानदारी 
ओर सामाजिक जिम्मदारी चस आधारभूत गुणा का विकाम करग) नैतिक मूल्या 
कौ प्रतिष्ठा देतु साहसी प्रिया क महत्व को अरस्याकार नहीं किया जा 
सक्ता। यदि इन मूल्यो का चरित्र का अभित जग वनानां अभष्ठद्येतां 
नैतिक जीवन कौ सव ओर से सवारन का प्रयत्न करना चाहिए। 

कथनी तथा करनी के अन्तर को एक अन्य रूप भ देखिए्‌। लोगो 
मे सही वात का कट का साहस टौ नी रट गया ६ घ॑ उत्तरदायित्व स 
वते है। इसी आधार पर एक दूसरे पर विश्वास समाप्त ठता जा रहा ह। 
इस सन्दर्भ म भारतीय त्था पारचात्य मूल्यो म कितना भारी अन्तर है । उदाहरण 
सं यह यात अधिक स्पष्ट हा जायेगी! मान लीजिये- काई विद्यार्थी चिना 
रिकिटरेत म यात्रा करते पक्डा गया तथा प्ररिवय पत्र के आधार पर उसके 
प्रधानाध्यापक कौ उपयुक्त जानकारी ए गई या अन्य काई विद्यार्थी परीक्षा 
भवन म भक्ल क्एते पक्रडा गया। अव प्रश्र यह है कि कितने सस्था प्रधान 
उनके विधार्धिर्यो के इन कार्यो का उनके चरित्र प्रमाणपत्र र्मे उदमख कटने 
का साहसं जुटा पायग या उनके इन आपत्तिजनक कार्यो के आधार पर उन्हे 
निम्मेदापी क वार्य न सपन का चरित्र प्रमाणपत्र मे उख कर सर्केगे। 

भारत भें मूल्यों का वडा हास वभा है । अव यह भी मान लौजिए 
कि शायद कोई प्रधानाध्यापक साटस करक अपने विघधाधि्यो कौ इन नाजायज 
ह्रकता का उनके चरित्र प्रमाण-पत्र मे उख क दे। यदि किसी ने साहस 
करके विधाथीं की नाराजगी मोल लेकर उख कर भी दिया तो नौकरी या 
धधा प्रात करने के समय वह उस प्रमाण~पत्र को वताये हौ नही वह यट 
भी कह सक्ता हि कि प्रधानाध्यापक ने प्रमाणपत्र दिया ती नर्त पष प्रश्र 
प्रमाण-पत्र दिखने या न दिषाने का नर्त है) ध्यान दने की वात तो यह 
है कि नियच्छ भी भैक या हायर सैकण्डरी स्वूल या खातकः के प्रमाण 
पत्र या उपाधि पत्र पर ही आग्रट करेण प्रेणी-अकां का प्रतिष्ठत या विषय 
आदि पर षी) नियोक्ता इस पर कोई ध्यात नहीं देग कि उस विद्यार्थी का 
्रधानाध्यापक उसके लिए क्या राय रखता रै? जथकि पाश्चात्य दशो मे इसकं 
विपरीत स्थिति है। वटा यं प्रधानाध्यापक की राय जानना चाहते है आवश्यक 
शैक्षिक यग्यता तो वे धारण क्ते ही गे तभी आवंदन किया ह। पर यटा 
महत्वपूर्ण यह टै कि चं उसके प्रधानाध्यापक की राय जाने पर भारत भे 
फसा नहँ है । प्रत्याशी भौ अपन प्रधानाध्यापक के प्रतिकूल सूचना वाले प्रमाण- 
पत्र षौ तीना जरूरी नठी समते पे भी वाहय परीक्षा का वोडं या विश्वषिदधालय 
का प्रमाणपत्र टौ बताना पद करते ह । इससे दाना प्रधानाध्यापकं फे 


युगीत शेक्षिक चिन्तन/67 


विश्यास्ल को त्थित्ि स्पष्ट हता ह॥ 

इसी तरएट का एक ओर उदारहण दविए। भारत मं एक अधीनस्थ 
कर्मचारौ सरिस छोडकर चला जाता है तनौ वह अपन नियोक्ता से अपने कार्य 
व्यवट्ार के वारे म एक प्रमाण पत्र लेता है दथा अगते नियाक्छा कौ बताकर 
अपना पभ सबल करता है। पाश्त्य देशो में स्थिति उल्टी रै । वहा नियोक्ता 
को अपने अधीनस्य कर्मचारी से अपने अच्छे व्यवहार का प्रमाण-पत्र लेना 
होता है। अमरीका से लौटे एक अधिकारी ने बताया कि उनको अपने कुक 
से उस्रके साथ मधुर व्यवहार क्एे एव भेदभाव न यरतने का प्रमाणपत्र 
लेना पडा। इसं प्रमाण-पत्र को उन्हे अपने नये कुक का बताना भी पडा। 
आप अपने अधीनेस्य कर्मचारी के सायं अच्छा य्यवहार करेगे खाने-पीने मे 
भेदभाव नर्तौ बरतने शस वात्र का विशवास आपको अपने अधीनस्य कर्व करने 
याले कुक या अन्य कर्मचारी को देना टोगा तभी यह आपका कार्यं कनां 
स्वीकार करेणा। इससे स्पष्ट है कि पाशवात्य देशो म मूर्यों के विकास तथा 
उनके स्थापित एने मं कितना अन्तर ह? 
नैतिक शिक्षा के साधन 

नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए निश्मकित विधिवा या तकनीक 
काम म लाई जा सकतौ रै 

सदैव विद्यालय का कार्यक्रम आरम्भ ने के पूर्वं शान्त एव सुरभित 
वातावरण में ्रर्थना-ईश घन्हदना करवाय। विभिन धमो पर आधारित प्रतिदिन 
प्रार्थना का कार्यक्रम आयोजित हो। इससे वालको वौ विभिन धर्मो के बि 
भे जानकारी मिलेगी। प्रार्थना के वाद एक-दो मिनिट का मौन रयिए- भच्वो 
से आग्रह कीजिये किं ये इस समय अपने अपने ईशर का एकाप्रधित होकर 
ध्यान कर स्मरण क्रं तथा प्रयत्र करं कि ये सर्वोच्य सत्ता एव प्रकृति मेँ 
लीन हौ जाये एकाकार ठौ जाय ओर इसं दुनिया के तेज के धरो से अपने 
को दूर्‌ ले जाकर परमात्मा के अस्तित्व से तादात्म्य स्थापित करे। प्रार्थना 
के साथ टौ नैतिक रिक्षा से सम्बन्धित कोई वार्ता या महान धार्मिक ग्रन्थ 
पर आधारित सारभूत ठषदेशो पर वार्ता वचा को मुनाय वार्ता म॑ छिपा मन्तव्य 
गम्भीर हां पर वर्यो को स्वीकार्यं रूपर्मे हो अर्थात भाषा एव विधा सरल 
लो कहानी या वार्तालाप के माध्यम से बच्चों के सामने प्रस्तुत कौ जाये। 

कहानी का वर्च्वो पर अनोखा ओर स्थायी प्रभाव पडता है । "सदा 
सच योलो। कहने का वच्चो प वहे प्रभाव नटी पडेगा जो प्रभाव सत्यवादी 
रिश्च कौ कहानी सुनने या नारक देखने से पडता है। इस प्रकार नैतिक 
मूल्या ओर जीवन को समस्या पर चर्चा करते समय विश्च के वडे-बडे धर्म 


युगीन शेशिक विन्तन/68 


से सी गई कहानियां की चर्चा क्ट्ना अत्यन्त सार्थक एव उपयुक्त हौगा। इन 
चार्ताओं के लिए सस्था प्रधान का या वयोवृद्ध शिक्षक या सटी अर्थो मेँ समाज 
फे कर्मठ कार्यकर्ताओं का उपयाग किया जाये । रषटूगान का जीवन मे महत्वपूर्णं 
स्थानं है। विद्यार्थी सिफ रषटगान लय के साथ गाने से ही परिचित न हों 
वरन्‌ चे शटरगान मे निहित अर्थ एव सहो भावना से भी परिचित हो। 
विनम्र प्रयास 

जव भी विध्यर्थ पानी पीने के लिए जलयगृह जाये या स्कूल बस 
मे चैठने का प्रयत करे तो उन्हें यताया जाना चाहिए कि पक्ति यनाकर जायं 
यासे यैठे। कही एसान प्तौ कि स्वस्थ छात्र कमजोर या दुबले पतले 
छात्र को धक्का देकर पीठे धकेल दे। इससे उनमें - "रथम आओ स्यान 
पाजो सुनृरलै नियम के पालने की भावना का विकास ्ोगा। ये अपनी 
यारी आने तक प्रतीक्षा करना सीपगे। इससे षे डाकषर से पोस्टेज आदि 
खरीदने का कार्य भी पर्छिवद होकर कटने के अभ्यासी वर्नेगे। 

विघार्थी जब भी कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता टौ या नाट्यं अभिनव 
षो यावन श्रमण के लिये विघालय की चार दीवार से बाहर गयेर्होतो 
उन्टे धैर्यं रखने को कहा जाए। उन्ह समञ्षाया जाय कि कोई सवाद पसंद 
न आने षर भी धैर्य से चैठिये। आपवो पिरोध करने का मौलिक अधिकार 
है पर आपके हौ साथी को भी अभिनय प्रसुव करने का आपकी तरह षौ 
समान रूप से अधिकार प्रात है। यदि आप अपने साथी के अभिनय की 
प्रशसा करके उसका साहस नहो बढा सकते तौ क्म से कम शाति से बैठियै 
इतनी सरिप्णुता सहन-शीलता तो आपमं आनी ही चाहिये। विघार्धिया को 
यह यताया जाना चारिए्‌ कि जो पर्ता या यस्तु उन दु खदायी है या पसद 
नही है या रुचिकर नटीं है जरूरी नर्टी कि वह रूस के लिए भी वैसी 
षीष्टौ यादु खदायी हौ। सक्षेप मँ शालीनतापूर्णं व्यवहार सीखना हौ नैतिक 
शिक्षा की प्रथम सीदी रै। 

“नैतिक शिभा दी नटी जाती यह तो पकड़ी जाती ₹।" सिद्वान्त 
के अतुसार स्वय सभी सदेष अपने दैनिक व्यवहार मे आदर्शं एव अनुकरणीम 
उदाहरण प्रस्तुत करे। सभी अध्यापर्कों का प्यवहार निष्कपट सरल एव निश्छल 
हो| कृत्रिमा पूर्ण न टो अनुकरणीय छो! विधार्थियो को कहने कौ जरूपत 
नहीं होती कि यष्ट कार्य करो या वह कार्यं मत करो। विचार्थो तो अपने 
अध्यापकों का अनुकरण करते ह अव॒ अध्यापकों को स्वय आदर्शं प्रस्तुत 
करना चाहिये नैतिक शिक्षा तौ हदय को शुद्ध करतौ रै अत॒ शिभा तो पाशविक 
सवेगो पर नियन््रण करना सिखाती है जौर अनुशासित जीवन क्रम का विकासं 


युगीन शिक चिन्तनं /69 


करती है। उन्ह सदैव सजग रहना चाहिये कि वे एसा काई कार्यं या ष्यवहार 
नके जो वच्यो के लिये अनुपयुक्त ्ठो। एेसा हाने पर शिक्षका के मना 
करने पर भी वालक उसं करना सौख लेग। 
जीवनियो द्वारा नैतिक शिक्षा 

महापुरपां की जयन्तियां को सास्कृतिक पर्वो रषट्ीय उत्सर्वो या 
त्यौहार को प्रभावी ठग से चिना किसी प्रकार का भेदभाव किये विद्यालय 
मे मनाया जाये सभी विद्यार्थियों को समान रूप से भाग लेने क प्रेरित किया 
जाये। महापुरुषा की जीवनिया के महत्वपूर्णं अश प्रभावी ढग से विदयार्थिया 
के सामने प्रस्तुतं किये जाये! इन जीवािर्यो भ॑ मटात्मा लुद्र॒ महावीर 
कन्पूशियसं सुकरात ईसामसीह रामानुत माधव मीरा तुलसी सूर मोहम्मद 
कयीर जोगेस्टर नानक गाधी विनोया आदि के नाम सम्मिलित किये जा 
सकते है ! इसी भाति गीता रामायण वेद पुराण कुरान ग्रथ-साहव बाईविल 
धम्मपद ओल्ड या न्यू टैस्टामेण्ट के अशोका भी प्रयोग किया जा सक्ता 
है! भूल वात यह टै कि सभी धर्मों की अच्छाई्या प्रस्तुत कौ जाये तथा 
सभी धर्मो की मौलिकं एक्ता पर आग्रह किया जाये। एक उदाहरण से यह 
बात ओर अधिक स्मष्ट हो जायेगी। 

एक बार स्वामी पिवेकानन्द प्रवचन कट रहै थे उनकी तेजस्विता 
विद्वत्ता भारतीय सस्कृति से प्रभावित टोकर एक अपेड महिला ने उनसे थघन 
चाहा कि वे उसका कहना मानेगे। विवेकानन्द उसका मन्तव्य जानने का आग्रह 
करत रहे। अत मं मिला ने विवश होकर कहा कि भँ आपसे विवाह करना 
चाहती ू। एेसा सुनना था कि विवेकानन्द भीचक रहे गये। तत्काल ही स्थिर 
पर गम्भीर हातं हुए याले- भ तो टुनिया से निर्लिप्त साधु ्‌। मे साथ विषां 
कनै से आपको क्या मिलगा? 

उस महिला ने बिना एक क्षण खोये तत्काल उत्तर दिया- मै आप 
जैसा हौ एक तेजस्वी पुत्रत चाहती 

एेसा सुनना धा कि वियकानन्द ने तत्क्षण हौ कहा- ठीक ह! आप 
मुले ही ओर अभी से अपना वटा मानिये। मुञ्ने आदेश दीजिये कि मै क्या 
करै? 

व्यावहारिकं नैतिकता का कैसा अनुपम उदाहरण है । विएले ही एसे 
उदाहरण व्यवद्यर मे दैनिऊ जीवन में देखने को मिलते हई । क्या इस उदाहरण 
से हमरे वचा के मस्तिष्क गौरव से ऊपर नही उर्ेगे? इसी भाति 25 दिसम्बर 
या जन्माष्टमी मनाने मे कोई भेदभाव नही किया जाना चािये। ईदुलपि्तर 
मनात समय भी सभी विच्ार्थियो को समान रूप से अवसर दिया जाना चाहिये । 


युगीन शेदिक चिच्तन/270 


प्रस्तुत विये जातं चाले कार््रमों म सभीको भाग तन॑ को प्ररिति फला 
चाटिपं। यदि शिक्षण सस्याभा सै आध्यात्मिक या नैतिक शिक्षा पृथक कर 
द तौ यष्ट शिक्षा ध्यवस्था भाएतोयता रिव हो जायगी । इसमे सन्दष्ट षी करी 
का तनिक भा गुकाइ्य नर्ते हं। 
देश भक्ति की प्रेणा- 

अनतर्पाय धर्मो के नैतिक मूल्या पर अधिकाए-यिष्राना चं भाषण 
कषान चाहिये । च धर्मो कौ मष्टा वातो कौ कटानियः के माध्यम स विद्चाधिया 
कै सम्मुख रख सकते हं । उष्व सार पर धर्म का सावभौमिक रूप तथा उच्चतर 
स्तर पर धर्म फे दर्शन या अध्ययत कराया जां सक्ता है! गिन नैतिक मूल्या 
कौ शिधा दनं फा प्रयत्न क्व रता पे यये धर्मो फे उपदशा मे 
निहित ह। पिद्वा्ना का चयन क्रतं समय इस मात का ध्यानं रखा जाना चाहिये 
कि विदानो फौ कथनी पथा कलो म न्यूनातिन्पून अन्तर ा। यदि एसा नो 
हओ तौ चिष्चा्थीं उनको पाण्डो समक्षग क्याकि विद्वान धमाचार्यजी णो कट 
श है ये स्वय यैता मौ कर रहे रै} विद्यार्थो ठो अयोध एव कौमल भति 
याते शवे ह। पेसौ स्थिति मेँ कथनी एव करनी मे अन्तर रणत्‌ वाते विष्ठा 
य भाषण पिद्ाधियां फो साभ कौ जगह यानि पटुचा सकते 1 यह या 
नाजुक तथ्य र जिसे दृष्टि से ओश्नत नहीं फिया जा सकता। 

अनर्ष्ीयता से ओतप्रोत दश भक्ति कौ याते प्रौ फे सम्मुप रखी 
जये। यहा यह ध्यानं रखना होगा कि यह अन्तरषटीयता अधदेशभक्ति मात्र 
यन कर न रह जाये। इसक लिए इतिस य पिभिप्र पत्राको चुना जा 
सकता रै वि इतिटास को मदद ली ज सक्तो है} विघालय) ओर 
मष्हपिधालर्यो मे इ्स उदर्य कौ पूर्ति के लिए सुरपिपूर्णं कपितार्ओ का लय 
के साध पाठ काया जा सकता है। भाषा की पाद्य पुस्तकों म सत~मात्मामो 
समाज सुधाक धर्मं के उग्राय के उपदेशो कौ सम्मिलित किया जाना 
चाधिये। इससे यच्यो म अपनत्व कौ भायना का पिवास गा सार्वजनिक 
सम्पत्ति कै प्रति लगाय-प्रम चैदा ोगा। कितना आश्चर्य है कि आज देश 
श्रम की किसी भी स्तर षर रिभा न्तं दौ जातो? 

देश भक्ति टौ अगे चलकर पशुद्र अन्तर्या म षदली जा सक्ती 
दै । अन्तरषटय तनाव अविश्वास धृणा एव शौतयुद्र कौ समाति के लिए इमका 
कितना महत्वपूर्ण स्यान है? इस पर ठण्डे दिमाग से चिस्वृत अर्थो म गह 
समग्र मानवता कै कल्याण कौ दुष्ट से विचार किया जाना चाहिये। आशव 
यह है कि वालव मे देश भक्ति श्रद्रा सास अनुशासन मानवद्रा के लिए 
प्रेम त्याग विश्च नागरिकता तथा सहिष्णुता जैसे गुणा का विकास किया जाए। 


युगीव शेकषिक चिन्तन71 भ 


उद्वैह्य यह हो कि विद्याथियो मे दश कं लिए हर सम्भव त्याय करने कौ 
भावना का तीग्रतम विक्रसष्टौ जौ अजकी रट निर्माण की दृष्टि सै प्रथम 
आवश्यकता है। 

-शिधा क ध्यवस्था इस प्रका कौ जानी चाहिये कि दंश फौ सामाजिक 
एष आर्थिकं आवश्यकतार्मो की पूर्ति के साथ ह विदयार्थियां की योग्यतां 
एव अभिवृक्तियो कमै प्रकृति प्रतत सीमाआ वक विकास मे यागरदे। अवकाश 
कै समय मे अन्तर्गर्यीय कार्य गोष्ठिया आयोजिते कौ जाये जष्टा रष्टय महत्व 
की रचनात्मक प्रायोजनाओ पर चिना किसी रग वर्णं लिग, जन्म स्थान जाति 
एव धर्म के आधार पर भेद किये सभो विदार्थिया को विचार विमर्शे के 
लिय अवसर मिले। देश मे वृद छात्रावास सचालितत किये जाये तथा उनम 
मेधावी त्रा को विना किसी भेदभाव के प्रवेश दिया जये। षे एक दूसरे 
के सम्पर्फ मे आयगे उनके दृष्टिकोण का समरेगे उनके दु खं दर्द के समय 
मदद कग एक दूरं के लिये त्याग करना सीर्खेगे जो समरसतापू्णं भौवन 
जीने के लिए आधार का कार्य कररगे। विदर्थिर्यो को एसी स्थितया भ्रस्तुत 
कनी चारिथे कि वे मानसिक शान्ति के साथ ससृत जीवन प्रि के उदेश्यो 
के साथ तादात्म्य स्थापित कर सर्के! 

भैर विधार्थी नवयुवको के लिये उपयुक्त मनोषिनीद की सुविधाए 
सुराई जाये। शिषण सस्थार्ओं से निक्ले एमे विधार्थियो के लिए साह मे 
एक दिवस स्थानीय महाविधालयो मे अध्ययनं कौ व्यवस्था पर पिचार किमा 
जा सकता है। 

नैतिक भूल्यो के विकास का भी सकैत तो नई शिक्षा नीति के 
दस्तावेज में किया गया रै1 राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसधान एव प्रशिक्षण परिषद्‌ 
ने 84 मूल्यो की एक तालिका भां तैयार कौ रै। राग्यों ने $सका अपनी 
आवश्यक्तानुसार अतुवाद भी किया है । मोरे रूप से इन मूल्यो भ॑ प्रजातान्प्रिक 
मूल्य व्यक्तित्वं का आदर, सहिष्णुता धर्मनिरक्षता रषीयता सहयोग सहानुभूति 
सामाजिक न्यास संबन्धी मूल्या को जोडा गथा दै7 

भारतीय पृष्ठभूमि मेँ एक महत्वपूर्ण मूल्य बताया जी सकता है 
ओौर वह है वं यावचृद्रो का आद युद्धो को सम्मान केवल दिघी की 
बसो मे टी देखनं को मिलता है अन्यत्र तो उसके दरशन कविनाई से ही 
ते है। बसा मे भी यह अकति है। भारतीय नौगरिक अपनी विधवा विनि 
या विथवा बुआ या भाभी या माता का पालन पौपण करना अपना पम एव 
सवाधिक महत्वपूर्णं कर्तव्य मानते है केवन इतना हौ नहीं बल्कि वे एसा 
करके प्रसतता- गर्वं अनुभवे करते हं। यहा प्रात्य सस्कृति की एक घटना 
का वर्णन करने का लोभ सवरण नहीं किया जा सक्ता। आज से 20-22 

युगीन शेकषिक चिन्तन/72 


वर्ष पूरं भी अमरौका मे उग्रशुदा लोग युद्धजन आश्रम में रहा करते थे। 
एक पिता को उनका एक पुत्र रथिवार छो घटी लगकर आश्रम से बुलाता 
है तथा प्रार्थना फे लिए अपनी गाडी से गिरजापर ते जाता ै। प्रार्थना पूरी 
ष्ठोने पर उन्ट पुन पृद्रजन आश्म मे छोड देता है) रस्तंम न यो बात 
न को युराल कषेम पृष्टा न पिदा के पषटोति्यो क फोई समाचार पृष्टना 
किसी प्रकार षी कोई यातचीत महीं यट है पाक्ात्य देशो में वृद्धा के सम्मान 
हेतु मूल्य। इस शिक्षा नीति मे युद्धो के प्रति यडे यूरो के प्रति सम्मान 
के लिये स्प कु नहीं क्त गया है। 

भारतीय सस्कृति के अनुसार साधु-सन्तों महत्माओ त्यागी पुरषो 
सथा उपदेशो कौ सम्मान दिवा जाता है। कट रै वटं भावना [मनोवृति] 
आज? जय महात्मा लोग याजार से निकलते ये तो श्रद्वा के साध सभी लोग 
खट टो जात धे राजा लोग अपना सिष्टासन छोडकर दूर खडे होकर ठँ 
सम्मान देते थे। आन न तो साधु सन्त दिखते ह तथा न टौ सम्मान कटै 
चाले नागरिक। 

भारत मेँ प्राचीनं समयसे ष्ठी पुरो का या महत्य रा है। उस 
समय कौ अर्थं व्यवस्था मे शटूपि टौ मुख्य व्यवसाय था कृपि मे पलिष्ठ 
पुरौ की हौ भूमिका महत्वपूर्णं होती थी ये शिकार भी करते थे। स्पष्ट 
टै कि इस कार्यं के लिये पुत्र ठौ अधिक उपयु रोते थे पुत्रिय उनकी 
गुलना मे कमजोर मानी जाती हँ पुत्र का समाज मे महत्व आय भी रै 
पर महत्य का आधार यदल गया टै तथा पुत्रियो को हीन या तिरस्कार की 
दृष्टि से देखा जाने लगा जिसका कोई ओचित्य नरह ₹ै। 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे एेसा वर्णन आता रै कि प्राचीनं भारत 
भँ ग्राम आत्मनिर्भर इकाई तै थे हो सर्वता है यह स्थिति आज से 200 
वर्प पूर्य भी रही हो) किसान खाधात्न तथा दाले पैदा कएता था सुथार उनके 
खेती के ओौगार वना देता या मरम्मत क्र देता था चमार जूते बना देता 
धा दी कण्डे सीदेता धा, सुनार जेवर वना देवाधा धोवी क्षे धो 
देता था लोहार मवश्यक्ता कै समय उनके ओर बो ठीक क्र देता 
धाया नये वना देहा था। सक्षेप मेँ गाद कै निवासियों की ह आवश्यकता 
यही पूरी टो जाती धो आवश्यकताए्‌ भो सौमित धौ। आम इस प्रकारके 
आत्मनिर्भर जीयन कौ कल्पना भी नही की जा सक्तौ । आज आवश्यकताए 
अनगिनतं हो गई है। अर्थशास्व के एक सिद्रान्त के अनुसार तो विकास के 
लिए आयर्वकठाजों मेँ वुद्धि आवश्यक है। पर ये अनन्त तथा असख्म 
आवश्यकम्‌ मुप्य कौ कहा रो जयेगी? क्या इस दृष्टि से कुछ भी सोचे 
जनि की आवश्यकता नहीं है? 

युगीन शेदिक चिव्तन/73 


प्राचान भगत मे गायो मेँ क्म वटी कौ शादी हं जने पद पूप 
गाय उसकी सुरक्षा को अपना जिम्मेदारी मानता धा उसको पूर गाव कौ 
चेटी माना जाता था; उसकं प्रत्येक सुख दुख म घ॑ समान भागीदा हाते 
ये एस समय वं जाति वर्णं धर्म आदि पर काई विचार नर्टी क्रते थै! 
इतिहास एसं उदाहरण प्रस्तुत क्त्वा हं फं कभी किसां वेरी पर्‌ आपतति क 
समय पौसी या गाव कं अन्य नागरिक जान की याजी लगा दते थे कत 
ह वट विचार्धारा- कटा है एेसी मनेवृच्चि? आश्चर्यं तव हाता है जव गाव 
तो दूर पडोस कवः लागी दटिन्दे यन जाते । 
सामाजिकं सगुथन 

"मव भी कोई व्यक्ति गाव से निकलता तथा सध्या या रात फा समय 
येता तो ग्रामीण उस वीं ठहर जाने का आग्रह काते थे। उन्टं कष्टन 
षटोने तथा ईंसियत क अनुसार भोजन प्रस्तुत के का भी नियदने करते थे। 
आज स्थिति यह है कि आप कभी किसी से किसी जगह जाने के लिए 
रास्ता पृषे तो आप तो व्ही खटे र्ट जायेणे तथा उत्तर देने वाला विना उत्तर 
दिये 10-12 कदम आग वढ़ चुका छोगा। वास्तविकता यष्ट टै कि आज जीवन 
यडा स्यस्त हो गया है तथा आदमी अपने आप मे कन्दति रोता जा रहा 
है उसे दूसए से कई मतलय ्टौ नटीं रै। आप किसी कं या रत्नि यिताने 
की यात कै तो आपको धमशाला या विश्रामगृह का रास्ता बतायगं ! इसके 
दूसरी ओर पुरातन समाज के सुगथन का एक उदाहरण देखिए+ चालीस पचास 
पर्प पूर्वं तके समाय में जव कभी मृत्यु या शादी-वियाह का अवसर आता 
तो आदा दाल वेसण कौ पौषी या मुहघ्रे के सभी वडे-वृटे लोग मिल~ 
नैठकर्‌ व्यवस्था कर लेते। सन्ध्या मे सभी वस्तुए्‌ वाट लेते तथा भ्रात पीसकर 
वापस ठीक स्थात्‌ षर पटुचा दैते। चकि उस वक्त आटा पीसत की चकी 
हर्‌ गाव मँ नर्टी पटुची थी । सब काम ठा गया ओर क्रिस को कौई शिकायत 
नर्ही। इसी भाति गावा मे शादी के समय पडौसी कषटडे सिल देतै- यह कार्य 
किसी एक परिवार का नहीं बल्कि पूरे गाय का माना जाता। कितना जुडाव 
कितनी निक्टता थी उन दिनो गार्वो मे? 
जीवन मे सहयोग क्छा स्थान 

सटयाग-सहकार सामूहिक जीवने का महत्वपूर्णं अग था! इसका 
जीता-जागता उदाहरण यो वठाया जा सक्ता है- जव किसी परिवार मे कोई 
मृत्यु दो जातौ तथा परिवार कौ आर्थिक स्थिति कमजोर होती ता सम्बन्धौ- 
रि्तदार एव आसपास के मिलने वाले गभी लाग कवल शोकं वताने ही 
नहीं आते वरन्‌ अप्त साथ आय दाल घी वेसण गुड तथा दलिया भी 


युगीन शेदिक चिन्तन/74 


आवश्यकतानुसार लकर अते दुख म हाथ वटाते सामूहिक भोजन तैयार 
होता तथा मिल-यैठकर प्रसाद पाते। आगन्तुक विख के पूर्वं मुखिया सै 
आग्रह क्रते कि दुख भूलिए, ईश्वर को एमा प्तं भतुर्‌ था तथा अपने दैनिक 
कार्यं को जीविका को सम्भालिये। एेसो परम्परए्‌ आज भी देश के विभि 
भागो या पयतो के चरणो मेँ वसे आदिवासिया म पाई जातौ है! जिन्टं हम 
गली अनपढ तथा पिष्ट लोगा की सज्ञाआ से पुकार है। पर क्याये 
लोग मानवता की कसौटी पर हम पढ-लिख या साभर [शिक्षित नहीं] सभ्य 
क्त्लाने वाले लागों से ज्या अच्छं नरी ह? निश्चयी यं सहो अर्थम 
शिक्षित है इन ग्रामीणा के जवन मं कोई वनावटापन नहीं छल या कृत्रिमता 
न्ती न छ्यूठ फा सहारा एक समानं व्यवहाः। क्या उन ताग का सहयागां 
जीवनं हम तथाकथित सभ्य ठथा शिक्षित लोगा कौ अपेक्षा कही अधिक उच्च 
एव अनुक्रणीय प्रेणौ का नलो है। 
वैयक्तिक वियारधारा का विकास 
हमरे पीस मं कौन रहता है? आत टमं यह मालूम नही 

है। कौ किसीफेदुखदर्दम काम नटीं आता उसे अपने कार्यीसेषही 
फुर्मत नटी है। एक समय धा जव पष्ोस मं कौई शादी रै या मागलिक 
उत्स है तथा किसी के यत्त कोई मृत्यु हो गई ट तो एक निधित अवधि 
तक माना बजाना नहीं होता था! सदि पधवारौ पूज कर आरहेर्हतोषएक 
निश्चित सीमा तक आनन्द या विनाद का कार्यं नर्टी हाता अर्ति ढोल नगरे 
या वैण्ड नटीं यजयेरगे। कितनी निकटता धी उस वक्तं कतिना लगाष था 
लोगो भ ओौर आज उन्ं यात करने की भौ फुर्सत नही हे। 

पौसी के साथ वैसा व्यवटार करना ह? रोगी के माथ वैसा व्यवहार 
कला टै? यह मोटे रूप सं यटौ सामाजिक धमं माना जात्रा था। यह सामाजिक 
दासित्य हौ मानव धर्म था! आज स्थिति यह है कि मानव धर्म का निर्वाह 
तो दूर्‌ आत्तके कैलाया जाता है अपहरण किया जाता है विमा रोकं जाते 
है वसं लूटी जाती ह घटिया जानलेवा दवाह्या बनाई जातौ 1 स्पष्ट टै 
कि मानय धर्म या सामाजिक धर्मं आकाश वुसुम जैसा टौ गया है। 

भारत म मानव ने प्रकृति यो सदैव हौ सहचरौ माना है उसं अपने 
अधीनेस्य कभी नही माना। पर आज भानव विज्ञान के विभिन साधनों सं 
परकूति पर्‌ विजय पा लेना चात रै \ श्या यह्‌ भयरतीय स्प्कृति केः प्रतिकूल 
नही है? आज यदि काट आदमी पडो की रक्षाक्रताहै परौधोंवो पानी 
दत है काटता नटी है तो आदमी एेसा करके पेडो पर कृपा नही कर रहे 
है। महत्वपूर्णं यह हे कि एेसा करके आदमी प्रकृति क साथ अपने ही 


युगीत शैक्षिक चिन्तन/75 


सहअस्तित्व की सुरक्षा कर रहा हं वह अपने जीवन कौ सुरक्षा कर रल 
है। मनुष्य कौ यह स्पष्ट समञ्च लेना चाहिए किं मनुष्य कौ पिना सहायता 
क भी पेड-पौधे परशु, पी प्रकृति जीवित रह सकते है पर यदि भानव 
इनक सुरक्षा करता है ती एसा करकं वह अपनी स्वय कौ सुरक्षा की गारटी 
कर्‌ रशा है अपने सुख सुविधायुर जीवन की व्यवस्था कर र्दा रै! 
ब्रह्माण्ड पर भी रस्तक्षेप 

आज मनुष्य ब्रह्माण्ड तक पटच गया ह॑ वेह वहा भी छेडथाती 
कर दहा या शाश्वत नियमो मे दल दे रषा र। क्ट सार्षभौमिक या 
सर्वव्यापी नियम व्यवश्थाय मनुष्य को अपने सकु चद स्वार्थ के कारण रस 
न्त आ र्यी है या मनुष्य उन्हे उपयुक्त नही पा रह ह॑ यह उने परिवतेन 
चाहता दै उनमे परिवर्तन होगा या महौ इसके लिए तो निश्चित स्प से 
कुठ कहा महीं जा सकता पर वह अप प्रयत्नो मे कोई कसर नहीं छोड 
रा है। वहे र सम्भव प्रयत क्र ब्रह्माण्ड षो भी अपन वशार्मे काना 
चाटता ै। 

-यह स्मरण रखना चारिए किं नैतिक रिक्षा के उदेश्या मे कोई अन्तर 
स्पष्ट न दोणा पर नैतिक शिक्षा अध्यापन कौ ष्यवस्था के क्रियान्वयन मे 
महत्यपूरणं अन्तर दिखाता टी इसकी सफलता है 1 ककषाध्यापन कै समय ययिं 
इन कतिपय सुक्ञाधः पर ध्यान दिषा णया तो प्च॑तिक शिक्षा कै फलितार्थ स्यषट 
दृष्टिगोचर दोगि। नई रा्ीय शिष्पा नीति केः क्रियान्वयन अधिकारियो षो चादिए 
किं क्रियान्वितं के समय भारतीय सास्कृतिक मूल्य उनको आख से ओश्चल 
नष्टौ जाय॑। तभी बालक का सही मानवके रूपे विकास हो सकेगा! 
इस प्रकार यदि दश वै भावी नागरिको को सही रूप मेँ नैतिक रिक्षा दी 
ग तो देशं में प्रसन्नता उज्यल भविष्य चरित्र व्यवहार सम्पन्नता विश्वबन्धुत्य 
की भावना श्री वृद्धि एव एक्ता अग्रसर हागी। 

(४। 


युमीन शैक्षिक चिन्तन/76 


मूल्यो का मापन ओर मूल्याकन 


वालको भे मूल्य या वृत्ति विकाम की मात्र पपर पेन्सित से परीक्षा 
नरह तां जा सक्तां। यदि एेसा किया गया तो यह कयत सूचना प्राति की 
परीभा ठाणी। अत्त परीक्षा कौ अन्य विधिर्यो यथा-अनुसूची आत्मकथा 
समाजमित्ि घटनावृत मान निधारण सामाजिक दूरौ मापन तथा क्रियात्मक 
परीक्षा आदि का भी सदारा सेना स्ेगा। अध्यापका के निर्णय उन्न सम्मति 
उनका वस्तुनिष्ठ एय पापात रहित अवलोकन भी महतपूर्णं है तभी मूल्याकन 
कौ अधिके विधा क साथ स्यीकारा जा सस्ता है। मूल्य विकास फे क्षेत्र 
मे विधार्थिया की निर्योग्यताआ का पता लगा फर उन परं व्यक्तिगत रूप से 
से अधिक ध्यान दिया जा सक्ता हे। अस्तु, हम स्य्टत॒ जान सकेगे कि 
किसी एक विरिष्टं मूल्य कै मूल्याकन म एक या एक से अधिक तकनीक 
या विधियो को काम मे लिया जा सक्ता है। इसी भात्रि एक तकनीक या 
साधन एक से अर्धिक मूल्यों के मूल्याकन रतु प्रयोग भँ लाया जा 
सकता है! 
मूल्याकन के उदेश्य 

मूल्याकन किसी भी क्षेत्र म किया जाये उसकं कुष्ठ स्पष्ट उदेश्य 
हाते ह । अध्यापक कुछ उद्दश्य नि्ित क्रक मूल्य शिभण करता है । मूल्याक्न 
कै छाग वह यह जानने का प्रयास करता है कि अपनी उदेश्य-प्राषि मँ उसे 
किसं सीमा तक सफलता मिली है । यह भी कि उसे अपने शिभण के मूल्याकन- 
कार्यक्रम भे कहा सशोधन करना वानीय है? प्र कौ कं एव किस स्थल 
भ्र पिवशता रही है ! इसकी कविनाई क्या ह > अस्तु, अध्यापक अपने पिद्याधिया 
कै सबथ मं अपेक्षित शान प्रास कर उनका उपयुक्त मार्गदर्शन कर सक्ता 
४ एव स्यं वार निर्धारित कार्यक्रम मे सशोधन एष परिवतन ला सकता 

1 
श्म अनुच्छेद कौ पटकर आप 

~ मूल्या के मूल्याकनं की विधियो प्रविधियों तथा साधनो को जन सर्वेगे। 
~ किसी पिशिष्ट मूल्य के मूल्याक्न हेतु अधिक सक्षम यन सकेगे। 
~ विभिन्न मूल्या के मूल्याकन रतु सर्वाधिक उपयुक्त विधि साथन या तकनीक 


युगीन शैक्षिक चिन्तन 


का चयन कर सकगे। 
निष्क्पत निप्राक्ति दाष्ेतरा में कार्यं क्या जा सकगा- 
~ मूल्याक्न म मुधार-सदाधन कौ नई वकनीर्को का प्रयाग पाट्यक्रम म 
सुधार तु सुक्नव। 
= विदयर्थियां क आचरण म आई श्रुटिया छा आकलन एव उनका समुचित 
मागदर्शन। 
क्रिया कलाप प्रेपमचन्द की कहानी पर आधारित नीचे लिखा अंश प्द- 

र्ासत दवगद फे लिए नय दावान का चयन फटा था। रागा 
सारिय ने यह कार्य दीवान को टौ सापा। रि पद फे विज्ञापनं कं उत्तर 
मे प्रा अयेदन पत्रो में से कया वो साधात्र के लिये वुलाया गया। 
साक्षात्कार कईं दिन चलना था। अत उनक रहने कौ व्यवस्था कौ गई! उनका 
आचरण दृष्टिकोण विचारा खलते खाते सोते उठते-वैटत-याव काते 
समय दख कर्‌ उपयुक्छ प्रत्याशी का चयनं करना धा। प्रत्यारी खल-ठेलवर 
लौट रटे थे। सध्याम नाते में एक गाडी धस गई- एक ता गाडी मे अनाज 
अधिक भरा था दूसर वैल क्ममोर थे। अत वैल गाडी को नाले फे ऊपर 
लेजान्हीपा रह धे। इसलिर्‌ गी पाला यह आशा क्रर्ाथाकि 
गाटी को माला पार कराने मे कोई उसी मन्द कर दे। चिलाडौ एक~ 
एक करके नाला पार कर अपने गन्तव्य स्थान पर पटुच रषं धे। इसी बाच 
उसमे से एक खिलाडी स्का कथा गाडी वालं से यैलो फो साधने की क्हा 
तथा स्वय नाले म कोचड मे उतर कर परिए्‌ को गोर से धुमाक्र ऊपर 
चदाने का प्रयत्र किया तो गाडी नाले के ऊपर थी। 

गाडी वाले छा चेहरा प्रसतता से चमक रा था कि "आपने सद्ययता 
नकी ष्ाती तो सभव है रात यौ रटना पडता! भगवान ने चाहा तो अपि 
ही दीयान बने।' 

यहा सु वातां प ध्यान दिया जाना चाहिए! अनाज से भरौ गाडो 
नाले म॑ गाडी का फसना एक-एक कर चिलाडियो का नाला पार कर तेना 
गाड़ी निक्लवाने का अआगग्रट करना कीच भें उर कर गाडी को नाते पर 
चदवाना। ये सभी घटनाए बहुत छोरी ह॑ पर मूल्यो फे भूल्याकन कौ दृष्टि 
से महत्वपूर्णं है। इस छाटौ सी घटना मेँ दसो के लिए विचार, सरिष्णुता 
सहायत्रा सदानुभूति आदि मूल्य स्वत स्पष्ट टो जाते ह । थोडा ओर वारीकी 
से विचार करने पर श्रम कौ महत्त का मत्य भी उजागर होता है। 
क्रिया कलाप 

~ मूल्याकन करते समय आधार सामग्री को लेकर विचार कीजिए! 


युजीन शचैिक चिन्तन/78 


आचार्य द्रोणाचाय कौ परीक्षा- व्यवस्था सवधी उदाहरण षदे - 

आचार्य द्राणाचायं एक यार पाण्डवा कौ परोक्षा लेने क लिए उन 
जगल मेँ ते गयं। वहा एक पड को ऊंची डालां पर एक चििया रख दौ। 
परीधामें छत्रो को चिखिया कौ अख कौ पुत्तलौ छेदनी थो। आचारय द्रोणाचार्य 
क पून प्र छात्र वताते रह कि उन्हं चिडिया दीख रही रै पेड की डालिया 
दावरी पडसे प आराश भी दीव रहा टैपड मे दूर आग खत 
मे चरती हई माय भी दौखर्टी रै धर पर थालो मेँ परेसा हुआ खानां 
दीय रहा है आचार्यं दीय रटे ह । अर्जुन फे सिवाय चारा भायां से एसे 
उत्तर पाकर द्राणावार्य ने उन्हे परोभा में अनुतार्णं घापित कर दिया। अव 
अर्युनकी वारी थी द्राण ने इसी प्रकार के प्रशन अर्जुन सं भी किये। असुन 
नै यताया- कि उस्रं केवल आंख षी पुतली दीख रही है) चिषियातो रुर 
उसे चिषिया को आँख भो नही दोख रही ट । इस प्रकार अर्जुन परीक्षा मं 

निघ्राकिति विन्दु ध्यान यींचत॑ं हं- परीक्षा की व्यवस्था सामूहिक 
परीक्षा जगल मे ले जना एक-एक को बुलाना परीक्षा मं अतुतौर्णं टना 
बताना आघार्य का अप्रसत्न न हाना त्रो को स्वीकार करना अर्गुन की 
परीक्षा तेना चही प्ररत अनुन की एकाग्रता प्रयत्ना का केद्धित होना ओर 
अर्जुन को परीक्षा मँ सफल योपित करना 

यह घटनादृत्ं छटा ठो सक्ता ह पर मूत्याक्न के क्षेत्र मेँ मुस्तं 
मूल्य षिकास कौ दृष्ट से महत्वपूर्णं स्थान रखता है । वार-वार यष्टित उत्तर 
नपान पर्‌ भी आचार्य जी द्वारा क्रोथ न कना एताश नोना छत्रा को 
प्रात्सारित करएना तथा अर्जुन वी एकाग्रता जीवन मूल्या कं विकास कौ अभूतपूर्वं 
परख ै। यहा आचार्य जौ का धैर्य गुण स्वेदनशीलता अथवा विदर्भा 
के प्रति ममत्व भी स्मष्ट दृषटिगाचर हाता रै! साथ ही अर्जुन क व्यक्तित्य 
म निहित एकाग्रता गुण को भी नीं भुलाया जा सक्ता1 
क्रिया कलाप 

उदाहरण को पट कर उससे विकसित होने वाले मूल्या कौ पषटचानिए्‌। 

अध्यापक मात्मा गाधौ को आत्म कथा- 'सत्य क प्रयाग॒से सवपित 
अश कक्षा मे पेँ-(सार नीचे दिया गया है) 

एक बार विधालय निरोक्षक विद्यालय का निरीभण करने अये। 
निरोक्षण कै समय उन्होने विचार्थियों षो श्रुवलंख लिखयाया। एक त्र नै 
श्रुतलेख म॑ अग्रजी के एकः शब्द *कटल' की वर्तनी गलव लिख दी। यह 
यात विद्यालय के प्रधानाचायं कां अनुचित लगा तथा उन्ट निगक्षक कौ टार 
फटकार कौ भी आशक्ा हइ ओर वे इसस वचना चाहते थ। अत॒ कमा 


युगीन शैशिक चिन्तन/79 


मे धूमकः पर्वेक्षण करते समय उन्होन उस छते कौ पाव के अगूढ से 
सकेत क्रिया क्रि वे आगे सामने वैडे छाग कौ उत्तर पुस्तिका देखकर गलत्‌ 
रतनी को महौ क्एले। पर त्र ने एसा नहीं किया। आप जानते ह वह 
बालक कौन था? 

विद्यालय का निरीक्षण श्रुतलेख लिखवाना वर्तनी गलत लिखना 
प्रधानाचार्थ द्वारा नक्ल करने का सफेत छात्र द्वारो उस संकेत पर ध्यान ने 
देना। 

यह घटना सामान्य टोते हुए भी परीक्षा कौ पवि्रता वनाय रखने 
चा सकेत करती है। परीक्षा मे अनुचितं सथन नटी अप्नाना चाहिए~ छात्र 
सेस्ययवो धोखानदेने का आग्रह क्एता है। 
उदाहरण को ढक्र उससे विकसित टोने वाले मूल्यो को पहचानिए। 

"नियमितता ' गुण के मूल्याक्न हेतु अध्यापक द्वार मापन (रेिग) 
इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सक्ता ह! 
अन्य कार्य कलाप- 

सस्थिति विद्यालय जाते समय आप रस्ते म हौ चेतावनी की घरी 
सुन लेते हं-आप जो व्यवहार करना पसद करे उसे चिदित कीजिए - 
~ दौड कर विद्यालय पहुचने को प्रयास करना। 
~ साईकिल पर जाने षाले मित्र से स्ययकोले जने का आग्रह कंरना। 
~ रस्ते म किसी मित्र की सहायता करने का बहाना वनाना। 
~ कारण पूषन पर घरे से ष्टी देर से चलना वताना। 
~ पुने पर यह कना कि सभी कौन से समय प्र आते रै । 
~ पूषन पर देरी से आना ही स्वीकार नर्द कए्ना। 
~ घटी की विना परवाह किये विद्यालय देर से पटुचना। 
~ घर लौट जाना। 

ये सम्भावित उत्तर गम्भीरता की दृष्टि से न्यूनाधिक रूप मे दिये 
जा सकते ै। नियमित बनने के लिए प्रथम उत्तर अत्ति महत्वपूर्णं है जयकि 
अरत्तिम उत्तर निकृष्ट। अन्य सम्भावित उत्तर इन दाना के मध्यमे है। 

सेवा भावना सहायता सवेदनशीलता के मूल्याकन के लिये स्थित्िजन्य 
परोक्षण द्रष्टव्य ह 

सस्थिति-स्वूल जते समय एक रोगी सडक पर पडा कराह रहा 
है अपनी पसन्द के कार्य- व्यवहार को चिहित कीजिए - 
~ बडबडायेगे कि बीमार होकर सष्टक पर आ जाते है। 
~ जिना ध्यान दिये आगे वढं जार्येय। 


युजीन शेषिकं चिन्तन/80 


~ विद्यालय से लौट कर उसके बारे म पञताछछ करेगे! 
~ अन्य गाहगीर से उसको चिकित्सालय पटुचाने के लिए कषगे। 
~ सर्वप्रथम उसे चिकित्सालय पहुचायेगे 
॥ यहा यह ध्यान दिया जाना चाहिए किं यह परीक्षण-पद एक से 
अधिक मूल्यो का मूल्याकेन करता ह । यहा यह भी ध्यान देने योग्य है कि 
ऊपर के दानो परीक्षण पदा मे सम्भाविते व्यवहार एकं दूसरे के विपरीत क्रम 
से ह। भ्रथम परीक्षण पद में प्रथम उत्तर सर्वोत्कृष्ट स्तर पर जाचा जा रद 
है। दूसरे परीक्षण पद मे अत्तिम सभावित उत्तर सर्वाधिक अपेत हे। यहा 
यट भी ध्यान दिया जाना चाटिए्‌ कि सभावित उत्तरं को 123 कौ भाति 
स्मा से अभिहित नर्त किया रै- इससे भी विधार्थिया को प्रद सापान का 
सेत मिल सक्ता है- अत॒ इससं भी वचने का प्रयास किया गया है। 
क्रिया-कलाप 

धैर्य- सरिष्णुता मूल्य के मूल्याकन हेतु निप्नाक्ति पद पए भौ टि 
डालिए ~ 

कल परीक्षा है तथा आप आज पुस्तकालय जाकर पुस्तके मागते 
ह तो पुस्तकालयाध्यक्ष कहता है कि पुस्तके ता अन्य छात्र के नाम चदी 
है। आपं द्वात किये जाने चाले कार्य-व्यवहार को चिदहित कीजिए- 
~ पुस्तकालयाध्यक्ष पर प्रोध करगे। 
~ रिजर्ष-ग्रति से वर्टी वैठ कर षेणे 
~ पुस्तक सेने चाले का नाम तथा पता जानना चादेे। 
= यिना तैयारी के परीक्षा देने का मानस यनारयेगे। 
= पुस्तफ फी प्रापि का स्थल जानकर पुस्तक खरंद लगे। 
क्रिया-कलाप 

श्रम कौ मत्ता या निष्ठा के मूल्याक्न का पद दयिये- 

वृक्षारोपण के लिए खड्डा खोदना हं। नीवे लिखे सभावित उत्त 
प्र क्रमश याये हाथ कौ ओर पिये कोष्ठक मँ क्रम सष्या लिखिये- 
( ) दत्वा स्वय खड्ढा खेदेग। 
८) अपने सादी क्क्षाके ्टत्र फा बुलाक्र उसमे खर्ढा गुदवायेगे। 
( ) खड्डा खादनं का काम चपरास्रां वो सौषने क लिए उसे युलायेगे। 
८ ) पानी कौ कमी यदक्‌ रुक्ष लगाना येकार यवारयेगे] 
८ 9) लापरवादी सं वृक्षारोपणय का क्यं यल देे। 


ऊपर क उत्तर सकारत्मक रूप स प्रमानुसार न्वि गयं हं। 
क्रिया-कलाप 


युगी शैशिकं चिव्तन 81 


उदेश्याधारित कार्य-सपादन का मूल्याकन इस प्रकार भी किया जा सक्ता है- 
गृह कार्य हरं दश म समय पर जाचना ही चाहिए! जो कथन 
सवाधिक रूप से आप प्र लामू हो उसे चिहिव कौजिए। 
1 सदैव 2 अधिका अवस पर 3 यदाक्दा 4 सभव होने पर 
5 कभी-कभी 6 कभी नर्द 
क्रिया-कलाप 
बड़ों के प्रति आदर कं मूल्यांकन देतु एक परीभण पद दव्य है- 
पिकनिक के लिए जाते समय वस में आप जिनह जगह दग उस 
उत्तर का विदित कौजिए- 
~ शिधक को 
~ अपनी ही क्भाकीष्त्रा को 
~ भोजनालय कं सेवक को 
~ वरिष क्क्षाकं छात्र को 
अपनी यारी से बस में प्रवेश कएने वाल प्रथम व्यक्ति को 
मूल्याकन कं पक्ष-विपक्ष देकर पता लगाह्ये कि उसमे किन मूल्यों 
की उपेक्षा हुई ै। नीचे एक अनुसूचौ प्रस्तुत का जा रही टै। सके जो 
कथन आप पर लागू हों उन्दें वायी आर ( ) चिदिते कौजिए- 
~ समय पर गृह कार्य जोचना 
~ भ्रमित वालक का भार्ग दर्शन करना 
~ समय परर वक्षा म पहुंचना 
~ यरूएतमद टात्र कौ मदद करना 
~ प्रार्थना सभा मे दिनभर के कार्यक्रम की जानकारी देना 
- कक्षाक्क्ष मे छात्रो से फर्नीचर न तोडने का आग्रह करना 
= बस कं समय पर विधालय न पहुंचनं कौ आशा कलना 
~ निर्धन छत्र वौ अवकाश के समय वगीच म कार्य करवा कर्‌ 
सहायता देना 
~ छात्रा क॑ जल-मृट से पच्छ यनाकर्‌ पानी पीने का आग्रह क्लां 
~ मीराके पद्य वौ लय करे साथ गाने का आग्रह करना 
~ बौमार छात्र को चिकित्सालय पटुंचाना 
- सहभाज कं समय पहते छत्रा कां भाजन करवाना 
~ नल से व्यर्थं बहते पानी पर ध्यान न देना 
~ सर्दी मं भी पखे चलाना 
- ष्टात्री से चिडकियो के शीशे साफ़ करवाना 


युगीन शेदिक चिन्तन/82 


इस प्रकार क ओर भी कयते जोड जां सक्ते ₹। 

मूल्याक्नं एव पुर्नमूल्याक्न द्वार पुष्टि कातिए। 
अन्य क्रिया कलप 

कभी कक्षा में श्रुतलख तिखवाइये। उसका विना किसी प्रकार का 
चिद लगायं मूल्याक्न काजिरए। छत्री की अशुद्वियां सूचीवद्व कर ताजिए्‌। 
भव इन्हीं श्रुते कौ उन्टी छर््रो से चवाश्ये। दिये मूल्याकने मे कोई 
अन्तर आया है अथवा नर्टी। 

इसी कार्य को कभी स्वय जाचनं कं वाद छात्रो एरारा अदल-वदल 
कर जचवाया जा सक्ता है। देखिये क्या इस प्रकार के मूल्याकन मे कीर 
अन्त आया या नही। इससं छात्रौ की ईमानदार या धाद्या देने कौ प्रवृति 
का मूल्याक्न किया जा सक्ता ह। 
भुक्त अभिव्यक्ति 

वु वियादम्यद विपथं पर वालकं को वोलने-लिखने का अवसर 
दना चाटिए। रेते विपर्यो पर भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित 
षा जा सक्तां है-उनसं लख लिखवायं जा सक्तं है! भाषण सुनकर या 
लंख पटक उनका मूल्याकन किया जा सकता है -एसं पिप्यो मेँ उनका तर्क 
शि स्पष्ट दीखती र । भूमिका निर्वहन (रोल प्तेक्षग) विधि मे षे युलकर 
योलना पसद करते ह। एसे विषय हो सकते हं-आरक्षण शुआदूतं पमा 
समस्या जाति-प्रथा दषेन आदि। इन्हीं विषयों पर लेख के रूप मे मुक्त 
विचार भी लिखवाये जा सक्त हं। लिखित अभिव्यक्ति को पठकर उनके 
नोभा का पतां लगाया जा सक्ता हे ओर विकसितं मूर्तयो को जात किया 
जा सक्ता है। 

उपर्युक्त सामग्री को पढने के वाद हम मूल्याकन कै उपकरण 
साधन तकेनीक या विधियां की सूघौ भी वना 

अनुसूची मान निर्धारण मापनी निरोक्षण अवलोकन निष्पादित करं 
कौ जाच आत्मकथा डायरी घटनावृत्त अभिलेख सचयीवृत चैकलिस्ट 
समाजमिति तथा सामाजिक दूरौ मापन मूल्याक्न सवधी उपकरण है। 
प्यावहारिकता- 

मूल्याकन के इन उपकरर्णो को कक्षा मेँ सामू्िक रूप से प्रयुक्त 
क्रिया जा सक्ता टं। इसके अलावा वैयक्तिक रूप से भी इनकी प्रतिक्रिथा 
इन उपकरणा द्वारा जानी जा सकती हं । यह कार्यं निर्धारित उदेश्या पर निर्भर 
करेगा। यदि किसी विद्यार्थी के किसी य्यव्यार का गहनता से निरीक्षण कर 
उसके बारे म निर्णय लना ठो यह भी सभवटै कि निरीक्षण कौ दहना 


युजीन शैदिश्क चिन्तन /83 


पडे अधवा परीक्षण का दूसरी वार भी आयोजन टौ। 
भूमिका निर्वहन प्रेषणीय विधियो म से एक है। भूमिका निभाते 
समय छत्र कौ क्या स्थिति रही है-ईस पर विवक से वस्तुनिष्ठ निर्णव कर 
छात्र के कार्य व्यवहार का मूल्याकन या वर्गीकरण किया जा सक्ता हं। 
अब यष्ट अनुमान सहज हौ लगाया जा सक्ता ह कि कौनसी विधि 
या तकनीक किस मूल्य के मूल्याक्न में प्रयोग की जा सक्ती दै- 


पक्ष^अंग मूल्याकनं के लिए प्रस्तावित 
साधन या उपकरण या तकनीक 
~ षान या सूचना कौ जाच निवधात्मक तथा वस्तुगत परांक्षण-इन 
परोक्षणा कं पूरक रूप म॑ मौखिक 
परीक्षा 
~ विद्यालय एव विद्यालय के कार्यकलापों का निरीक्षण अवलोकन 
चाहर कौ यैयक्तिकि एव (सट-भागित्व युक्त तथा 
सामूिक गतिविधिया। सहभागित्व रहित) 
~ प्रवृत्ति विचारधारा दृष्टि- निर्धारण समाजमिति छात्र द्रारा लिखे 
कौण वृत्ति धारणा रुचि गये वृत्त अभिलेख आत्मकथा खायरी 
अवधान आदि निर्धस्ण आदि का अध्यापक द्वारा निरीक्षण- 
अवलोकन 
~ शारीरिक विकास स्वास्थ्य बालक द्वारा सम्पादित कार्य की 
क्रियात्मक परीक्षा 
मूल्याकन- 


1 ^मूल्याकन' के मुख्य कार्य बताइये 1 

2 मूल्यो का भूल्याकन अन्य पाठ्य विषया के भूल्याक्न सै किस 
प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिये। 

3 श्रम के प्रति निष्ठा के मूल्याकन हेतु श्रेष्ठ विधि (कारण सहित) 
वता्ये। 

4 सहिष्णुता गुण के मूल्याकन हेतु दो पदो को रचना कीजिए! 

5 बालकौ मे विकसित सामाजिकता के मूल्याकन का कार्यक्रम 
सुज! 


युजीन शैषिक चिन्तन/84 


6 प्रेमचन्द की आप द्वारा पठी अन्य किसी कहानी मे उजागर हुए 
मूल्यो की सूची वनाडये। 

7 अवलोकन कीजिए तथा वताइये कि निम्नाकिते स्थितियो मे किन 
मूल्या का विकास वालको मे नटी हुआ रै- 

~ शुल्क जमा कराते समय पक्ति न यनाना। 

~ पवंत्ारोहण के समय फ के रेपर व्ही फक देना। 

~ एतिहसिर महत्व के स्थानो पर अपना नाम लिखना! 

~ जन्माष्टमी मनात समय कुष्ठ छार्रो का पलायन कर जाना। 

~ पुस्तकालय की पुस्तकों से पसद आए चित्रो को फाड लेना। 
भूल्याकन सवधी अतिरिक्त क्रिया कलाप 

अध्यापक ने किसी टात्र का परीक्षण या अवलोकन कियौ तथा इसके 
चाद उस ्ात्र का क्या व्यवहार रहता टै तथा उसके व्यवहार मेँ क्या परिवर्तेन 
आता हं-अध्यापक अवलोकन कर इस सदर्भं मे टिप्पणी तैयार करै। 

मूल्ये के मापन सबधी यदि कई विशिष्ट परीक्षण या तकनीक विकसित 
ई तो आप उसका प्रयोग करते हृए्‌ भित न्यादरश/विपय पर कामं कर सकते 
है। उसे प्रमापीकृत कएने की योजना भी वना सकते ह! 

निष्क्यत यह कहा जा सकदा है कि भूल्यां का मूल्याकन एक 
जटित कार्वं है । इसका मत्व श्ससे समक्षा जा सकता है किं जब डो राधाकृष्णन्‌ 
से पृष्टा गया कि रिक्षाककषेत्र मे मुधार के लिए किया जाने पाला एक 
महत्वपूर्णं सुक्ञाव दोजिये तो उन्होने मूल्याक्न प्रक्रिया मँ सुधार को टौ सर्वाधिक 
महत्यपूर्णं यताया। इस दृष्टि से वस्तुनिष्ठ मूल्याकन ही सर्वाधिक उपयोगी हौ 
सक्ता है। सक्षेप मे बालक का अपेक्षित मूल्या से स्कार युक्त ना मूर््यौकन 
परर ष्ठौ निर्भर करता है। 

1 


दयुणीत शेशिक चिन्तन /85 


मित्रता के लिए शिक्षा 


मित्र यट हं सो आपति क ममय काम अये। 
-- एक अंग्रेजी कहावत 
भै नर्मित्र टि दुखारी निनि पिलाक्तव पोत्र भार॥ 
~ रापयरित मामिप 
मिव्रयौ प्रकृतिं यी उद्य कृति माना ख सक्ता टै) 
~~ दपर्मन 
जो फाम पडनं पर सहायय यवा टै चौ मित्र ै। 
~ दीं निकाप 68८2 
सवाधिफ दु खौ व्यक्ति कौन ह? किसी ने पूा। भित्र श्नि 
मिलै- धनटान च्यक्ति मफान रदित व्यक्छि िभादोन प्यदि पिक रौ 
व्यि येत रति व्यक्ति परदार रत्ति च्यक ओर भा कड ~~न 
ने नतौ ताया पि मिप्रन च्वि सपाधिक दुःखो ६ निर्व रै) ५५२ 
मिप्रवा नर्तौ खरीदी जा सफती मिग्ररीन ष्यक्ति समार या सर्वपिक एप 
एव असहाय व्यचि है यह कटार सत्य ₹ै। 
घमस अधिका च्यष्ठि भप्रता फी याते यर्ते हं दथा ये इ भावम 
से गुखो पृ पात ह प्राय यः आन्त सी यन गदंहै किदे मेड 
वौ पा आन पाली भिता पर विवाय ये- प्रयार तथा गोरा कौ अ 
क पूति सवौ रोमान्टयः या भाया भे स्तर प्र सो पिष कै 


णय काई क्षा र कि अमुक उमा मित्र है तो इषा अ 
उसस परिषि सोने या सहका एने से अभिक नते है। यह अपवयलं 
र गोलो गई भापा मा साययेत हुए विना मोल गये शणो ष फल ३, 
वास्तव मं प्रगाढ मिगरवा परियारिक मप्वन्ध कल्याणा परयति दृिीग 
णके सम्बन्धो पट नदी साव स ह। शब्दकोष के तुसा भ सा गरा 
का यष आशय है! 
कुठ सोगो का मानना रै किः व्यि सदधि परिवार कै सिवाय ध 
कौ मिवताकौ वपे होन कर्‌ तो समाग का स्प हौ भदत सष 
सेक पर भी विचार है कि मित्रता की यहो आद रूपै! अणी 


युग 3 शिक चिव्तन/86 


व्यक्ति मित्रता पर अशा तथा वर्गो या श्रभियां म विचार कएने लगा हं जसे 
काम की या स्वार्थं का मित्रता सामािक सम्बन्धो कौ मित्रता अच्छी मिता 
पकौ मित्रता अविच्छिनि मित्रता कामचलाऊ मित्रता! अन्य विचारक इसका 
भित रूप भी तैयार कर सक्त हं। यदि शोधकत्ता अक्न क्एना चाट तो 
षन वर्गो को अका मेँ भी वदलं सक्ते टे प्राचीनकाल मेँ लखको तथा विचारको 
ने इस प्रकार का कोई वर्गीकरण तैयार नटीं किया था। वै केवल अपिष्छिम 
या कभां न विगडने वाली मित्रता पर विशवास क्रते थे। गास्वामी तुलसीदास 
नैतोमित्र के गुणा को वताते हुए उसकी अनिवायता पर प्रयाप्न जार दिया 
है चे आर आगे क्तेक जो मित्र अपने मित्रकंदुखमेदुसी 
नही होता एसे मित्र को देखने माघ्र से भी पाप लगता ट! इतना ही नहीं 
ये आगे वढक्र ओर क्ते रं किजो भित्र अपने मित्रके गुणो का प्रचार 
करता है तथा अवगुणा को छिपता है वष्ट उसे मार्ग से टटाकर सन्मार्ग 
की ओर ले जाता है। अरस्तु तो मित्रता को दो शरीर मै एक अत्मा के 
समान भानता धा। फ़रासिस येक्न का कहना था कि मित्रता वह दवी जा 
सक्ती है जहा आप अपने दुख खर प्रसनता आशा निगणा सद्दे कौ 
चात करस्के दुख कं समय में उससे सलाह मशविरा कर सक। स्पष्ट 
कि इस प्रकार की उच्च श्रेणौ की मित्रता के विरले ठी उदाटरण मिलत 
। इसीलिए दार्शनिक हेनरी एडम ने ठीक हौ कहा टै कि मित्र तो जीवन 
म॑ एकी मिलता यदिदो मप्र भिल गये तो भगवान को धन्यवाद ट 
तथा तोन मित्रा के मिलने की सम्भावना तो वहुत ष्ठी क्षीण टेती है। खों 
सेमुएल जोनसत सो इससे भी एक कदम आगे वढकर कटते है कि मित्रता 
के लिए कईं गुणा कौ आवश्यकता ोती है तथा कठिन क्षणो मेँ ही मित्रता 
प्री जा सक्ती है। जव उसकी श्रेणी ऊपर उठती है तभी वह अधिकाधिक 
नागरिको क लिए क्ल्याणकारौ हो सकती है तथा महत्वीन वर्तो पर ध्यान 
नीं दती है। मित्रता करना या मित्र बनाना असभव नटी है यदि आप सम्पर्कं 
मे अनि वाला कौ पर्यात्त चिन्ता करे तथा उनकी आवश्यकतानुसार सार-सम्भाल 
करे उन पर ध्यान दे। इस सम्बन्ध मे वेद्‌ व्यास ने कितना सटीक लिखा 


"मित्रतोवहीहै जिसपर पिताकी भाति विश्वास कियाजा स्के 
दूसरे तो साथी मात्रै 
- महाभारत उद्योग पर्वं, 36८37 
"मित्र को कृतज्ञ धर्मनिष्ठ सत्यवादी क्षुद्रता रहित दृढ निष्ठा वाला 
जितंन्दिय मर्यादा मे स्थित ओर मित्र कोन त्यागने वाला टौना 
-चाहिषए्‌।' 
युगीनं शैक्षिक चिन्तन /87 


पित्रता के लिए शिक्षा 
मित्र वही है जो आपत्ति कै समय काम आये 
-- एक अग्रिजी कहावते 
जेन मित्र दोहि दुखारी तिन्हि विलोकतं पातक भारी॥ 
-- रामखीत मानस 
मित्र को प्रकृति की उत्कृष्ट कृति माना जा सक्ता है। 
- इपर्सन 
जो काम पड़ने पर सहायक वनता है वहो भित्रहै। 
~ दीर्घं निकाय 648८2 
सर्याधिक दुखी व्यक्तिं कौन है? किसी ने पृष्ठा। भित भित्र उत्तर 
मिले- धनटीन व्यक्तिं मकान रहित व्यक्ति शिक्षाटौन व्यक्ति विवेक रहित 
व्यक्छि खेत रहित व्यचि रिरतेदार रहित व्यक्ति ओर भी कई किमी 
ने नही वताया कि मित्रहीन व्यक्ति सर्वाधिक दुखी है निर्धनदहै। धन से 
मिता नहीं खरीदी जा सकती मित्री स्यक्ति ससार का सर्वाधिक दयनीय 
एव असहाय व्यक्ति रै यह कठोर सत्य रै। 
हमसे अधिकार व्यक्ति मित्रता की यते कंते है वेधा वे इसे भावनाओ 
से जु वृत्ति पते है। प्राय यह आदत सी वन गर्ईटै किदो मिर््रीके 
बीच पाई जानं वाली मित्रता पर विचारो के प्रवाह तथा गभीरता की अपेक्षा 
चचचल वृत्ति सतष्ठी रोमान्टिक या भावुक्ता के स्तर पर ही पिचार करते 
ह| 
जव कोई कहता है कि अमुक उसका मित्र टै तो इसका आशय 
उससे परिचित रोने या सकर्मा टेन से अधिक नहीं है। यह असावधानी 
से बोली गई भाषा यां सावचेत हए बिना बोले गये श्यो का फल रै। वे 
चास्तव में प्रगाढ मित्रता पारिवारिक सम्बन्ध कल्थाणकापे पारस्परिक दृष्टिकोण 
रक्त सम्बन्धो पर नटीं सोच रहे । शब्दकोष के अनुसार भी स्वी मित्रता 
को यही आशय ह। 
कुष्ठ लोग क्रा मानना है कि व्यक्ति यदि परिवार के सिवाय प्यार 
की भित्रवाी वाती नक्र तो समाज का रूप ही वदल सक्ता है। 
उनका सह भी विचार ह कि मित्रता का यटौ आदर्शं रूपषै। आज का 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/86 


ग्यक्ति मित्रता पर्‌ अशो तथा वगो या श्रेणियां म विचार क्वे ता है जते 
कामक या स्वार्थं की मित्रता सामाजिक सम्बन्धो वौ मित्रता अच्छी मित्रता 
पक्की मित्रता अयिच्छित मित्रता फामचलाऊ मित्रता। अन्य विचारफ इसका 
भिन रूप भी तैयार कर सक्ते हं! यदि शोधक्त्ता अक्न करना चाहे तो 
शन वर्गो को अक मे भी यदल सकते ह प्राचीनकाल में लेखक। तथा विचारका 
ने इस प्रकार का कोई वर्गीकरण तैयार नटीं किया था। घे क्यल अविच्छिन 
या कभी न विगडने वाली मित्रता प विशवास कते थे। गास्यामी तुलसीदास 
नेतो मित्रके गुणां को बताते हुए उसकै अनिवार्यता पद पर्यास जोर दिमा 
है। षे ओर आगे कहते ह कि जो मित्र अपने मित्रके दुख मदुघी 
न्ती हाता एसे मित्र को दखने मात्र से भौ पाप लगता है। इतना हौ नही 
पे आगे बढ़कर ओौर कहते हं कि जौ मित्रं अपन मित्र के गुणो का प्रचार 
करता है तथा अवगुणा कौ छिपाता है वह उसे कुमार्ग सै टकर सर्गं 
की ओर ले जाता है। अरस्तु तो मित्रता को दो शरीरतो मे एक आत्मा क 
समान मानता था। प्रासिस येकन का कहना धा कि मित्रता वहा देखी जा 
सक्तौ है जहा आप अपने दुख डर प्रसनता आशा निराशा सन्दे की 
चात कः! स्के दुख के समय मे उससे सलाह मशपिरा क्र सके। स्पष्ट 
ह कि स प्रकार की उच्च प्रेणी की मित्रता के विरले ही उदाहरण भिलते 
ह । इसलिए दार्शनिक ठेनरी एडम ने ठीक ही कहा है कि मित्र तो जीवन 
म॑ एक टी मिलताहै यदिदो मित्र मिल गये ता भगवान को धन्यवाद 
तथा तीन मित्रा के मिलने की सम्भावना तो बहुत ही क्षीण होती है। ड 
सेमुएल जनसन तो इससे भी एक कदम आगे वदकर कते है कि मित्रता 
क लिए कई गुणो की आवश्यकता ठोती है तथा कठिन क्षणो मेँ टौ मित्रता 
परखी जा सक्ती है। जब उसकी श्रेणी ऊपर उठती है तभी वट अधिकाधिक 
नागरिको कं लिए कल्याणकारी टो सकती टै तथा महत्वटीन यातो पर ध्यान 
नटी देती है। मित्रता कटा या मित्र चनाना असभव नहीं है यदि आप सम्पर्क 
मे आने वाला की पर्या चिन्ता करं तथा उनकी आवश्यकतानुसार सार-मम्भाल 
करै उन पर ध्यान दे। इस सम्बन्ध म॑ येद व्यास ने कितना सटीक लिखा 


"मित्र तो वही है जिस पर पिता की भाति विश्वास कियाजा सके 
दूसरे तो साथी मात्र र” 
- महाभारत उद्योग पर्वं, 36/37 
"मित को कृतज्ञ धर्मनिष्ठ सत्यवादी क्षुद्रता रहित दृढ निष्ठा याला 
जिविन्दिय मर्यादा में स्थिति आर मित्र को न त्यागने वाला ना 
चाटिए। 


युगीन शेदिक चिव्त/87 


- महाभारत उद्योग पर्वं 39/50 
+ पिद्या शूरपीरता दधता यल तथा थम यै पाच तत्व मिग्रती य 
आधार स्तम्भ यदायं भतं हं । विद्वान पु्प इनक द्वारा हा जगत 
क काय क्ते रहै।'' 
--महाभारत शाति पर्य 13985 
इस सम्यन्थ म भास नं सम्मति निग्र शब्दों मे पताईहं 
जो करणीय पिपर्यो मे दूयते हए परए पा उयाएा है वा मित्र 
ह अन्यधा वह रत्र है।' 
-अभिपेक नाटक 6^22 
ओर भी 
अरित से शक्ना हितं म लगाना तथा विपत्तिमेनष्टोडनाही 
मिग्रता ष पीन लक्षण हे। 
~-अश्वपोष उद्रचारित 4^64 
सच्यी मित्रता की कसौरी 
साधारणतया इसफा पटला टौ उत्तर श्रद्रा दिया जा संक्रता है । जव 
दो व्यक्तियों फी स्थिति समान रो उनको अपता भविष्य उख्वल दोखता टे 
पे एक दूसरे ये लिए आवश्यकता के समय त्याग कले षो तत्पर प्ते एक 
दूसरे कौ एक ताम्ये फे पैसे कौ भी ष्टानि न पटुवाना चा वे एक दूस 
के लिए प्रयत्ररील ररे सार्वे षिवा आपति मे ्ठोने पर मित्र ये लिए सहानुभूति 
रं यट सहानुभूति एक दूसरे के लिए त्याग विचार या दृष्टिकौण हौ मित्रा 
य] सूचक यन जाता है कई यार आपके चव भाव च्यवघ्यर से ष्टौ मित्रता 
स्पष्ट ष्टो जाती है। पर इसफे दूसरी ओ. कई यार व्यक्ति मित्र यैः विपति 
मेने पर भी युत दिखाया करते है व्यवटार म कृत्रिमता लाते र । जव 
भीं किसी ने प्रयल क्या किरम साधौ को एक चैसे कौ हानि पटुचाता 
षटरयामित्र का एक पैसा अधिक खर्चे जाये तो वहीं मित्रता समापो 
जती रै। इस दृष्टि सै जातक कां यह पिचार कतिना सही रै? 
+ यदि दुर्यत व्यक्ति भी कर्तव्य पूरा कता है तो षह मित्र रिरतेदार 
वधु. सवा सभी कु टै।' 
--सुहतु जातक 
करई यार प्रशन पूषा जाता है कि मित्र आपसे उधारदैयाते 
या नर्ही। बहुत छोरी राशि उधार ली तथादौ या सक्ती रै पर ेसा करते 
समय क्रमश वी रशिकी भी माग टी सक्ती टै। इसलिए अच्छाप्रो 
यही रगा कि आप मिप्रो को उतनी हौ यी राशि उधार दे किः षह (आपका 


यूगीन शेक्षिक चिन्त/88 


मित्र) न लौयये तो भी आप किसी प्रकार की कठिना अनुभव न कर। 
इसलिए कई विचार्वो का त यह कहना ह कि मित्रता लम्बे समय तक 
वनी रहे- इसके लिए आप रुपये पैसे उधार लं दँ टौ नरी । उनकै अनुसार 
स्पथा उधार दनं सं न कवल मित्रता हा दूता है वरन्‌ दुश्मन तैयार कर 
लेते ह) पर साथ ष्टौ कटु लाग आपत्ति के समय रैसियत कै अनुसार उधार 
देने तथा दी हु रशि पुन प्रान करे कौ अपक्ष वो हौ सच्वौ मित्रता 
कहते ह। अन्य क्ट लाग क्ट पाकर भी प्राप्त ऋण हर सम्भव प्रयत कर 
लौटाना हौ सच्यी मिता मानतै ह। 

मित्रता कौ गभीरता का आधार मित्र की ख्याति परभी निर्भरो 
सक्ता ट। भापक लिए अपने मित्रो क साथ व्यावसायिक या सामाजिकः केतन 
मे उपयुक्त ूरी बनाये रखना च्यावहारिक हो सक्ता है। एेस्रा उस यक्त ओर 
आवश्यक लगता है जयकि मित्र लोग आर्थिक सक्टो मै पते। सभव हं आगे 
स्थितिया मौर खव बन जाये। एेसी स्थिति मे सच्यै भित्र कौ अपराधी वताया 
जा सक्ता है। क्या आप अपनी प्रतिष्ठा या ख्याति के नाम पर अपने मित्र 
फी स्थिति का उपहास या मजाक नही कर रहै है? मान लीज्ि वह अपराधी 
है गलती परदे ओरलोग भी रेसाष्ौ कुछ कहे तव भी क्या अपि उससे 
मित्रतपूर्णं व्यवहार ही करणे? 
अपने विचायं को बाटिए 

किसी को अपने विचारो मे भागीदार्‌ यनाना भी मित्रता का ठी सूचक 
माने जात्रा है। साथियों म वेस्तुर्मो तथा भेट फे समान ही प्रयतो इच्छाओं 
अनुभवा विचारं आदि का भो आलान-प्रदान एोता है । वहत ही अच्छे निकट 
फेमित्र को आप अपन मन की वात वता सक्वे ह उतेदुख दरद भागीदार 
नाते है तथा उसे हदय विदारकं वात भो वता देते ह । जितनी अधिक भयावह 
या एकान्त खा गम्भीर वीमारौ या प्रियजन कौ मृत्यु की दरण स्थिति हो 
मित्र का उतना टी अधिक पास टौना आप आवश्यक समह्ञते ई । यह मान 
करके कि यदौ आपको सन्ताप दे सकता है आपका दुख वाट सक्ता है 
आप्‌ उससे वत्तियाते टै तथा एसा करके हल्कापन अनुभव करते हे । ओंस्कए 
वाईट सच्ची मित्रता पर विचार क्ते हए लिखते ह कि सव्वी मित्रता वहा 
दै जब कोई व्यक्ति अपने सच्चे मित्र को अपने यहा छेन वालं भौज मे आमत्रित 
म॒ कये- कोई व्यक्ति दुखाये द्वाज टै तथा मित्र कौ उम्हे वाटने से 
उनमें मदद करणे से मना क्रतो है तो बडी मसहनीय दयनाय या कर्णाजनक 
स्थिति होती टै1 मित्र उससे यार वार सहायता स्वीकार करन का आग्रह करता 
है, यदि वष द्वार बद क्लेदो भी वार्‌ वार चहा जाये तथा मदद स्वीकार 


युमीन शैक्षिक चिन्त 1१/89 


क्नै के लिए निवदन करे आप्रट कर था यिनप्रता क साथ क्टंकिषूपा 
कर मुघ्े उनं सव वातो मे कार्यो मे भाग तने दौिए गितम म एसा कर 
सकता दह। -सच्ची मित्रता की आस्किर वाइड मटोदय की अपनी फसौटा ह॑ । 

मित्रता कौ सक्ट कौ घडी मं परौधा नर्त लौ जानी चा्हिए्‌। जो 
व्यक्ति आपये टर समयक दुख सक्ट क साधोरटे टै सभव टै आप 
पर आये दुख कै समय यट हर प्रफार से समर्थं तथा याग्यहोत ए भी 
किसी अप्रत्यारितं सक्टर्मे ष्साष्टोयाउसे ओर किसी कलिर्‌ कुकर 
पडणए्हाहा या दूरसर्रो क दयाव से यह समयन निकाल पारदा अग्रेगो 
फ सुप्रसिद्र लेखक रोवर्टसन इसी विचार कं समर्थक हं। क्वा य्टभी 
कहा जाता कि जो मित्रता आपमी स्ट क समय टी विकसित सेत 
टै वटी मित्रता गाढ चलती है। 

कद्वत है कि मित्र पुराना टौ अच्छा एता है। इमीलिए्‌ सच्वाई 
यष्ट है फि समयी मित्रता षी क्सौरी हे। यष्ट भी सटी कि आदमी 
ण्या ण्यो वृद्ध ता ~ मित्रता का आनन्द उठाना चाहता है व्यक्ति अपना 
अधिकाधिक समय अपने उन मिग्रो के साथ विताना वाहत है जिनके साध 
उसने अच्छे तथा युर दोना प्रकार के दिन यिताये । 
प्रसद्रता का स्रोत पित्रता 

जीवन का वास्तविक लक्ष्य सुख या प्रसन्नता है तथा इसकी प्राति 
मे मित्रता महत्वपूर्ण स्थान रखती है । इसलिए मित्रता कं लाभो या उपयागिता 
को फम नही आका जा सक्ता। आदमी मित्रता पर भविष्य मँ आपत्ति के 
समय बीमा कं रूप म विचार करते ह। ये एेसा ऽसलिए सीचते टै कि 
मनोवैज्ञानिक रूप से सामान्य हेते हए वे अपने टौ जैसे लोगं से सम्पर्क 
रखना पसद करते ह । प्रतिदिन का मिप्रतापूर्णं व्यवहार टौ मानव कौ इस 
मूल प्रवृत्ति कौ सतुष्ट करता ट कारण कि मनुष्य अपने तौ जैसे साथिवां 
के वीच रहकर उनम अपनी पहचान वताता टै सुरक्षा अनुभव करता है। 
इसी सदर्भं मे हितोपदेश म क्ल्य गया है-- ‹ स्वाभाविक मित्रे भाग्यसेष्ठी 
मिलता रै ओर ेसी मित्रता विपत्ति मे भी न्ती दूटती। " (रितौपषदेध 1/ 
205) नूर मोहम्मद के अनुसार 

जो मुख पर रेसुन कट मटामित्र ए सोई। 

तीको मित्र नं जानिर्‌ रगुण रखे गोई॥ 

(रेगुन-वगुण गोई-गुस) इरावती से। 

विलियम जेम्स के अनुसार मित्रत वा चुनियादौ आधा आनन्द सैना 
है। टमारी प्रसनता जव अपने टौ समानं रुचि वाले, षिचारधास साते वथा 
आदरो वाला मे वाटी जाती है तो उसका महत्व भौर भी बढ जता है। 


युयीन शैक्षिक चिन्तन/90 


भिग्रो के साथ यारी जने वाली वस्तु म एक महत्वपूष्य वस्तु हस्य है। 
न्यूनाधिक सूप से जावनक्रम समाने से मित्र भां इसो प्रकार कौ घटनाए्‌ 
त्था स्थितया पातं है। मित्रता चमे समान ल्या क्यौ दिशा म॒ आगे वदाती 
ह। जासफ़ एडारन तो वदा तक कट्ठं किं एसा क्ले म प्रसरता दूनी 
ष्ठो नाती ह! इस तेथ्य का ज्ञान टमं विवाय तथा जन्मदिवस समारोह क 
अयसगर पर स्तता टै जव दौ मिग्र आपम म मिलत हं वथा कुःशलभेम पूते 
्ै। परष््मम सं कई ताग प्रतिदिन के इन अननां का उचित उपयाग 
एना तो दूर थं इनकी प्ररासा भौ नही कर पाठ। 

आज क इस गत्यात्मक तथा व्यस्तता भर समाज में सतत मिप्रता 
निभा पाना कठिन ट भागालिम दूरी भी इमर्मे एक आर्‌ अन्य वाधा । 
कई वाद हम प्रमादवरा भट तां नटी क्र पात पर मित्रता पत्रे वधाई काड 
था दूरभाष पर याता कर प्रकट क्रत हा ह! इस प्रकार भूलं विस मित्रा 
स भो फिर सं मित्रता जड जाता रै। रेल्फ यात्या इमसन कतं ह कि दूरा 
र्व लिए विचार करो या उनसं वाव प्रा म कभा एमां आवरयक्ता अनुभव 
नँ करता न मुञ्च स्मृति चिह भने को जर्ण पडती है न मुके मसी 
कौ या दिलाना पडता है। जहा हदय सं निक्टता हाती हे वहा एमा 
आपवारिकता कां जरूरत नटी पडती । 

जहा गपो मित्रता होती रै ता मित्र की अनुपस्थिति खटक्ती है। 
णय द व्यचि काफी समयसेमित्रताम वपे हएर्हेताये एक दूसरे 
मनोभाव यति विचार, अनुभव अच्छाङ्यों ठथा बुराश्या से भी परिचित हति 
ह पर मित्रता मेँ आदान-प्रदान फा अधिक महत्त्व है तथा क्डयवाता कौ 
अधहीन मानकर या महत्व कौ न मानकर अनदखी भी की जाती है । सम्बन्धा 
की निकटा के आधार पर मित्रता पर विचार किया जावा है तथा स्वीकार 
फी जाती ६। उनकी कमियों दथा सरारत्मक विन्दुओं पर भी विचार क्रिया 
जाता है। यह कों बुरी बात भी नरी टै क्याकि इममे मित्रता म सुधार 
करने का अवसर मिलता ह। इस दृष्टि स यट क्रा जा मक्ता रै क्रि 

“जी मित्रता समाष दा सङ्ती है पट वस्तुत कभी आरम्भ ही 

नहीं हुई धी।' 
--पवलिलस साइरस नीतिवचन 

यष्ट मानने मे तनिक भी टिचकिचादट नटी हानी चाहिए कि कौई 
भी व्यक्ति पूर्णं नटीं ट या दोप रहित नले है। यदि एेसा हो जाय तो आदमी 
आदमी नहीं रहेगा तव तो यह दवता वन जायेगा एक मित्र जो मरे 
जसं कई गुण रखता है वह भी अन्य क्ट दषा का पुतला हे सक्ता ई। 


फिर भी उसके साथ कई विचारे तथा षस्ुओं में आदान प्रदान चलता रेहता 
है ओर श्नमे से भी कुछ अपने ष्ठी जैसे ष्टो सक्ते । 

विना दसय की सुख सुविधाआ का ध्यान रखे उनके भावो षर 
विचार किय को$ भी मित्रता लम्े समय तक नर्टी चल सक्ी। यदि इस 
पर दृढता से विचार किया जाय तौ स्वकद्धिव व्यक्ति तो को मित्र ही नर्ही 
चना समैगा। इसी आधार पर मित्र की निङ्टता वताने सं यचा जा सक्ता 
६। जव ख उद्दासीनता वकर भावनाओं को आहत कतै है ततो अन्य स्यक्छि 
भी शान्तं रहकर उसी भाति व्यवहार क्रते । सफल ववाटिक सम्यन्धा के 
विकास के लिए भूलना तथा माफ करना सुनटला नियम रै इसी भावि गाढी 
भित्रता कै विकास के लिए भी इसी सूत्र का उपयोग किया जाना चाहिए। 
इसक विपरीते रेक्पूर्णं या चातुरीयुक्त या चालाकौपूर्णं कृप्रिम व्यार मित्रता 
की खाई ओर बढा दता है एक समय एेसा भी आता है जव आप भित्र 
क साथ कृत्रिम व्यवहार ते ए भो मित्रता निभानं का ही प्रयद्र कर! आखिरकार 
एक लप्ये समय तक किसी को घोर कष्टो मे पाकर आप निष्क्रिय मीर 
सक्ते। ये धार कष्ट शारारिक मानसिक आर्थिक सामाजिक सभी श्रकाए के 
हो सक्ठै ई। 

एक पाश्चात्य कहापेत के अनुसार मिप्रता का अर्थं है सजग वनाना 
'चतावनी देना। यहा यह स्मष्ट किया जाना आवश्यक लगता है किं यह चेतावनी 
दना आलोचना करने से सर्वथा भित है तथा मित्र को लाभ पहुंचानै का दृष्टिकोण 
ही सर्वोपरि है। यट मानव का स्वभाव है कि वह दुसरो की अपेक्षा अपनी 
असफलता से अधिक चिन्तित रहता ह । इस स्थिति मे मित्र का कार्यं अच्छे 
खुरे का निर्णय कने का न्ती है! यहा मिय को यताया जाना चाहिए कि 
दूसरे भी इन्हीं कमगाप्य से पोडित है पे मित्रो कोतय कए है तथा 
मित्रौ कै भते उनके कल्याण के लिए ये सनग नही हे। 

कसी वेः गलत कार्य या तुदिपूर्णं निर्णय लिय जाने पर एक मित्र 
को उसे वताया ही जना चाटिए. उसे ध्यान रखना चाहिए कि मिग्र की आलोचना 
न हो) “एकान्त मेँ मिद्र कौ खायिये फएटकारिये पर प्रकट म॑ मित्र मण्डली 
म उसकी प्रशसा कीजिए" यष्ट एक प्रानी नेक सलाष्ट है। यदि आदमी 
कौ चह पता लग जाय किं उसके ति्‌" कौन क्या कट रहा है तो कोई 
शरी किसी क भी भिक की कत सकेणर यदि एते भिक की ग्र या 
अच्छाईं के लिए प्रकट म॑ कहने के लिए आपके पास कुछ भी नही है तो 
आप कुछ कहने को अपेक्षा खामोश टौ रहिए। 

पवित्र वाईविल के अनुसार कोई किसी का दोस्त नहीं ह ओर कने 
कं नाम पर सभी मित्र हं। उनके अमित्रतपूर्णं कवयो को क्लौन नर्ही*जानता 


युगीन शचैकिक चिन्तैन/92 


कटं आदमी अपने वार्यं स्यार्थवश जारो सवते ह जां आगे चलकर मित्र के 
साध विशास्थात क रूप मे सामनं आते ई। इस प्रकार क कपदपूर्णं व्यवहार 
क उदाररणों से कड कहानी सग्रट उपन्यास तथा नाटक भ षडे ह। ठेते 
च्यक्ति प्रकट में प्रशसा क्रतं हं या जोरदार शना में पथ त्तेर्ह। एसे लागा 
का कड मूखतापूणं तथा अशिष्ट शब्दा स सम्बाधित क्या जाता है वे प्रर्ट 
मे अपने नियोक्ठा या अधिकारी कौ चापलूसी करते र वयाकि पे जानते ह 
क्रियं सायक रो सक्ते हं उनफो अषनी रीविका में लाभ पटुचा सकत॑ 
ट पदानति की सम्भावनाएं वदा सकते ह। च अपने अक्रामक टदूम प्रशस्ये 
से उन सुरक्षा तधा प्यार का स्वाग रचते हं हथा सभी चापलूसं अपने 
अधिकारी कौ कीमत पर जीते हं! अधिरारियों का यह तथ्य समय रहते 
समन्ञ लेना चारिए। क्या कौज तथा लोमडी की कहानी इस सिद्धान्त की 
पुष्टि नहीं कएतौ रै? 

राजनीति दथा व्यापार मे लगे लाग यह पिशवाप्त कठिनाई्से ही 
क्ते कि उनके मित्र टो सकते ह। ईसाई धमं के अतुसार्‌ क्म या घटिया 
किस्म का खाना खाओ तथा मित्रता निभाओ। कुछ लोग इससे भी एवः कदम 
ओर आगे बढकर्‌ कटते हं कि यदि एेसा नहो विया तो वे भविष्य म पूर्ण 
विश्वास किया जाने वाला कोई मिघ्र नीं वना सङ्त। दुनियाटारौ के दैनन्दिन 
्यवहार में पुराने मिरो के साथ टोड देने पर मित्रहीनता कौ विशाल गभीर 
स्थिति आनी स्वाभाविक रै। 

भित्रता व्यक्ति का महत्वपूर्णं तिजी कार्य है । शायद ही कोई अभागा 
व्यक्ति इसका मटत्व न जानता टो? यद्यपि यह आशिक रूप में ही सही 
है क्यानि- महत्वपूर्णं व्यक्ति के सम्पर्क मँ आने वाले उनसे नीचे के स्तर 
के लोगों से उनक सम्बन्ध समान धरातल पर विकसित नहं टोते हे! यह 
सवमान्य तथ्य है कि मित्रता समान स्तरके लोगा मे टौ निभाई जा सक्ती 
है। 

जदा एक मित्र सदैव टी दूसरे मित्र से अधिक पाने की आशा 
करता हो वहा सदैव टौ मित्रता निभ जाती हो एेमा कोई विश्वास नहीं किया 
जासक्ता ओर नही एसा विश्वास कर लेना वुद्धिमानी ई! व्यवहार में कई 
यार विश्वास किया जा सस्ताहै कि एक मित्र दूसर मित्र की आशासे 
अधिक सहायता करता है पर सरा तव टौ रोता रै जयकि उनके सम्बन्ध 
गदि हो किसी भी स्थिति भे न दूटे वाले ौ। दूसरे शब्ध मे सटायता 
कौ मात्रा या विस्तार सम्बन्धो की प्रकृति पर निर्भर होगी। व्यवहार मे क्ड 
वार दोनो मित्रों की स्थितिर्यो मे परिवर्तन भी आ जाता है। 


युगीन शेकिक चिन्तन/93 


गुणी चिकित्सक क समान चातुर्य ठथा निरीक्षण सजग परिचारिका के समान 
महनती तथा सावधानी रखना माता के समान धैर्य तथा कौमलता के लक्षण 
ज्म 1" इसी भाति भतहरि कते ह दि “दा कौ मित्रता दोपहर से 
प्रतते की टाया के समान ्टाती हं-पहले छोटी तथा वाद मे क्रमश वढने 
वाली ।' (नीतिशतक-60) अमृतवईन तो इससे भी एक कदम आगे वढकर 
क्स्त ह कि ““पिद्रव्वनो के साथ कौ मित्रता आद्म्भ र्मे मद मद मध्यमं 
समरस तथा अन्त म अत्यत च्रहपूर्ण हो जाती ह 1" (वल्लभ देव कृत 
सुभापितावली 254) साराश रूप म॑ बुद्धिमान वीर्‌ पुरुप तथा महिलाओं मे 
उच्च श्रेणी का प्यार सर्वाधिक मुक्त घ्यवहार महान उपयोगिता विशाल त्याग 
घार पीडा कडवा सत्य हदय के अन्त स्थल से कल्याणकारी परामर्शं तथा 
मन कौ वास्तविक एकता हो मित्रता की कसौटी रै। इसी सन्दर्भ मं भवभूति 
ने कटाह कि “प्राण दक्र भलाई करना द्रोह तथा ख्त का कभी नाम 
ननेना ही मैत्री धर्म है। ' महावीर चरित 559 

मिता के सभाविते विकास के लिए त्यागं के रूप मेँ समय समय 
पर्‌ किये गय प्रयास प्रकाश मं आये है पर एसे बहुत कम उदाटरण ज्ञान 
म अये हं जिनमे मित्रता वनाये रखने के लिए. आतन्दानुभूति के लिए त्याग 
क्रिया गया है। परम आनन्द कौ प्राप्ति क लिए त्याग ही एक रास्ता है जिससे 
मित्रता में जुड सभी स्त्री पुरुप आध्यात्मिक उच्यता प्रात कर सक्ते हं । हमरे 
धर्मशास्त्र यतात है कि मित्रं के आनन्द म दूसरं की भलाई मे उनकी 
प्रगति देखकर प्रसते टीऽये उनके उत्थान को ही अपना उत्थान मानिए। ठीक 
सी प्रकार के पिचार पाश्त्य विचारक लीडिया यार्ड ने भौ व्यक्त क्ियि 
है) मित्रता के विकास के लिए चस्तरिकंये टौ गुण या लक्षण आवश्यक 
£ जी एकः मानय के लिए आवश्यक है उदाहरणार्थ-नि स्थार्थ भाव उदारता 
विशालं दृष्टिकाण मानवकल्याण दूमपे के य्यक्तित्व का आदर क्षमा दया शील 
अहिमा दू ख निवृत्ति सहिष्णुता विश्वासपात्रता शरद्धा इमानदारी क्ट मेँ मदद 
करना आदि! यदि क्षण भगुर जीवन प्राप्त मनुष्य इन सव गुणां के अनुसार 
सव समय ठथा सभी स्थितियों मे व्यवहार करना चाह तो यह अत्ति कठिन 
कार्यं होगा वयोकि मानव स्वभाव के अनुसार वह उनक प्रतिफल की भी 
आशा करेगा वह अपने द्वारा किये गये कायो के अनुसार ही मित्र से त्याग 
यासरैट का प्रतिदान भौ चाहगा। पर इन सबसे दूर हटकर सर्वाधिक अच्छी 
स्थिति ह-आाप दूसरं से प्यार कर इसरु लिए आवश्यक टै कि आप दूसरो 
के भी प्रिय वने अर्थात्‌ साथी मित्र आपसे भ प्यार कर। अत॒ यह सुनश्ला 
नियम याद रखा जाना चाटिए कि भित्र पाने के लिए आप भी दूसरों क 
मित्रे चने। 2 


युणीन शैक्षिक चिन्तन 195 


अनुपस्थित पर स्थायी मित्र 

चहु कम लाग एेसं देते हं जो मित्रा क लिए मिप्रता करते है। 
मर एसा कहे चा भी पया आधार है कि आदमा किसी कायवश्च या स्वार्थ 
क यरौभूत एकर हा मित्रता विकसित कतं हट । कई यार यताया जाता है 
एव सला दी जाती है कि अपने सुधार के लिए अधिक सम्यत सागामे 
मिप्रता की जाय या पुराने मिनो कनौ जगह नये मित्र याये वाये क्याकि सम्भव 
है पुराने मित्र सहो भूमिका न त्रिभा एह दो नौकर करन दाते लग स्थीनातरण 
पर एक जगह छाडकर दूसरी जगह जने पर व्य नय मिप्र यनात ही है। 

एक पिता नं अपने पुत्र कास्येट मोन क्यौ ' मि्रो कौ कैसे जीते 
तथा आदमिया को कंसे प्रभावित कर? ' पुस्तक की प्रतिदीतांपुत्रने लौटते 
हए कद्ा-'* यट पुस्तक तो युत कृत्रिमता लियं एए ह। सी प्रभिया की 
तरह टौ सही भित्र दृढना तथा प्रास करना सम्भव ह षर रामाटिक प्रम के 
समानं सटज विकसिते मिप्रता ो अच्छ फल दतो ै। प्र धो जोन्सिनं इसक 
पिपरीत विचा रखते ह । षे कहते है कि आयु यनं कं साथ-साथ यदि 
मानव का परिचय नटी वढता है मित्र नी बताता है ता वट शीप्र हौ अलग- 
लग पड जता रै एकाकी त जताहै। सायष्तोयट भीसटौहैकि 
त्म करंमिप्राकोमृत्यु के पश्चात षी छोडते र ओर इस भाति म॑ भी क्षणिक 
नटी है। इस प्रकार जिन्होनं भौतिक रूप में अपना जीवन विता दिया है 
शरीर छोड दिया वे भी हमारे हदय मं स्यायो टाप टोड जातं है। यट 
तथ्य ठीक एसाष्टीै जैसे कि युद्ध भे सैनिकों के आं उठते टौ उनके 
सामने मिप्रं फो अनुपस्थित मानते है! 

जव तक मित्र जोवित है उत पर प्रकृति के बहुत बडे फौमती 
उपहार फे रूप म विचार किया जाना चाटिए। इमरसन ने अपने एक लेख 
म॑ लिखा है-हम अपने स्वास्थ्य की परवाह करतै है अपने मकान की व्यवस्था 
करते है कपा क प्रयन्थ करते ह पर यह सव चीजै हमको फौन सर्वाधिक 
उपयोगौ एव अच्छी मुञ्चा सक्ता रै इन सवके लिए कौन सर्वाधिक अच्छी 
राय द॑ सकता है? इसका उत्तर है मित्र-एकमत्र मित्र। "इसीलिए चाल्सं कैल्य 
कौल्टन नै कितना ठीक कटा र कि सच्ची मित्रता उत्तम स्वास्थ्य के समानं 
है उसका महत्व तभी ज्ञात रता टै जव हम उसे खो यैठते ई] 
मित्र पाने के लिए स्वय भी मित्र बनिये 

इमरसन न अपने एक अन्य ले मे लिया है कि मित्र पानेके 
लिए पको भी किसी क्त मित्र बनना चाषिए-ष्स स्िद्रान्त या तथ्म कौ 
आप हल्का फुल्का न समञ्चिए। इसी सन्दर्भ मे मित्र कौ भूमिका कौ कसौटी 
के लिए अर्त आफ क्लेरण्डन कै विचार देखिए-"'मिप्रता क विकास फे लिए 


युगीन शैशिक चिच्तन/94 


गुणो चिकित्सक क समान तुर्यं तथा निरौभण सयग परिवारिका क समान 
मेटो तथा सायपाना रखना माता क समान धैर्यं तथा कामलता कं लक्षण 
जरूरी हं।'" इसी भाति भृतटरि क्त्वे है कि “दुष्टा कौ मित्रता दापरर सं 
पहतं का टाया क समान होती ह-पटते छोरी तथा याद म॑ क्रमश घने 
चाली। ' (नातिरतक-60) अमृतवईन ठौ इससे भो एक कदम आगे वदढक्र 
फतह कि ““पिद्रखना के सायकौ मित्रता आरम्भे मदमद, मध्यमे 
समरस तधा अने मे अत्यत सेदपूण प्ते जतौ है। (वलम दंव कृत 
सुभापितायलो 254) सारा रूप म बुद्धिमान वीर पुरप तथा महिलाओ म॑ 
उच श्चणी फा प्यार्‌, सर्वाधिक मुक्तं व्यवहार, मान उपयायिता विशाल त्याग 
थार पोडा कडवा सन्य हदय यं अन्तं स्थल सं फल्याणकारो परामश तथा 
मन छौ यास्तयिक एकता हा मित्रता कौ क्सारी है । इसी सन्दभं मे भवभूति 
नैका क्रि "प्राण देकर भलाई क्रा द्वार तथाल का कभी नाम 
नरैना मैत्री धर्म है। “"महावीर चरित 559 

मिप्रता ष सभाषित पिकास यः लिए त्याग कै रूपंर्मे समय समय 
पर कयं गये प्रयास प्रवीर मे आयं ह पर एेरे यदुत कम उदाहरण ज्ञान 
म आय हं जिनम्‌ मित्रता यनाय रखने ये" लिए, आनन्दानुभूति फे लिए त्याग 
क्रिया गयां है। परम आनन्द की प्राति के लिए त्याग लो एक रस्ता रै मिससं 
मिनत म शु सभी स्प्री पुरप आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त क सक्ते है । हमरे 
धर्मशास्त्र वताते टै कि मिर्भरो के आनन्द म, दूसरों वी भलाई मे उनक्रौ 
प्रगति दखकंर प्रसन हाये उनके उत्थान को ही अपना उत्थान मानिए्‌। ठीक 
इसी प्रकार फे विचार पाशात्य पिचारफ लीडिया वात ने भी व्यक्त किये 
है। मिक्ता कं विक्स के लिर्‌ चरत्रिके ये हौ गुण या लेभण आवश्यक 
है जो एक मानव के लिए्‌ आवश्यक है। उदाटरणार्थ-नि स्वार्थं भाव उद्रारता 
विशाल दृष्टिकोण भानवकल्याण दूसरा के व्यक्तित्व का आदर क्षमा दया शील 
अहिसा दु ख निवृहि सहिष्णुता विश्ाासपात्रता श्रद्धा ईमानदारी कटो म॑ मदद 
केना आदि। यदि क्षेण भगुर जोवन प्राप्त मनुष्य इन सव गुणो के अनुसार 
सय समय तथा सभी स्थतिर्यो मे व्यवदटार करना चाहे तो यह अति कठिन 
कार्य होगा क्योकि मानय स्वभाव फे अनुसार षह उनकं प्रतिफल की भी 
साशा करेगा वहे अपने वाग किये गये कार्यो वेः अनुसम्‌ टौ मित्र से त्याग 
या स्ह काप्रतिान भी चाहया। प इन सबसे दूर हटकर सर्वाधिक अच्छी 
स्थिति है-आप दस्त से ध्यार कर इसफे लिए आवश्यक ह कि आप दूरा 
के भी प्रिय वने अथात्‌ साथी मित्र आपस भी प्यार कर्‌। अत ॒यह सुनदला 
नियम याद रा जाना चाहिए कि मित्र पाने के लिए आप भी दूरौ के 
मित्र यन। [9। 


युगीनं शैक्षिक विन्तन/95 


सवेदनशीलता के लिए शिक्षा 


मानवीय सवेदनशीलता का अर्थं सपे सादे शव्द मे या बदाया जा 
सक्ता कि माप्र अपनी दह की अपने स्वार्थो कौ चिन्ता न कर दूसरा 
कैः सुख दुख र्म विपत्ति म विप परिम्थित्तिया मँ हाथ वटाना। पमौ वात 
को तेय ब्राह्मणः र्मे या कहा गया कि दूसरा फे टित म स्याग कना 
ही प्रत्यक मनुष्य का धर्म टै। इसका आशय मात्र यष्टी है ङि मानव केवल 
अपे लिये टौ न जयं उमे दूसरे के सुख दु ख मँ सहभागी वनना चाहर, 
पह पूसएं के लिये भी जीना सीखे उसे दूसरे वी सुख सुविधा का भी 
ध्यातं रखना चा्िए, उनक्र इच्छाओं को पिचारा का भी सम्मान करना चारिए्‌। 
एक वार भा या कि रावदाय याले प्रधानाचार्यं श्री शर्मा ने जव देखा कि 
चार दिन सं उन सहायक कर्मचारी गणेशराम के अवकाश का प्रार्थना पत्र 
आ रहा है चार्‌ दिन समाप होने पर दा दिन का अवकाश ओर वदा लिया। 
रविवार को भी उसे उपस्थित हाना था पर अन्य सायक से मिलकर रविवार 
कोभीन आने कभी व्यवस्था करली। जव मि शर्मा को पता लगा वि गणेशराम 
नटी आरा ता उन्हें चिन्ता हई। गणेश चिना पृषे कभी गैर हातिर नीं 
रहता रै अवकाश नर्सी तेता है पृष्ठ करौ ट्टी प्रजातादहैषष्टोन 
हो उस पर कोई विषदा आ गई रै1 प्रधानाचार्य मि शर्मा सं रही नटी गया 
यै गणेश के घट चले गय॑। प्रधानाचार्य को देखते ठौ गणेश शर्मिन्दा टौ गया 
वोला-सा 55 व॒ आप यहा। वच्वा जरा वमार टौ गया धा अब सुधार 
तो रहार म शीघ्र टौ कामं पर लौट आञ्गा। प्रधाताचार्य बोले-अरे गणेश 
वचया इतना यौमार टो गया किं खाट हौ पक्डली ओर तुमने चताया भी नै 


तुम स्कूल की चिन्वान कते + के। बोलो-्म 
सक्ता हू? बाजार से कोई हो तो वताओ। 

च क्मै-प्णेश चे नग्रतापूरवक ने गणेश 
रूपये का नोट दे दिया ओर हो सक्ती 
के समय कमले र आप 

ह विवशन तो 


तुके थे। 


सरे ग्रन्थो नीतरिशस्त्रा यादी सार इसम आ जादाटै कि टम 
दूसरे फे लिए फाम आ सक तभी इस शरीर कौ सार्थकता ह । मानव जौयन 
का उद्देश्य हौ यट यना है कि अप दूसरा के लिए जीना सीषे सामूिफ 
उप्रति का प्रयास करै मित्रा फो सुखौ यना सके दूसरयो यो प्रगति के पथ 
पए आगे वदते दख क्र प्रसन्न हा उनकी उतेति म ठौ अपना उत्ति माने। 
यदि आप दूसरे वौ सुखौ वनान म तनिक भी यागदान कर सके त आपका 
जीवन स्वत तो उन्नत एव ससृत यन जायेगा। मित्र आपके दृषटिकाण का 
आदर क्र्ेग दूसरा क हिति मे अपना हित सोचगं जीर आपको कभी किसी 
का अभाव टौ अनुभव नरौ सगए\ एसा विचार ही आपको किसी का शायण 
ने कएने फो उद्यत यनायगा सयकरे साथ आपका व्यवटार उदारतापूर्णं हागा अपन 
लाभ कौ यात पौषे वथा मित्रा-दूसरा फे पिति कौ लाभ की बात आप आगे 
र्खे आप किसी भर नाज नटी एागे सवके साथ सहिष्णु यन यार्येगे 
पूरा का काम निवदाना उनकी संया करना टौ आपका जीवनं दर्शन वन 
जायंगा। परिणाम स्वरूप आपको सवका स्नेह मिलगा आपको सभी भोचों 
पर सफलता मिलेगी सेवा का मूल दै प्रेम असा ओर परापकार। इस भाति 
सेया से जा सुख मिलता रै सही अर्थो म वटौ एक मात्र सच्वा सुख हे । 
प्यवहार मेँ आप देखत है कि कर यार धनी रक्षित व्यक्ति मानवीय व्यवहार 
से नीचे गिर जाते ट! राजस्थानी में एक कहावत रै गिसके अनुसार एसे 
प्यक्ति पठं तं यटुत है प्र गुण नटी अर्थात्‌ हान षौ उन्हाने जीवन मे नीं 
उतार एै। 

सभी साचतै टं कि मानव का स्वभाव सुखी जीवन जीने काहै। 
यह मिल जाये ता अच्छा है यह सुविधा मित जाय तो जीवन थोडा आरामदायक 
हो सक्ता है। मनुष्य यह महौ सोचता कि जितनौ सुविधाए षह चाहता ह 
जितने सुखो कमी यट चाटना कर एटा रै उतने टौ सुख सुषिधाए्‌ मित्र या 
सगी साधी भी तो चाहते तेग चां सक्ते है। यदि घे सब आपको मिल 
जये वथा साधिया को नमिलितोव॑दुखीषे। क्या य सव आप उनके 
हस्सिर्मेसे प्रा महौ कर रह रै? यदि एेसाट् तो कल्पना कीजिये कि 
समग्र समाज सुखी कैसे रट सकता है? एक अच्छे इन्सान क रूप मे यह 
त्रो आपको सोचना हौ होगा। 

अरुण को फेक्टरी पहुचना है-देद टो रही ई । यदि उनकी पत्री 
कोटे पहनने मे या दृद कर उपलब्ध करवाने म॑ मदद करती टै तो अरुण 
प्रसनचित फक्री पट्चतं है माना कि उनके पती उर्वशी को भी कई कम 
निपाने ह। पर अरूण के रवाना हनि के याद सभी समय जैसा चाटे जो 


युमीन शेदिक चिन्तन/97 


सवेदनशीलता के लिए शिक्षा 


मानवीय सयेदनरालता फा अर्थं सोधे साः शवे मेया वतायाना 
सक्ता दै कि मात्र अपनी दह शी अपने स्वार्थो का चिन्ता न कर पूरते 
क सुखदुख मे विपत्ति म विषम परिम्थितिया में हाधं वराना। इमौ यात 
कौ एतय ब्राद्यणः में या क्ह्ागयारै कि दूसएके हितिभे त्याग करनी 
ही प्रत्येक मनुष्य का धर्म है इसका आशय मात्र यटी ह क्रि मानव फेषल 
अपने लिये ष्टी न जीय उने दूसते के मुख दुख मे सहभागी वनना चारिए्‌, 
वह दूसरे के लिये भौ जीना सीख उसे दूमर्ते कौ सुख सुयिधाना भी 
ध्यान ए्खना चाहिए, उनी इच्छा का विचारा का भी सम्मान कएना चारिए। 
एक यार हआ यो कि एवलार चाले प्रधानाचार्यं श्री शर्मा ने जव देखा कि 
चार दिन से उनके सायक कर्मवारी गणेशरम के अवकाश का प्रार्थना पत्र 
आरत चार दिन समाप ्टोने पर दो दिन का अवकाश ओर यदा लिया। 
रविधा कौ भी उसे उपस्थित एोना था पर अन्य सहायक से भिलकर रपिषार 
को भीन आने कौ व्यवस्था करली । जव मि शर्मा फो पता लगा कि गणेशराम 
नहीं आ रहा है तो उन्हे चिन्ता ई । गणेश विना पूछे कभी नैर जिर नीं 
रहता है अवफाश नी संतारै पृष क्री षुट्टी परजतादहै। षहो न 
हो उस्र पर कोई विषदा आ गई ै। प्रधानाचार्य मि शर्मा से रघ नली गया 
वै गणेश फे घ चले गये) प्रधानाचार्य को दयते लै गणेश शमिन्दा टौ गया 
वैला-सा 35 य आपि यद्ा+ वचया जरा वीमार टौ गवा थो अव सुधार 
दोशै म शीघ्र ही काम पर लौट आञ्गा। प्रथानाचार्थं वोले-ॐरे गणश 
खच्या इतना वीमा्‌ हो गया फि खाट टौ पकडली ओर तुमने बताया भी नी। 
तुम स्कूल की चिन्ता न करो वच्यै कौ देखभाल करो। योलो-भै क्या कर 
सक्ता 2 वाजार से कोई दवाईं आदि मगानी ठे ता वताओ। साह्य शमिंदा 
न करै-गगेश ने नप्रवापूर्वक कटा। चलते चलते प्रधानाचार्य ने गणेश को 100 
स्पयेकानोटदे दिया ओर वोले इसे रखलो जरूर टौ सकती टै चेतनं 
के समय क्मनले तेना दीक काम गणेश -सहम आप बडे लोग 
है विवशा न क्दे। सव ठीक खल रहा दै। पः प्रधानाचार्यं तो रवाना टौ 


चुके धे। 


युलीन शेकश्िक चिन्तन/96 


सरि ग्रन्था नीतिशास्त्र खा सार इसम आ जाादटै करि ट्म 
दुसरा कं लिए काम आ सके तभी इस शरीर की सार्थक्ता हं । मानव जौवन 
षा उदूदश्य ही यट यनता है कि आप दूसगें क लिए जीना सीखं सामूहिक 
उप्रति का प्रयास करे मिप्रा को सुखी वना सके दूमगें को प्रगति के पथ 
पए आगे यदत दण कर्‌ प्रसन्न टो उनकी उन्नति म ठौ अपनी उन्नति माने। 
यहि आप दूसर्ो वो सुखो यान म तनिक भी योगदानं कर सके ता आपका 
जावन स्यत तौ उन्नत एव ससृत यन जायगा। मित्र आपकं दृष्टिकण का 
आदर कग दूसरा फ हित म अपना हित सोचगं ओर आपको कभी किसी 
का अभाव छ्य अनुभव नही ठोगा। एसा विचार टौ आपवो किसी का शापण 
न केन क] उद्यत वनायेगा सयक साथ आपका व्यवहार उदारतापूणं हागा अपने 
लाभ कौ यात पौषे तथा मिप्रो-दूसरा क हित की लाभ की वातत आप अगि 
रेणे आप किसी पर माराज नही ठे सवक साथ सरिष्णु यन जार्येने 
दूसरा का काम निवटाना उनकी संवा कटा हौ आपका जावन दर्शन यन 
जायगा। परिणाम स्वरूप आपकर सवका सेह मिलगा आपको सभी मार्च 
पर सफलता मिलेगी सेवा का मूल रै प्रेम असा ओर पपौपकार। इस भाति 
सेवा से जा सु मिलता रै, सही अथीं म वही एक मात्र सच्चा मुख है । 
प्ययहार मं आप देखते है कि कई यार धनी शिक्षित व्यक्ति मानषीय ्यवहार्‌ 
से नाचे गिर जातं रै। राजस्थानी मे एक कायत रह जिसके अनुसार रमै 
व्यक्ति पठे हो बहुत है पर्‌ गुणे नरी अर्थात्‌ ज्ञान को उन्दने जीवन्‌ मेँ नर्ही 
उताए् है। 
सभी सोचते है कि मानव का स्वभाव सुखी जीवन जीने काह। 
यह मिल जाये तो अच्छा है यह सुविधा मिल जाये तो जीवन थोडा आरामदायक 
तो सकता है। मनुष्य यट नौ सोचता कि जितनी सुविधाए षह चाहता है, 
जितने सुखा की वट चाना कर रष्टा है उतने हौ सुख सुविधाए्‌ मित्र या 
सगी साथी भी तो चाहतं होगे चाह सक्ते हे। यदि वै सव आपको मिल 
जार्यै तथा साथिया को न मिले तोयेदुखी ष्ये! क्या मै सव आप उनके 
स्स्तिमे से प्राप नहो कर रट है? यदि ेसा द तो कल्पना कीजिये कि 
समग्र समाज सुखी कैसे रह सकता ह? एक अच्छे इन्सान के रूप मेँ यह 
तो आपको साचना टी होगा। 
अरुण को ककरी पटना ह-देर छो रही हं। यदि उनको पत्री 
खोट पहनने मे या दृढ कर उपलब्थ करवाने मं मदद करती है तो अस्ण 
प्रसत्रचित चेनकनरौ पचते है} माना कि उनकी पत्री उर्दशी को भी कई काम 
निषदाने ह। पर अरुण के एवाना ने के याद सभी समय जैसा चाहे जो 


युगीन शेषिकं चिन्तन 


चाह काम वे कर सक्ती ई। जय कोट उपलव्थ क्यादेने सै अरुण कौ 
कितना सुख मिलेगा वह प्रसनचित फेक्टरी पटचेगा दिनभर कर्मचारियों के 
साथ स्वस्थ दिमाग से चहकते हुए चेहरे के साथ काम निपटायेगा। अव कल्पा 
कीलिये कि इस असमजस कमै स्थिति मेँ यदि वट घर पर आलमारी की 
चाबी भूल जाता है या चश्मा शूट जाता ह ता उसे दिन भर कितनी असुविधा 
हो सक्ती है? यदि वह अग्रसर हज उदासीन हुआ तो दिन भर चिडचिटा 
रेया यट सहकमिया से क्षगड भी सकता है इसमे उसे मानसिफ शात्ति 
तो नहीं मिलं सक्ती काम का वाछठित मातरा मं निष्पादन नहीं लेगा अपनी 
स्वय की हानिं होगी ओर मोटे रूप से रष्टरीमे अपव्यय ोगा। 
उर्थशी जिस भाति पति को प्रसनतापूर्वक हसमुख मुद्रा मे रवाना 
कर रही हे उसी भाति उस सन्ध्या मेँ पति का लौटने पर स्वागत भी कना 
चाहिए। दिन भर का थका काम के प्रति उदासीन कमचारियो को राट पर 
लाने मे उसे कितनै प्रयत्र करने पडे है न सवमे दूर घर्‌ पर उसे वनावटीपन 
नही लगना चाहिए मा पत्री तथा वर्यौ का सेह प्यार वात्सल्य उस मिले 
पह पूरी तरह से स्वतन्त्रता अनुभव क्र सके खुल कर अट्टहास के साथ 
वह टस सके। यदि यहं सव हो जाता है तो वह एक उपयागी नागरिक 
के रूपमे रार कौ सेवामें प्रस्तुत होता है। 
दूसरा फी सुरक्षा कौजियै आपकी सुरक्षा अपने आप ठो जायेगी 
दूसरो को भुख पटुचाइये कईं कठिनारया स्यत्त ही हल हां जायेगी। एक 
वार विद्यालय निरीधक निरीक्षण कं लिए पधार विध्रालय सुव्यषस्थित चले 
रहा धा-कोई गम्भीर अव्यवस्था देखने को नी मिली तो सहस्रा निसीक्षक 
जी ने पूष्छा-अद्वंवार्पिक परीभा की कापिया जाच कर अभी तक किसने नही 
लौटादं टै? प्रधानाध्यापक भी चतुर धे। बात रालने के लिए निरीक्षक जी 
को अन्य अभिलेख देखने में व्यस्त कर दिया। पर फिर दूसरी बार निपीश्षक 
जीने वही प्रर किया इस वार प्रधानाध्यापक ने विद्यालय पत्रिका की तैयारी 
का विवेचन आरम्भ कर दिया पर्‌ निरौभक जी ने फिर उत्तर पुस्तिकां 
के लिए पूष्ठा। अब देखिए प्रघानाध्यामऊ किस प्रकार अपने साथिया का घचाता 
है? प्रधानाध्यापक का उत्तर था कि अर््रवापिक परीक्षा कौ उत्तर पुस्तिकाय 
जाच कर समय पर न लौटाने वाला की सूची में पला नाम ता भेर लिखिये- 
मैने अभी तक नही लौटाई हे। भव मै परीधा प्रभारी को बुला कर पृ 
लेत हट वि ओर एसे कितने अध्यापक है? स्वय प्रधानाध्यापक का नाम आति 
ही गात यही आई गई हो गयौ। जब यह वातत लिपिक ने स्टाफ के साधिया 
को अगते दिन बताई तो प्रधानाध्यापक जी का चेहरा कितना प्रसन था? स्टाफ 


युगीन शैषिक चिन्ता/98 


के साथी तो एटसान मानी रहे थे। 

दरो की सुविधा का तनिक ध्यान रखिये-उनके मन कौ जीत लीजिये 
उनकौ कष्ट मेँ मत डालियं फिर दखिये कैसा व कितना आश्चर्यजनक काम 
होता है कितना अच्छा परिणाम प्राप्त होता है। एक वार एक जिला शिक्षा 
अधिकारी प्रात दी विद्यालय में पुव तथा सामान्य वातचौत क बाद वे जानना 
चालते थे कि कौन कौन अध्यापक मुख्मावास पर नहीं रहते है । प्रधानाध्यापक 
यह तथ्य घताना नही चाहते थे। वोले सर आप प्रार्थना सभातो देखना हौ 
चादैगे प्रार्थना हो छ रही ह-पधाप्यि वच्चां को आशीर्वादं दीजिए। प्राथना 
से लौट कट, आफिस भे पटुच कर शिभा अधिकारी जी ने फिर मुख्यावास 
पर न रहने वालों के नाम जानना चाहा तभी प्रधानाध्यापक योले-सर घटी 
लग गई है तथा अध्यापन कार्य शुरू हो गया है-आप तो अपने समय के 
ख्याति प्राप्त अग्रेजौ क अध्यापक रहं है तो एटमारे शिका का मार्गदर्शन कीजिय। 
प्रधानाध्यापक ने कागज लगे व्लोप पेड को शिक्षा अधिकारी जी कौ ओर 
चढाते हुए कहा सर न्वं कक्षा अप्रेजी पढाई जा रटी है। कक्षा देख 
कर अधिकारी जी जव वापस पधि तो फिर वटी रट कि उन अध्यापकों 
के नाम वताओं भाई टालो नटी। अब तो प्रधानाध्यापक जी कौ बोलना 
ही था पे वोले-सर सयसं पटले मेर नाम लिखिये भ यहा नटी रहता 
र, मै ही सदैव अपडाउन क्वा हहू। अव यँ पूछ लेता हं कि कौन कौन 
सहा नही रहते है? म सोचता षं कि सब यहीं रहते टै पर पुष्टि के लिए 
प्रथम सहायक से पूछ लेना भी जरूरी दै। वस्तं इतना कहना था किं वात 
यही समाए हो गई-समास टोनी ही थी! 

अव आप जया ध्यात दीजिये कि प्रधानाध्यापक ने इन दो उदाहरर्णो 
म अपने सहयर्मियो के प्रति सहानुभूति वता ट उनको क्ट से वचाया है 
एेसा करके उनका हदय जीता है! अव यदि कभी प्रधानाध्यापक यष्ट के 
कि वों की परीक्षाए्‌ निकट आ रही है जरां दसवीं तथा वारटषीं कक्षा 
कर विद्यार्थियों को रविवार को मागदर्शन देना है जिससे कि वे परीक्षामं 
अधिक अच्छे अक प्राप्त कर सके या गणित या अग्रेजी क्य पाटूयक्रम अतिरिक्त 
समय मे पूरा करवाश्ये या विज्ञान का प्रायागिकें कार्य विद्यालय समय क 
बाद स्क क्र मूग क्रव्ये तो क्या ये शिभक मना कगे? यदि कभी 
प्रधानाध्यापक पर कई कष्ट आता दिखा तो क्या च सव शिक्षक एक हो 
कर क्ट सं बचने का उपाय नटी करे? एसे ही क्षणं मे सवदनशीलता 
स्पष्ट हाती रै। सव क सव अध्यापक पूरा स्टाफ प्रधानाध्यापक की सहायता 
के लिए खडा हो जायेगा! अधिकातै कौ चादिए कि अधीतस्य अधिकां 


युगीन शैक्षिक चिन्ता/99 


एव कर्मचारियि; का साहस वदढाये उनकी पीठ यपथप्रये उनको उप्रेपि करे 
उनके तो की सुरक्षा करे फिर देखिये कार्यो मे कैसो चमत्कारपूणं सफलता 
मिलती हे। 

एसे सवेदना के सहानुभूति के मदद के अवसर हर व्यक्छि के 
जीवन मे आते है! आवश्यकता है उन्ह समक्षने की तथा समज्ञ कर लाभ 
उठने कौ। दीप्ति कालेज तै आई है आज उसे गृहविञ्ञत की व्यावहारिक 
परीक्षा देनी थी-पतता नही लगातार वट कितनी दर खडी रहौ वही स्थिति 
सुधा कर विज्ञान के य्यावटारिक कार्यो के समय हो जाती है। अब यदि इनके 
धर लौटते हो माता कहै कि वेटी-खाना बनाले तौ दीति या सुधा कौ कैसा 
लगेगा? इसके विपरीत यदि माता दीप्ति के आते ही उसे नासता देती हैया 
चाय पिलातौ ह या सुधा को पानी का गिलास देती है तो दीति या सुधा 
का मनत कितना प्रसन होगा? दिन भर की थक्ान से सुधा या दीति का मुरज्ञाया 
चैहण एके दम धिल उठेणा वे प्रसतता से भर उठेगी। माता भी थकी टौ 
सक्ती ह सम्भवे वे भी दिन भर व्यस्त रटी हों पर माता को अपनी 
धकान या स्यस्तता नही बतानी है । माता को बेटी का स्यागत करना टै उसकी 
दिनचर्या पृषती दै। माता कौ थकान तो पुत्री दुर कैगी ही उसके कामो 
भै हाथ वटायेगी ही। पर इसके विपरीत यदि आपने उदासीनता बरती या 
शुञ्चलाठट बताई तो जीयन कष्टमय हो जायेगा । प्रत्र कीजिये "कि जीवन मधुरएव 
सुखमय नने सके। वेटी आपसे टी तो शीलगुण नम्रता अध्ययसाय विनय 
सवेदनशीलता सीखती है! पुत्री का भी दायित्व टै कि वट माके कामो मे 
सहायता करै माके सिर में तेल डालना उसके कपडो पर इस्तरी कर देना 
यदिषे विश्राम करके उठौ टै तो तत्काल ही चाय तैयार कर प्रहुत करना 
अच्छे परिवार के लक्षण है एसे परिवारो मे स्वगं के समाने सुख ये रहते 
है घर के अन्य सदस्यों को सुख सुविधा का ध्यान रखे-यही तो सवेदनशीलता 
दै। माता-पिता भाई का अधिके ध्यान रवते है तौ इसको भी वुदा न माने 
आप अधिकाधिक काम कर माता पिता की अधिक लाडलौ यन सकतौ है 
मात्रा पिता करा मन रखनं के लिए आप भी भाई को अधिक सम्मान दे 
उसका ध्यान रखे एेसा करके आप माता पिता की भावनार्भो कौ रक्षा कर 
री है बदले मे आपको भी मिलता है भैया का असीमित लाड दुलार 
प्यार। माता पिता भाई का अधिक ध्यान रखते है या उसके लिए अधिक 
सुख सुविधाए जुटाते ट-ध्यान रद्िये कि इन वाहौ पर सोच विचार करके 
कंभौ भाई से ईर्या या डाह न करे नटीं तो परिवार मरक वन जायेगा। आपको 
कभी कोई दसा कार्यं नटी कना चाटिए जिससे भाई या माता-पिता वो 


युगीन शे्िक विन्तन/100 


कष्ट प्ट्चै। माकोर्टी कीत्थायेटीकोमा की भावनाओं वा सुख 
सुविधाओं का ध्यान रखना टौ है। पारिवारिक सुख शान्ति के लिए दूसरे 
के मन यी उनकी भावनार्ओं की रक्षा कौजिये उनके विचारा पर ध्यान दीजियै। 

परति कं रूप मे आपकी जिम्मेदारी अधिक टौ सवती है आपका 
कायकेत्र धर के याहर रता है । पर जव भी धर पट.रटने का अवसर मिलता 
है तो पत्नी क कामो म हाथ वदना न भूलिये। पत्री गाय को पानी पिता 
रही ई तथा चद पर मेहमान आ गये ह तो रमेश विना पत्री कौ प्रतीक्षा 
कयि स्वम ही मेहमान फे लिये पानी का गिलास ले आता रै। इसी भाति 
जव कभी पत्री रसोईघर मे व्यस्त दोखी तथा मुना रन लगा ता एमेरा तत्काल 
हीर्सेगोदमतैलेताहै। ए्मेशके दिमागमरै ही नही कि यट काम 
केवल प्त्ौकाद्ट ई पतरीको हौ कना है। मनोविज्ञान क अनुसार काम 
मे जव परिवर्तन अता रै ता यह परिवर्तन हौ विश्राम कारूपलेलेताहै 
परिवर्तन से एकरसता समाप्र होती है तथा सुख मिलता है। 

इसके विपरीत यदि पति कार्यालय से अते ही वर्चो पर क्रौधकये 
पत्री कै कौम मे दोप निकाले उसरी आलोचना करे उसकी उपेक्षा कर 
उसकी कम शिक्षा पर ताना मारे या उसकी ओर ध्यात न दै तो परिवार 
कष्टौ मे फस जायेगा। पत्नौ भी आपकी टौ तरह सवेदनशील टै उसका भी 
हदय है वह भी प्यार नेट सम्मान चाहती ह आप ही उसे सभा-सोसायटी 
भेले जाने योग्य बनाये पत्री मे क्ट अन्य गुण टो सक्ते है कई अन्य 
मित्रा मे सही जानं वाली विरोषतराये टो सक्ती हं आप उन पर ध्यान 
दीतिये नकाएत्मक दृष्टिकोण टोषियि इसं पास न आने दीनिमै। लंखक का 
्षतिपूर्तिं सिद्धान्त म॑ दढ विशधास है! ्यवहार र्मे आप देखत है कि अधे 
प्य कितने सटनशोल होते है खव दो अथे व्यक्ति टकरा जाते हैतोवे 
कुछ नटी कहते। एक कमी कौ जगह दूसरे गुण की अधिक पूर्ति हा गई। 
कई वाये हाथ सै लिखनं वालों को लिपि कितनी सुन्दर होती है भानौ मोती 
टो! इन उदाहरणं म क्षतिपूर्तिं का सिद्धान्त टौ काम क्दर्हाटै। 

पत्री आपकं ध्या भेदो श्व की भूखी है उसे कु नही वारिए। 
उसके वच्वा को आप प्यार करे यही उसे प्रसनता से भर दगा। प्रभाकर 
पत्री के अनाये खाने की बडी प्रशसा क्रा है। कभी वह रसाई में देखता 
है कि पी सन्जी कतर रहौ हं तथा दूध चूल्टे पर गर्म ्ो रहा है तो प्रभाकर 
पत्री से यते कटने के बहाने दूध उवलने तक वही खडा रहता हं इथा चूला 
यद क्र देता है! एसा करके प्रभाकर पत्री कौ सद्यनुभूति जीत लेता ₹ै। 
पती भौ यदि कभा कष्ट मे है ता सटानुभूति जवारये। प्रभाकर पत्री कौ सहलिर्यो 


युगी शेकषिक चिच्तन/101 


का वडा सम्मान क्ता हं कभी कभी यह रउन्टं पत्र पत्रिका मेँ लिवने 
के लिए भी प्रेरित करता र मागदर्शने करता है यताता है कि किसर पत्रिका 
मं क्या पने की सम्भावना हो सक्तौ ह! पत्री आपकं परिवार का आपका 
अभिन्न अगण है ओर उसका अपना स्थान है उप्रका अपना व्यक्तित्य है आप 
उसी गरिमा स्वीकार कीतिये उसका महत्वपूर्णं स्यान है उसकी भावना 
कौ विचार्यो कौ रक्षा कीतिये उन्हें उच्च स्थान प्रदानं कीजिये। 
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट टै कि कोरा कितावी डान या सट्रान्तिक 
ज्ञान ही काफी नी दै। लेखक कं ङ्न मे एसे कई दम्पती है जो ठ 
शिक्षा प्राप ह पर पारिवारिक कार्यो मे तालमेल न विदा पनिसे दानो के 
सम्बन्ध विच्छेद हौ गये दोना एक दूसरे कौ वात भाने को तैयार ही नरी 
दोनो अपने अपन विचाते पर घ्ठता सै अड जातं दोना का अपना अपना 
अहम्‌ सुमधुर वातावरण की रचना मेँ वाधा वन जाता। इससे स्पष्ट होता है 
कि सैद्धान्तिक ज्ञानं तथा दुनियादारी की समञ्च वृज्ञ म॑ बडा अन्तर टह॑दोनो 
मे बुनियादौ भेद है । उच शिक्षा प्रात सैद्धान्तिक ज्ञातं धनी उदारता सयेदनशीलता 
मने पर अग्रि ष्ठो सक्ता है! सम्भव हं वह दूसर्यो का दृष्टिकोण समङनं 
का प्रयत्र हीन करै वह आर्वशम कु भी वाल सकता है वह चिडचिडा 
हा सकता रै उसकी वालो कर्कश ठा सकती है उसका ष्यवहार मानवता 
सेषरेदो सक्ता वह शोघ्रतामे किसी को कुठ भी कह कर अपमान 
कर सकता हे। एसे आदमिर्यो से कौन मित्रदा करना चाटंगा? यह तो मनुष्य 
रूप मे पशु समान टै उसे दूर से टी नमस्कार कीजिए्‌। 
0 


युजीन क्षिक चिन्तन/102 


विकास के लिए शिक्षा 


एजम्थानी मे एक कटवत्‌ क अनुसार पडे लिखे ्यच्ि के चार 
ओद धेती हं । व्यवहार में चार आंखें किसी भी व्यच्छि के नही देखी वाती- 
अते इसके शाब्दिक अर्थं पर ध्यान न देकर गूढ अर्थ मँ छिपौ भावना पर 
विचा कला चाहिषए। सदी अथो मे पदा लिया ष्यक्ति केवल अपने लिए 
हौ नरी जीता यह दूसरे के सुख दु ख मे भागीदार वनता है उनकौ सहायता 
कता है यड दितो के लिष छोटे स्वार्था का त्याग करना सीखता है सटफार 
के साध काम करक प्रसतता-गौरव अनुभव करता रै ओर सन्तु ष्यक्ति हौ 
कम समय मे अधिक काम का निष्पादन करता है। देसी रिक्षा टी सटी 
रिक्षा विकास कौ शिक्षा है। 

पिल तीन चार दशब्दियो से विश्च के सामाजिक चिनर्को 
अर्थशस्तियो समाजविङ्ञानिया तथा योजना बनाने वालो का ध्यान विकास वी 
ओर्‌ केन्द्रित रहा है1 आज सभी निर्धन देश विकास कसना चाहते है क्योकि 
वे जानते हं कि केषल विकास या सम्पन्नता हौ उनके देशवासियों की भुखमरी 
वकारी गरीवो एव असन्तोष आदि से ्रुटकार दिला सक्ती रै। विकासे के 
लिए शिक्षा टौ इस प्रकार्‌ क विवार का फलितार्थ है। आन प्रत्यक राष्ट 
विकाम कौ दृष्टि सेद शिक्षा कौ योजनार्ये वना रा है। भाएत म विकास 
के लिए रिक्षा के चिचार्‌ ने 1960 से ही जोर पकडा तथा खोठारी रिक्षा 
आयोग (1964-66) ने तो अपने प्रतियेदन का नाम ही शिणा ओौर रषटरीय 
विकास पसद्‌ किया। 

यदपि निर्धन राष्ट भो विकास के लिए शिधा पर विचार कर रहे 
हे तथा योजनाय भी वना रहे ह पर वै विकास के लिए रिमा की निश्चित 
भूमिका पर अममजस मे हे सन्देह मे है। क्या शिक्षा किसी राष्ट्र के विकास 
मै मदद क्ती है? यदि दा तो कैसे? किम प्रकार प्राविधिक तक्यीकी 
व्यावसायिक सारित्यिक या उदार या धथ कौ तथा किम स्तर की (पूर्व 
प्राथमिक प्राथमिक उच्चे प्राथमिक माध्यमिक उच्च माध्यमिक या उच्च या 
विश्वविद्यालय स्तरीय) शिभा तुलनात्मक रूप क्षे अधिक मदद कर सकती है? 
क्या शिभा का नियोजन इस प्रकार क्या जा सक्ता है कि इससे विफास 


युमीन स्ेकषिक चिच्तन।103 


कौ कई गुनी तीग्र गति व दर मिले? आज विश्च के विभिन्न देशो मे इस 
प्रकार के प्रश्नों परर विवाद है। प्रस्तुत अध्याय मेँ शसं प्रकारके प्रश्रो का 
उक्तर देने का विनम्र प्रयास किया जा रह है जिससे आर्थिक विकासं मे 
शिक्षा कौ भूमिका पर प्रकाश पडे तथा नीति निर्धारण मे लाभ उठाया जा 
सकै। 

व्यवहार मै देखा जाता हं कि शिक्षित व्यक्ति मशोर्नो को अधिकं 
सविधानौ सै चलाता है इससे उनका जीवन (लाकफ एक्सपेक्टैन्सी) बढता 
है उनके रखरखाव या सार सम्भाल पर खर्घा कम आता है। कारौगर कम 
समय ममे उतनी ही या अधिक मात्रा मे वस्तुए्‌ पैदा कता है, इसमे प्रति 
इकाई लागत खर्च कम आता है तथा वस्तुए सस्ती विक्ती ह इससे उपभोक्ता 
अधिक चस्तुए काम मेँ लेने योग्य बनति दँ इससे सम्पतता वदती ह । सम्पत्न 
व्यक्ति अच्छा खाना अच्छा कपड़ा अच्छा मकान तथा वर्चो के लिए ठ 
स्तर की शिक्षा तथा मनोए्जनं के साधन जुटाता है! यदि उनका जीवन स्तर 
ऊचा उठता है तो ये नई वस्तुं की माग करेगे जिससे उनका उत्पादन 
बढाया जायेगा या शुरू किया जायेगा व्यवसायी अधिक उत्पादन के लिए 
अधिक श्रमिक चार्हेगे इससे रोजगार के अवसर बदेगे यृषद्‌ स्तर पर उत्पादन 
के कारण वस्तुए्‌ सस्ती होगी फलत उनकी ओर माग बढेमी तथा ईस प्रकार 
यहं रोजगार के अवसो की वृद्धि का चक्र निरन्तरं चलतां रहेगा। 

पराचत्य देशो मे हुए अनुसधानो से स्पष्ट हुआ टै किं शिक्षित मरिलाओ 
ने कम सन्तान को जन्म दिया है अर्थात्‌ गर्भ धारण कएने की उनकी इच्छा 
भे कमी आई है इससे माताओ के स्वास्थ्य मे सुधार हुआ रै जीवव का 
विस्तार यढा है तथा स्मास्थ्य एव चिकित्सा सेवाये अन्य जरूरतमर्दो को उपलब्ध 
होते लगी ह वच्वा के लालन-पालन मे सुधार हुआ है उनका जीवन स्तर 
ऊचा उठा टै इससे उरे उपयोगी नागरिक बनने में मदद मिली है। यह 
प्रभाव भातत मे भी देखा जा सक्ता है। 

रोजगार प्राह कम शिक्षित व्यक्ति को उच्च शिक्षा पाते ही उच्य पद 
पर पदोन्नत कए, उच्च वेतन उपलब्ध करवाकर समाज मे धन फे समान वितरण 
क्रो अग्रसर किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षा न कवल उत्पादन तथा 
विनियोग मँ ही मदद करती है वरन्‌ यह वितरण मेँ भी मदद कर्ती है सक्षेप 
म॑ यही पिकासर के लिए शिक्षा है। 

विकास के लिए शिक्षा कां अर्थं 

विकास के लिए शिधा का अर्थं समय समय पर बदला रहा है। 

कभी जिस सन्दर्भ मे प्रगति पप्रोप्रेस) शब्द का प्रयोग किया जाता था आज 


युजीन शैषिक चिन्तन/104 


उसी सन्दर्भ मे विकास शब्द का प्रयोग नर्ही किया जाताहं ओर आज भी 
भिन- भित्र लंवक विकास का भित्र-भित्न अर्थं तगत है वे सय विकास 
के एक अर्थं पर मतेवय नहीं रखते हं यह षषप्र वडा हौ विवादास्पदं वन 
गया है। अर्थशास्त्री विकास का अर्थं आर्थिक युद्धि यो यदवार ग्रोथ) से 
लगाते ई जयकि समाजगास््री इसका अर्थं प्रचलिते सामाजिक प्रतिमान पर 
नेये प्रतिमान की स्थापना या परिवर्तन से लेते हं। हम तथ्य को तेकर विभिन 
चिन्तक या योना निर्माता अपने विचारो म क्तिनी हौ भिता रखते हो 
णे सव इस एक यति से सहमत ह कि विकास का जन साधारण कौ सम्मतता 
हथा उनके कल्याण से गाढा सम्बन्ध है। इम दृष्टि से स्पष्ट कटा जा सक्ता 
ह करि विकास का अर्थं जनसाधारण के लिए बुनियादी सुविधार्ओं मे अभूतपूर्वं 
यद्धि उनके जीवन स्तर मे सुधार तथा उनके सोघने-विचारने के दृष्टिकोण 
मे व्यापकता लाना है ¦ उत्पादन तथा वित्तीय साधनो मे यद्धि करके यह उदर्य 
प्राह किया जा स्ता है! इस क्रम में यात्तायात तथा सम्पण कं साधन भा 
जोड जा सक्ते है व्ही शिक्षा तथा चिकत्सा-स्वाथ्य सवाओ म सुधार भी 
महत्वपूर्णं स्यान रखते हं! विकास कौ इस प्रक्रिया मे प्राकृतिक सम्पदा तथा 
भौतिक सुविधार्ओ कौ महत्वपूर्णं हौ नहीं निर्णायक भूमिका भी रहती है। 
न दोनों की अनुपस्थिति मे विकास की ध्र्रिया पर विचार टी नही किया 
जा सर्यता। 

विकास कै लिष प्राकृतिक साधनो तथा भौतिक सम्पदा का दौहन 
अधिकतम सीमा तक वाष्टनीय हो नहीं यरन्‌ अनिवार्य है । यह केवल तभी 
किया जा सक्ता है जयकि उत्पादन कार्यो मेँ लगी मानवशक्छि शिभित हो 
दरेण्ड ठो+ इस भाति प्रकारान्तर से यह कष्टा जा भकदा है कि विकास के 
लिए शिक्षा प्राथमिक आवश्यकता है! इसीलिए जनसाधारण रिक्षा की बात 
कएता है। अव कुछ प्रश्न उठते है जैसे विकास क प्रक्रिया में दिमाग व 
चित्र की भूमिकाओं की कितनी आवश्यकता है? विकास के विभिन स्तरो 
पर क्सि प्रकार की शिक्षा तथा किस स्तर कौ शिक्षा की कितनी आवश्यकता 
है? आज की शिक्षा प्रणाली मे विकास की गति को तैज कएने के लिए 
किम प्रकार वै परिवर्तो कौ जरूरत है? आज की स्थितिया मे यदि इन 
प्रश्रं क्न उत्तर प्रभावी बनाया जा सके तो एसी शिश्चा को विकास के लिए 
शिक्षा कहा जाना -चा्हिए। 

जनसाधारण विकास के लिए शिभा दृष्टिकौण पर्‌ दो प्रकार सै विचार 
कर्ला हआ पाया जाता है। प्रथम के अनुसार-विकास कै लिए शिक्षा का 
अर्थं हं-ष्यावसायिक रिक्षा खैती-वाडी या उधोग धर्धो या भारी व्यवसाया 


युगीनं शैक्षिक चिन्तन/105 


की शिधा चिकित्सा या अभियान्िरी शिभा जिसे प्रति व्यक्ति या रष्टय 
आय सीधी प्रभावित होती है 1 इससे दूसरा अर्थं लिया जाता रै कि मानव 
को विकास करी गतिविधियां के लिए उद्यतं किया जाये उन्म इच्छा विकसित 
कर तत्पर वनाया जाये क्रि यह उत्पादन के साधनों का अधिक प्रभावी एव 
सही उपयोग करे जिससे उनका जीवन स्तर यदे, उत्पादन का लागतं खर्च 
कम आयं क्म समयमे वस्तुओं कौ अधिक मात्रा चैदा की जामे जिसे 
वस्तुए सस्ती या कम मूल्य पर विके तथा उपभोक्ता अधिक वस्तुमो कौ मा 
क्र फे अभिक वस्तुओ का उपभोग कर। इसमे उपभोक्ताआ मे इच्छा उत्पत 
करना तथा उपभोग के लिए त्याग करने को तत्पर यनाना दाना टी सम्मिलित 
है। क्षत्र का विस्तार करते हुए दोनों वाता पर विचार कियाजारतहै। 
आर्थिक विकास मे शिक्षा की भूमिका 

एक लम्बे समय से विकास में शिक्षा की भूमिका प्र योजना से 
जुडे अधिकारियो मे मतविभितता रही है । प्राय क्डं शताब्दियों से शिक्षा को 
समाज सेवा भाना जाता रहा है आज भी शिक्षा वो राजकीय व्यय मै समाज 
सेवा की विभिन मदां मेँ ही सम्मिलित किया जाता है तथा प्रत्यक्षत आर्थिक 
विकास भे इसका योगदान मगण्य या नाममात्र का माना जाता है। पर अव 
इस विचार म परिवर्तन आया है तथा आज इस विचार षो कोई महत्व नही 
देता कोई इस पर ध्यान भी नदीं देता है। इससे अधिक कि आज शिक्षा 
को विनियोग माना जाता दै क्याकि यह प्रति व्यक्ति राष्ीय आय कौ प्रभावितं 
कर्ती रै । इस प्रकार्‌ विकास की प्रक्रिया म शिक्षा अभिन अग वन गई है। 

आज यह तर्क महत्वपूर्णं माना जा रहा है कि श्रमिक की उत्पादकता 
बढा कर्‌ विकास की गति याप्रद्रिया को तेज किया जा सक्ता है जिससे 
रष का सकल उत्पादन बढता ई फलत प्रति व्यक्ति आय भी सकारात्मक 
रूप से प्रभावित होती है । आर्थिक विकास के सूचको मे से यह भी एक 
-महत्षपूर्णं सूचक है । शिणा यट कार्य करती है । श्रमिक के ज्ञानं का विकास 
करके उसमे श्रम के प्रति निष्ठा था आदर विकसित करके उचित मूल्यो 
एव अभिवृतियौ का विकास करके कार्य कौ आवश्यकतानुसार कौशल अर्जितं 
करयाकर मस्तिष्क का सही दिशा मे विकास करके श्रमिक कौ अधिक उपयोगी 
बनाकर गट को विकास के मार्गं पर वदढाती है। 

आर्थिक युद्धि (ग्रोथ) की प्रक्रिया मे श्रमिक को प्रभावौ सहभागिता 
के लिए दैयार करके रिक्षा टी रष के आर्थिक विकास को सचालित करती 
है1 आधिक विकासं मे शिा कौ भूमिका पर अनुसधानों से निम्नलिखित निष्कर्षं 
प्रकाश मे अये ह 


युजीन शैक्षिक चिच्तन/105 


* साक्षएता की वृद्धि के साथ साय आर्थिक युद्धि (ग्रोथ) चढती हं! चालीस 
प्रतिशत से क्म साक्षर देश गरोव है विपन है जवकि 20 प्रतिशत से अधिक 
साक्ष देश धनी है- सम्यत हं। इससे यामेन तथा एण्डरमनं (1950) न यह 
निष्कप निकाला कि किसी भी देश को निधित स्प सं आर्थिक सकटो से 
मुक्ति पाने कं लिए 50 प्रतिशत साक्षरता से ऊपर आना ही ागा। 
* 'हरीसन तथा मायसं (1964) कं अनुसार मानव ससाधन विकास सकल 
उत्पाद तथा प्रति व्यक्ति आय म सयुक्त रूप से सकारात्मक सहटसम्बन्ध दै। 
* इष्टरलीन (1981) के अनुसार आर्थिक बुद्धि (ग्रोथ) आपचारिक रिक्षा 
कै विकास-विस्तार पर निर्भर करती है! स्टुमलाइन (1924) की सम्मति है 
कि पदा लिखा श्रमिक या कर्मचारो अधिक कुशल उत्पादव- होता है। 

इने निष्करपो स आर्थिक विकास में शिक्षा की सकारात्मक भूमिका 
की पुष्टि ोती ट। यहा इस तर्क पर विचार नहीं किया जा रहा टै कि शिक्षा 
के चिना आर्थिक विकास हो हौ नरी सकता। वास्तविकता यह है कि भिना 
शिक्षा भी बुष्ट अर्शो मेँ आर्थिक विक्रास टता हं। व्यवहार मे एेसे उदाहरण 
भा भिल जारयेग! यही कारण है कि आर्थिक विकास के लिए शिक्षा ही 
एकमात्र उत्तरदायी चटक नहो टै। इनमे अन्य घटक ह~ प्राकृतिक साधन 
वित्तीय विनियोजन अच्छी प्रवन्थन प्रणाली वैयक्तिक गुण आदि मुख्य हे 
इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण है उत्पादका की उपलब्धि उत्प्णा। शिक्षा मार्गदर्शक- 
उत्येरक एव प्रवोधन का काम करती है। यदि विकास के लिए अन्य तत्वं 
उपलव्य ह कार्वशील है पोपण कर रहे हं तो शिक्षा उन्हे अधिक तीतर 
गति प्रदान कर सक्तौ है। 
भारत मेँ शिक्षा ओर विकास की स्थिति 

विकसित दर्शो के ओंकड वताते ह कि शिक्षा तथा धिकास मे गहत 
सम्बन्थ है। पिल चार दशाब्दियों से अविक्सित देशो ने सभी साधन शिक्षा 
के विकास की ओर मोड पिये है इस अपेक्षा से कि इससे रष का विकास 
षहागा) भारत सहित अन्य सभी अविकंसित या पिक्ासोन्सुखौ देशों मे इस 
विचार के अतुसार शैक्षिक साधना का निरन्तर विस्तार किया गया है । आजं 
भारत में 6 85 ला प्राथमिके तथा उच्छ प्राथमिक तथा 68 हजार माध्यमिक 
तथा उच्व माध्यमिक मान्यता प्रा विद्यालय है । विश्वविधालय या विश्वविद्यालय 
के समकक्ष दर्जा प्राप्त 190 सस्यान ह 7000 महाविघालय र जिनमें 40 
लाख छत्रां को 2 लाख अध्यापक पदात हँ! अनौपचारिक रिक्षा कै 280 
लाख केन्द्र तथा प्रौढ रिक्षा कं 280 लाख केन्र है। सम्भवत रिक्षा की 
यह व्यवस्था विश्च मे सवे वडी है। षर प्रश्र यै करि कव्या शिक्षाके 
इस विस्तार से आर्थिक वद्धि (ग्रोथ) को मदद मिली है? यास्तविक्ता वो 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/107 


यह ट कि शिक्षा के इस विस्तार कं याद भी भातत मं आर्थिकं वुद्धि (ग्रोथ) 
अपेक्षित रूप एव मात्रा में नरह हुई है। 

प्रा सूचनाओ क अनुसार पचवर्पीय योजनाओं के माध्यम से 40 
चरो मे राष्ट्रीय सकल उत्पाद म 35 प्रतिशत कौ दर सै वृद्वि हुई टै जबकि 
शिक्षा के विस्तार कौ दृष्टि से यह दर अधिक होनी चाहिए! परिणामतव देश 
की आवादी का एकं चडा भाग आज भी गरीयी मे गु्जर-वसर कर रहा 
ह उन्ह बुनियादी सुविधाए प्रास नटी ह! फिर जीवनं स्तर मं सुधार की 
ता बात हो नहीं करनी चारिए। क्या इसे हौ विकास क्ल जाये? यह शे 
निश्चितं रूप सं विकास नहीं है। विकसित राष्ट की तुलना मेँ शिक्षा ने भारत 
मे आर्थिक विकास (ङवलपमेन्ट) म अधिक मदद नर्ही की है। 
शक्षिक नियोजन म॑ कहा गलती है? 

हमारी शिक्षा प्रणाली मे उसके विस्तार म कटा गलतौ हुई है? 
“ह एक महत्वपूर्ण प्रश्र शिक्षा नियोजर्को से वार वार पूछा जाता ै। हमारी 
आज की शिभा प्रणाली मे नीचे लिखे दोप ताये जाते ई - 

* शिभा का विस्तार दखने मे अच्छा लगता है पर यष जरूरत 
से कम है। प्राप्त सूचनाए्‌ यताती हैँ कि प्राथमिक उच्च प्राथमिक माध्यमिक 
उच्च माध्यमिक शालाआं मे प्रवेश चाहने पाले विद्र्थियो कौ दृष्टि से सुविधाए 
कमै विद्यालय भवने तथा अध्यापक भी कम रहै! 85 करोड की आवादी 
वाले देश के लिए रिक्षा की सुविधाओं का विस्तार उपयुक्त मात्रा म॑ ररह 
हआ हे। 

* शैक्षिक सुविधाओं के विस्तार मे असतुलन देखा जाता है । उघ्व 
शिा का विकास गुलनात्मक रूप से अधिक हआ है। वास्तविकता यह है 
कि आज उच्च शिक्षा आर्थिक विकास मेँ तुलनात्मक रूप से कम योगदानं 
करती है जयकरि यष प्राथमिक उच्च प्राथमिक माध्यमिक या उत्व माध्यमिक 
शिक्षा की तुलना भै करटी अधिक महगी या ख्चीली है। प्राप 1975 की 
सूचनार्भो के अनुसार एक स्रातक का लागत खर्च 66 प्राथमिकं स्तर के विद्यार्थियो 
फे खर्च कै बरावर है। 

* भूतकाल मे व्यावसायिक शिक्षा का विकास नहीं हु तथा शिक्षा 
के विस्तार पर खर्घं की जाने वाली सभी राशि सामान्य शिधा पर ही खर्व 
यी गई। यह समक्न लिया जाना चाहिए कि व्यावसायिक शिक्षा सामान्य रिक्षा 
की अपेक्षा आर्थिकः विकास मे अधिक योगदान करती हं} 

* रिक्षाकाजो कुष्ठ भी विस्तार हुआ है वह मात्रार्मेहैया 
सख्यात्मक है-गुणात्मक न्ी। इससे शिक्षा की गुणवत्ता का सीमाहीन हास 


युगीन शैक्षिक चिन्त१/108 


हुभा है। जनसाधारण को जो शिक्षा दी जा रही टै उससे शिक्षार्थियों मे उपयुक्त 
गुणो कौशल श्रम के प्रति निष्ठा या आदर तथा समाज सम्मत मूल्यों का 
विकास नही हुआ है शिक्षा व्यवस्था अनुपयुक्त है इससे राष्ट को आर्थिक 
विकास मे मदद मरही मिली है। 

* भारत मे वृहद स्तर पर वेकारी ह । भारी राशि खर्च करके बालको 
को शिक्षित किया जाता है तथा वे वक्रार हाने से देश के आर्थिकं विकास 
मे मदद नहीं क्र रहे हं! न केवल इतना हौ यल्कि भारत मेँ छिपी ह 
वेरोजगारी भौ है तथा आदमी जन बल काम कौ आवश्यकता के अनुसार 
शिक्षित भी नटी हुए है उदाहरण के लिए डाक्टर को कम्पाउण्डर का तथा 
इजीनियर को ओवरसियर का काम करना पड़ रहा रै। प्रास्त शिक्षा या दरेनिग 
की दृष्टि सै आदमिर्यो को उपयुक्त काम नहीं मिला जा है। प्राय गाल 
खूटी को वौकोर षेद मेँ विटाया जा रहा है। इसका परिणाम साफ़ है किं 
उत्पादन कै साधन फे रूप मे जैसी उनसे अपेक्षा की गई धी-यैसा पे नहीं 
करपा रटे ै। पर इसके लिए केवल शिक्षा को हौ नही वल्क सम्पूर्ण 
अर्थं व्यवस्था एव नियोजन को भी दोप देना चाहिए! हा शिक्षा की महत्वपूर्ण 
भूमिका से मना नहीं किया जा सरकता। 

* राजकौय तथा अराजकीय अनगिनते प्रवो के बाद भी हमार 
देशा मेँ निरक्षएता दूर नहीं हुईं रै। 1991 कौ जनगणना के अनुसार भारत 
मेँ आज भी 48 प्रतिशत ष्यक्ति निरक्ष ह । यह 48 प्रतिशत ही वह जनसख्या 
है जो श्रमिक कामगार या राज या निप्र श्रेणी के मजदूर षगमें आति 
तथा क्वा शिक्षाधिकापियो ने याजना बनाने वाला ने तथा प्ररासक ने इनको 
शिक्षित कणे षो कोई चिन्ता की है? फलत विकास में भी अन्त स्पष्ट 
दौखता है। 

* उच्च शिक्षित व्यक्ति कारण कुष्ठ भी रहे टो विदेशो मे जाकर 
वस जते है वहा उन्टे उच्च यतन सम्मान तेथा अधिकारियों का उत्साट 
वद्वक व्यवहार मिलता है कुछ वहा पठने के लिए जते हँ तथा अध्ययन 
समाप्त कर वही यस जाते ई । रट ने उनकी शिक्षा-दीक्षा पर धन रशि खर्च 
क है उनके लिए भव्य भवन विशाल पुस्तकालय साधन सम्पन्न प्रयोगशालारये 
सुरम्य क्रीडागण उपलब्ध करवाये ह । जैसा कि ऊपर कह गयां है € प्राथमिक 
विघ्यालय कै बालको का खर्दा एक टी खातक पर खर्च किया भया है। यदि 

अभिसान्विको या चिकित्सा क कत्र मे यात करे सो यह अनुपात 66 से ओर्‌ 
अधिक चैदरेषा। पाठक भिन्न राव रघ सक्ते ह पर गरौव देश या विकासोन्मुखी 
ष्ट के लिए तो इस प्रयृह्धि से चग ठो चाहिए अन्यथा प्रतिकूल स्थितिया 
यनी ही रटेयीः 
युमीन शैक्षिक चिन्तन/109 


* भारतीय रनसद्या का अधिका ग्रामीण आदिषासी गिरिजिन 
पिष्टडे वर्गं तथा महिलाओं का है । विकास में इस वर्गं फे योगदान कौ कोई 
परषाट नहीं की गई हं। यदि देश फे पियास कायो मेँ हस वर्गं का योगदान 
प्रा किया जाता तो निश्चयौ देश के आर्थिक विकासे यो इससे कलं अधिक 
यदाया जा सकता धा। 

दश मे आर्थिक वद्धि (ग्रोथ) कै निप्र स्तर कं लिए बहुशो मे 
एमासी शिक्षा ही उत्तरदायौ है ओौर फिर दापपूर्णं शिक्षा पद्वति भी कम उत्तरदायौ 
नही हं! इससं स्पष्ट हं कि न्यूनाधिक सूम से देश म सकल उत्पाद यदाने 
म शिभा प्रणलौ असफल या निष्रभायी हौ रहौ टै तथा उसका प्रभावे देश 
के आर्थिक विकास पर भो पडा है। 
निष्प्रभावी शिक्षा के लिए उत्तरदायी तत्व 

दश ये" आर्थिक यिकास गँ रिक्षा को निष्रभायी करने के दो मुख्य 
कारण यो बताये जा सक्ते ह। 

(अ) शिक्षा तथा आर्थिक विकास मे उपयुक्त सलष़ता न होना 

दरा के आर्थिक विकास मे शिक्षा का आशानुकूल योगदान न ्टोन 
का मुख्य कारण यह है कि भूतकाल मे हस दिशा भे कई उपयुक्छ, गम्भीर 
तथा पूर मन से प्रयत्र हौ नहीं किये गये। देश कौ रौकषिक आवश्यकताओं 
का अनुमान टौ नही लगाया गया देश की आवश्यकता तथा श्षिक सुविधाओं 
कै विस्तार म सई सम्बन्ध नही जांडा गया देश क पिकास के लिए उपयुक्त 
व्यक्तयो कौ आवश्यक्ा के ज्ञान के चिना हो अधाधुध शिषण सस्थाए खोली 
गई। पसा लगता दै कि य विना योजना के हौ हौ गया या शैक्षिक नियोजन 
वास्तविकता से परे किया गया या शैक्षिक नियोभनसम्बन्धी अनुमान षी 
तुदिपूर्ण लगाये गै 
(आ) साधनो की कमी 

दूसरा कारण है साधनो की कमी। गुणात्मकं एव उषयुक्छ शिक्षा याल 
को मागरिको यो सुलभ हा इसके लिये आवश्यकतानुसार साधन सरकार 
कै पास नर्तौ ह। पिषटली योजनां मे सरकार ने इस्रके लिए उपयुक्त ररि 
का आवटनं नरौ किया है यद्यपि हम सव स्वीकार करते हँ जानते हं कि 
शिक्षा उपयोगी प्रतिफल देने वाली हे। भरव कौ प्रथम पचवर्पीय योजना मे 
शिक्षा के लिए साव प्रतिशत धन दिया णया था जो आगे चलकर साती 
योजना मे (जो वर्थं 1991 भे समातं हुई है) 33 प्रतिशत हौ रह गया। 
यहा चह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1950-51 से रष्व सकल उत्पाद 
का 12 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च किया गया था जो 1986-87 मँ वदं 


युगीन शिक चिन्तन/110 


फर 39 प्रतिशत हो गया पर यह राशि 6 प्रतिशत से बहुत नीचे ह जिसके 
लिए कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) ने भी अनुशसा की है। यह अनुमान 
लगाया जाता है कि यदि 2000 तक सबको शिक्षा मिलनी चाहिए तो इसके 
लिए मात्र प्राथमिक शिक्षा के मद में हौ अगले 10 वर्पो में 80 00 कतेड 
पयो कौ आवश्यता होगी क्योकि इस लक्षय प्रापि के लिए प्रत्येक 5 मिनट 
में 230 छत्रो के लिए एक प्राथमिक विद्यालय खोलते रहना होगा। 
नीतिगत निहितार्थं 

शिक्षाके प्रतिफल के रूप र्मे विकास पर भारत तथा विदेशंर्मे 
सम्मादित कईं अनुसधान प्रतिवनं में प्रकाश डाला गया ह। इन शारा के 
निष्करपो से योजनाधिकारिया को लाभ उठाना चाहिषए्‌। विकाम की दृष्टि से 
इनके निष्कर्षं योजना के लिए आधार का काम कर सकते हं। कुछ पर यहा 
विचार किया जा रहा टै- 

* चूकि साक्षरता तथा साक्षरता का स्तर सीधा विकास से जुडा 
हुआ है अत देश की निरक्षता के निवारण पर सर्वोच्च प्राथमिकता क रूप 
मे विचार किया जाना चारिए। सन 1991 की जनगणना कं अनुसार यद्यपि 
52 प्रतिशत जनसख्या साक्षए हो गई पर यह काफी नटी ह तथा अभी भी 
कले के लिए वहुत कुछ शेप हं। 

* ण्यो ण्यो रिक्षा का स्तर वदता है रिक्षा का आर्थिक वृद्धि (ग्रोथ) 
कीदरके रूपर्मे प्रतिफल गिए्ता जादा है। इससे स्पष्ट है कि माध्यमिक 
रिष्ठा से मिलनेवाले प्रतिफल की अपेक्षा प्राथमिक रिक्षा से मिलनेवाला प्रतिफल 
अधिक ्टोगा। या ठच्च माध्यमिक शिक्षा क प्रतिफल सखावक शिक्षा के प्रतिफल 
से अधिक होगा इस प्रकार निष्कर्त कषा जा सकता ₹ै कि प्राथमिक रिक्षा 
का प्रतिफस सर्वाधिक होता रै। इससे प्रकारान्तर से यह कहा जा सक्ता 
है कि प्राथमिक शिक्षा हौ आर्थिक विकास में सर्वाधिक मदद फरती है भूमिका 
निभाती है! इस पियेवन से यह भी सकेत मिलता है कि शिक्षा के अन्य 
सभी स्तरो फो अपेक्षा प्राथमिक स्वर को सर्वोच्च प्राथमिकता दौ जानी चाहिए 
योक आर्थिक विकास मेँ यतौ सवते अधिक महत्वपूर्णं है सर्यधिक योगदान 
करतौ है ओर दुर्भाग्य से हो यह रहार कि हमरे देश रमे प्राथमिक शि 
कीषठो भारी दुर्गति हं इसे ह ससे कम महत्य दिया या रहा है। न केवल 
इतना हौ शिक्षा को सीढी मे यी सवस क्मयोर की है। प्रत्येक योयना 
भे प्राथमिक रिक्षा को दिये जानेवाते धन फे प्रतिशत मे कमौ आई ह। इते 
स्पष्ट ्ठोता है कि स्थितिया मे ठव ठक सुधार नही हो सका जय तक 
कि प्राथमिक शिक्षा के लिर अधिक प्रतितं धन खौ च्यवस्या न कौ जाय! 


युमीन शैशिक चिन्तन/111 


* भारतीय जनसख्या का अधिकाश ग्रामीण आदिवासी गिरिगन 
पिष्टे वर्प तथा महिलाओं का है। विकास भे इस वर्म के योगदान षौ कोहं 
परवाह नी की गई ह) यदि देश फे विकास कार्यो मे इस वर्ग का सौगदन 
प्राप्त किया साता तो निश्चय हा दश के आर्थिक विकास कौ इसमे करटी अधिक 
बढाया जां सकता था। 

दश मेँ आर्थिक वृद्धि (ग्रोथ) के निप्र स्तर क लिए यहुताशे मे 
हमारी रिका हो उत्रदायी ह ओर फिर दोपपूर्ण शिक्षा पद्वति भो कम ठत्रदाया 
न्त ६ै। इससे स्पष्ट है कि न्यूनाधिक रूप से देश मे सक्ल उत्पाद यढाने 
म शिक्षा प्रणाली असफल या निष्प्रभावौ ही री है तथा उसका प्रभाव देश 
के आर्थिक विकासं पर भी पष्ठाहै। 
निषप्रभावी शिक्षा के लिए उत्तरदायी त्त्व 

दश के आर्थिक षिकास मे शिधा को निष्प्रभाषौ कटने के दो मुखम 
कारण यो वताय जा सक्ते है। 

(अ) शिक्षा तथा आर्थिके विकाम मेँ उपयुक्त सलेग्रता न होना 

देश के आर्थिक विकास भे शिक्षा का आशानुकूल योगदान नानं 
का श्रुख्म कारण यह है कि भूतकाल मे हस दिशा म कोई उपयुक्त गम्भीर 
तथा पूर भन से प्रयव्र ही नी किय गये) देश की शैक्षिक आवश्यकतां 
का अनुमान हौ नरौ लगाया गया देश कौ आवश्यकः सथा रौकषिक सूषिधाओं 
के विस्तार मे कोई सम्बन्ध नरह जोडा गया देश फे विकास फे लिए उपयु 
ष्यक्तिया की आवरयक्ता फ ज्ञान के चिना हौ अधाधुध शिक्षण सस्थाए खोली 
गई। एसा लगता है कि यहं जिना योजना के ठी हो गया या शैक्षिक नियोन 
यास्तयिक्ताआ। से पर किया गया या शैक्षिक नियोजनसम्बन्धी अनुमान ही 
ुदिपूर्णं लगे गये) 

(आ) साधनां की कमी 

दूसरा फारण दै साधनों कौ कमी। गुणात्मक एव उपयुक्त शिक्षा यालर्णे 
को नागरिको को सुलभ हो इसके लिय आवश्यकतानुसार साधन सरकार 
के पास नटी ह । पटली योजनाओ मे सरकार ने इसके लिए उपयु राशि 
का भवटन नही किया दै यद्यपि हम सव स्वीकार के हँ जानते ह कि 
शिक्षा उपयोगी प्रतिफल देने वाली है। भप्त की प्रथम पचवर्पीय योजना मे 
शिक्षा के लिए सात प्रतिशत धन दिया गया धा जो आगे चलकर सातवीं 
योजना म (जो परपु 1591 भ समाप्त हुई है) 33 प्रतिशत हौ रहं गया। 
यहा यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए करि 1950-51 से रीय सकल उत्पाद 
का 12 प्रतिशत ही शिक्षा र खच किया गया था जो 1986-87 मेँ वद 


युगरीन शिक चिन्तन/110 


कर 39 प्रतिशत हो गया पर्‌ यट राशि 6 भ्रतिशते से बहुत नीचै है जिसके 
लिए कोदाते शिक्षा आयोग (1964-66) ने भी अनुशसा की हे। यह अनुमान 
लगाया जवा ह कि यदि 2000 तक सवकौ शिक्षा भिलनी चाहिए तौ इसके 
लिए मातर प्राथमिक रिक्षा वे मद में हौ अगले 10 वर्पो मे 80 000 कड 
स्प्यो की आवश्यता होगी यर्योकि इम लक्षय प्रप्नि के लिए प्रत्येक 5 मिमर 
मे 23 ्टात्र के लिए एक प्राथमिक विधालय खोलते रटना दहोगा। 
नीतिगत मिदितर्थ 

शिक्षाके प्रतिफ्लके रूपमे विकास पर भारत तथा विदेशे 
सम्पादित कई अनुसधान प्रतियेदनो मे प्रकाश डाला गया ह। इन शो के 
निष्को से योजनाधिकारिया वो लाभ उठाना चाहिए्‌। विकास कौ दृष्टि से 
नके निष्कं योजना वे" लिए आधार का काम कर सकते ह । कु पर यहा 
विचार किया जा एत है- 

# चूकि साक्षरता तथा साक्षरता का स्तर सीधा विवास से जुढा 
ष्आ है अत देश की निरक्षता के निवारण पर सर्योचव प्राथमिकता के रूप 
मे विचार किया जाना चारिए। सन 1991 को जनगणना के अनुसार यमि 
52 प्रतिशत जनसख्मा साक्षर टो गई पर यह काफी नहीं हे तथा अभी भी 
कले के लिए बहुत कुछ शेय है। 

* यो ण्या रिभा का स्तर्‌ बदता टै शिक्षाका अर्थिक वृद्धि (ग्रा) 
कीद्एके रूपे प्रतिफल गिरता जावा है। इससे स्पष्ट ६ कि माध्यमिक 
शिक्षा से मिलनेवाले प्रतिफल की अपेक्षा प्राथमिक शिक्षा से मिलनेवाला प्रतिफल 
अधिक्र होगा! या उच्च माध्यमिक शिक्षा का प्रतिफल खातक शिक्षा के प्रतिफल 
से अधिक ्टोगा इस प्रकार निष्कर्पत कठा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा 
का प्रतिफल सर्वाधिक होता ह। इससे प्रकान्तर से यह कहा जा सकता 
है कि प्राथमिक शिक्षा य आर्थिकं विकास मे सर्याधिक मदद करती है भूमिका 
निभातौ है। इस वियेचन से यह भौ सफेत मिलता है कि रिक्षा के अन्य 
सभी स्तरो कौ अपेक्षा प्राथमिक स्तर को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चादिषु 
फयोकि आर्थिक विकास मे यहौ सबसे अधिक महत्वपूर्ण है साधिक योगदान 
करती हे ओर दुर्भाग्य से हो यह रहय है कि हमारे देश में प्राथमिक शिभा 
कौहो भारी दुर्गति है इते टौ सवसे कम महत्व दिया जा रहा है। न केवल 
इतना ठौ शिक्षा कौ सीढो मे यही सवसे कमजोर कडो है। प्रत्येकं योजना 
भे प्राथमिकं शिका को दिये जानेवाले धन के प्रतिशत मे कमी आई हे। इससे 
स्पष्ट होता है कि स्थितिया मे तव तक सुधार नटीं टो सकता जव तक 
कि प्राथमिक रिक्षा के लिप्‌ अधिक प्रतिशत थन कौ स्यवस्था न कौ जथे। 


युजीन शैक्षिक चिन्तन/111 


* यह मानने में कोई आपत्ति नटी हानी चाहिए कि व्यावसायिक 
शिक्षा सामान्य या उदार शिक्षा से आर्थिक विकास्त म अधिक योगदान करती 
है। इसते आर्थिक विकास मे व्यावसायिक रिभा कौ भूमिका स्पष्ट पती 
है। पर इसका यह अर्थं कदापि नरी है कि दश मँ अधाधुध यिना साचे 
विषे प्यावसायिक शिक्षा सस्थाए खोलते रटे। एक एेसे समय कै भी कल्पना 
कौ जा सक्ती है जय व्यावसायिक रिष प्राप विधार्थी भानविकी या कला 
के विदर्धरयो से भी अधिक हं या आवश्यकता सै अधिक छं यह स्थिति 
कला स्नातको कौ आज भौ दै । प्कनीकी शिक्षा के क्षत्र मेँ देश मे अभियान्तरिकी 
शिक्षा का येतदहाशा विकासं हुआ तथा देश भे आज ठते इजीनियर येकार 
है। यष्ट याद रखा जाना चाष्ए किं व्यावसायिक रिक्षो सामान्य या ठदार्‌ 
रिक्षा की अपेश्चा कहौ अधिक महगी देती है। श्सलिए कोई भी व्यावसायिक 
रिक्षा का नया सस्थान खोलने के पूर्वं पध विपक्ष को सभी यार्त पर ध्यान 
दिया जाना चाटिए्‌। एक इजीनियर को पैयार ्टोने मे आज एक अनुमान के 
अनुसार लगभग 10 लाय रूप्ये खर्घे आता है इसमे से दो ढाई ला रूपया 
माता-पिता सर्च करत हँ तथा शष सार्वजनिक या रात्कौय कोप से व्यय 
किया जाता है। इतने भारो खर्च के याद यदि इगीनियर येकार रट तो भाता- 
पिता के मन पर क्या वीतैगी? इसका सटय टौ अनुमान लगाया जा सक्ता 
है) प्रशिक्षित जन वल का जिसकषित्र मे अभाव है वहा अवश्य ही एेमी 
शिक्षा ये सस्थान खोले जाने चािए। इप्तफे सिवाय माध्यमिक `या उच्च माध्यमिक 
स्यार पर व्यावसायिक रिक्षा कौ अधिक आवकश्यकदा ₹ै। इसीलिए गाय रिक्षा 
नीति मे माध्यमिक परोक्षा उतीर्ण 50 प्रतिशत विदार्थो को व्यावसायिक शिक्षा 
देने का प्रावधान किया गया पर्‌ शिक्षर्थियो मेँ व्यावसायिक शिभा सोक प्रिय 
नटी ठो पाई इसके कारण कुठ भी रहे हं । अव इस प्रतिशतं को यटाकर 
10 प्रतिशत ही स्वीकार किया गया है। यह आशा कौ जानी चारिए्‌ कि 
व्यावसायिक रिक्षा पानेवाते विवा्थीं इसे सटौ रूप मे लगे 

* आर्थिक विकास मे उच्च रिक्षा का योगदान प्राथमिक उच्च प्राथमिक 
माध्यमिक या उच्च भाध्यमिक शिक्षा को अपेक्षा सवसे कम दै। सम्भवतया 
इन सवस कम योगराने का कारण यह है कि उच्व शिभा सामाजिक दृष्टि 
से अति महगी है ओर ममी होने का कारण शायद यह है कि उच्च शिषा 
प्रा कार्य भे ले लोगों को सख्या तुलनात्मक रूप से बहत कम होती ै। 
उच्च शिक्षा कौ उत्पादकता या प्रतिफल यढाने का एक ही तरीका हो सक्ता 
है करि इसकौ सामाजिक -1 स्वनिक लागत घटाईं जाय। उच्च शिक्षा की 
पैयक्तिक या निजी लागत को वडा कर इस उदेश्य को प्राह किया जा सकता 


युजीन शैक्षिक चिन्तन/112 


है। सका एक कारण यह भी बताया जाता ई कि उच्च शिक्षा के सामाजिक 
प्रतिफल से निजी या ैयक्तिक प्रतिफल अधिक ऊचे होते रै । यहा यह स्पष्ट 
किया जाना वहुत आवश्यक है कि किसी भी स्थिति मे तथा किमी भी कौमत 
पर प्रतिफलं कम प्राप्त दोने पर भी उच्च शिक्षा के स्थान का उसकी गुणवक्ता 
का हास न किया जाये क्योकि उच्च शिक्षा के अपरोक्ष या अप्रत्यक्ष प्रतिफल 
कौ गणना वहुत कठिन है! उच्व शिक्षा के मुख्य अग अनुसधान नवाचार 
उच्य स्तरीय अध्यापन सस्थित्तिया तथा अभिनव विचारो का विकास होता दै 
तथा उनका हर स्थिति मे लागत-लाभ का विभूषण न तो उपयुक्त हाता दै 
तथा नहीं सही। ईस दोप का उपचार केवल यो बताया जा सकता हे कि 
वास्तविक सही उपयुक्त प्रगिभा सम्पन मेधावी विदार्थो को टौ उच्व रिक्षा 
के लिए प्रषश दिया जाये। इससे उच्च शिक्षा को लागत घटाने मे मददे मिलेगी । 
इसके सिवाय उच्य शिधा षो एस दष्ट से भी महत्य पिया जाना चारिए कि 
इससं अर्थतत्त्र के विभिन्न त्रो कौ आवश्यकता के य्यक्तियो को तैयार किया 
जाता है शिक्षित या प्रशिक्षित किया जाता है। 

+ सामान्यतया शिक्षा के सार्वजनिक या सामाजिक प्रतिफल कौ अपेक्षा 
निजी या वैयक्तिक प्रतिफल अधिकं रोते है उच्च शिक्षाक द्ष्टिसेतो यह 
शतत प्रतिशत सही है 'ी। इसका भुख्य कारण यह है कि शिक्षा का घ्यक्ति 
कै लिए उसके निजी रूप म अधिकं मदत्व रै व्यक्ति इसे वुनियारी आवश्यकता 
मानता है तथा सर्षोच्च स्थान दता है। नीपिनिर्धारको के हाथो मेँ शिक्षा को 
उतना महत्व नही मिलता पर जनमाधारण को यह स्थिति त्तो सहनां ही गी 
क्योकि शिक्षा का केयल एक आर्थिक उद्श्य-कार्य हौ नहीं है बल्कि समाज 
सेवा भी इसका एक महत्वपूर्णं अग है। 
समाहार 

शिम्मा तथा विकास मे अविच्छिन्न एव परस्पर गाढा सम्बन्ध है तथा 
शिक्षण कौ धिक्ासं की दृष्टि से नियोजित कटने की आज प्रथम स्थान भर 
सर्वाधिक महत्वपूर्णं आवश्यकता है । दश के आर्धिक विकास के लिए शैक्षिक 
नियोजन को सही रूप मे आर्थिक नियोजन से अषिलप्व जोडा जाना चाषटिए्‌। 
शैक्षिक नियोजन तथा साधनो के आवटन खी व्यूहं रचना के समय देश 
स आर्थिक विक्स की दृष्टि से शिक्षा के प्रकार (उलार शिक्षा व्यावसायिक 
शिक्षा प्राविधिक शिक्षा विधि शिभा आदि) था शिभा के स्तरा {पूर्व प्राथमिक 
प्राथमिक उच्च प्राथमिक माध्यमिक उच्चे माध्यमिक उच्च विश्वविधालय) पर 
निखिवाद्‌ रूप से ध्यान दिया ही जाना चाहिए एेसा करत समय देश की 
शिक्षित या दण्ड जन वल कौ आवश्यकता को भी दृष्टि से ओक्षल नही विनया 


युगीन शेशिक चिन्तन/113 


जाना वाहिए्‌ क्योकि इन्हीं सव तत्वो पर या अर्गी पर देश का सामान्य विकास 
निर्भर करता है। या इन सवं कषरा का विकास मिलकर हौ तो देश का विकास 
घनता र। योजनाधिकािर्यो को शिक्षा तथा विकास को शीतल मस्तिष्क से 
सही रूप से तेना चारिए, यही आज की शीपस्थ आवश्यकता ई। 
अन्तिम पर महत्वपूर्णं है कि क्सि भी देश कै आर्थिक विकास 
के लिए रिक्षा का नियोजन करते समय वटा क सामाजिक पक्षां उनके परिणामों 
सास्कृतिक पृष्ठभूमि सामाजिक मूल्या पिचार धाराओं एव निवामिया कै जीवन 
दशनं पर भी विचार किया जानाचाहिए। धिधा का जिस किसी रूप मे नियोजन 
किया जाये उसे सामाजिक उत्तरदायित्व वहन करना हो दोगा अर्थात्‌ वट 
शिक्षा समाज के प्रति उत्तरदायी हो। चिना सामाजिक सन्दर्भ का ध्यान रखे 
किसी भी रट का आर्थिक विकास कई महत्व नहीं रखता! साराशत शिक्षा 
का विकास देश के आर्थिक पिकास की अपेक्षा समग्र या सकल विकास 
के लिए अधिक महत्वपूर्णं है अधिक अर्थपूर्णं है ! इसीलिये इसे (रिक्षा के 
विकासं को) समग्र विकास की दृष्टि से नियोजित किया जाना चारिए तथा 
इस समप्र विकास मे आर्थिक विकास को उसका वाछित तथा उपमुक्त स्थान 
मिलना चाटिए। स्पष्ट है कि रौभिक नियोजन के समय सामाजिक पक्ष को 
छोडा न्दी जाना चाहिए अर्थात्‌ शैक्षिक नियोजन शून्य मेँ नही किया जानां 
चाटिए। 
0 


युगजीन शेक चिन्तन/114 


उपभोक्ता की शिक्षा 


ओष्योगिक विकास के साथ ही उत्पादन के क्षेत्र मे क्रान्तिकारी परिवर्तन 
हौ गये ह। क्रान्तिकारी इस अर्थं मे कि एकं आवश्यकता कौ पूर्तिं के लिए 
भित भिन नामां से एक से अधिक वस्तुए याजार मे दिखती ई तथा खरीदी 
जा सक्ती है। उपभोच्छा के लिए सटी वस्तु का चुनाव कएना आम के समव 
टेढ़ी खीर वन गया ह। कारण कि कई वस्तुए तो समान मात्रा मे समान 
भार वी होते हुए भी उनकी कौमत मे पर्यास अन्तर पाया जाता है । उपभोक्ता 
द्वार चुकाई गई राशि का पूरा पूरा लाभ उसे मिते यहीं से उपभोक्ता शिभा 
आरम्भ हो जाती है! 

सामान्य जनता को इस क्षेत्र में शिक्षिते करने के लिए जनसचार 
माध्य्मो का यडा महत्वपूर्णं स्थान है। इन जनसचार माध्यमो मे समाचार पत 
आकाशवाणी दूरदर्शन कैसेट चलचित्र जनसम्पर्क विभाग तथा प्रचार निदैशालय 
सम्मिलित ै। 

समाचार पत्र मुद्रित सामग्री ह जवक्रि जन सम्पर्क तथा प्रचार 
निदेशालय प्रचार के साथ मुद्रितं सामप्र भी वितरित करता है पर वे सदैव 
षौ अपने कार्यक्रमो केः प्रचार म इनका अनिवार्यत प्रयोग नही करते ह ॥ 
नमं से कुछ साधन तो उपभोक्ता देख सक्ते ट जवकि कुछ अन्य साधनो 
सेवे देख भी सक्ते ह तथा सुन भी ये देखने तथा सुने दोनों की श्रेणी 
म आत्ते है। समाचार पत्र एक एेसा साधन है लिये उपभोक्ता दृश्य साधन 
मानता है जवकिं आकाशवाणी तथा कैसेट श्रव्य साधन दै ओौर शेष साधन 
्रष्य तथा दृश्य दोनों प्रकार वै | 

आकाशवाणी दूरदर्शन चलचित्र तथा कैसेट जनसचार चै शक्तिशाली 
एव प्रभावी साधनो चे रूप म उपभोक्ताओं कौ निर्णायक स्थिति मे पर्ुचते 
ह। आफाशवाणो तथा कैसेट एेसे साधन है जिनसे क्यल सुना जा सक्ता 
रै- ह्मे कटने चालं कौ देखा नटी जा सकता। कटते समय कने वासे 
के हाव भाव अगचालन नेत्र-सकेत मुखमुद्रा कालौ प्रभाव उपभोक्ता पर 
पडता है यर प्रभाव टौ उनके निर्णय कौ सचालित करता है पर उपभो 
इससे चचित रषटता रै यौ सङो सीमाये है। इसवे- विपरीत चलचिघ्र था 


युगीन शचैिक चिन्तन/115 


दुरदर्शन मं ये दोनौ टौ विशेपताए पाई जाती ट। उपभाक्ता उनसे सुनता र 
तथा सुनने के मायौ सुनने वाले को भी देखा है! 

कैसेट वथा समाचार पत्र के सिवाय अन्य सभी सचार माध्यमो ए 
सरकार का नियन्त्रण रहता है । इसमे कई वार उपभोच्छआ के हितो को प्रतिकूल 
रूप से प्रभावित किया जाता है ओर लगता है कि सचार माध्यम सटी वाति 
दिशा में काम नही कर रे हे ओर वे स्तै तथा गलत काया विवेकं का 
विकास करने के वजाय सरकारी नीतिर्यो के प्रचारक मात्र भी वन सक्त 
हं। उपभोक्ताओ कं वृद हित मे एसा नही किया जाना चारिए। 

सरकार छारा पूर्णं रूप से नियन्त्रित जनप्षम्पर्फ विभाग तथा प्रचार 
निदेशौतय का तो स्पत कार्यं हौ यष्टी है कि वे राख सकारे की नौतिया 
तेथा कार्यो का प्रचार कर तथा जनसाधारण की प्रतिक्रियाआ से उच्याधिकारिया 
को अवगत कराये जिससे वे जनभावमा का सम्मान कते ए अपने सिद्वान्ते 
कार्यो मे परिवर्तन ला सकै। 

जनसघार के पत्रकारिता अग को कभी कभी अपने मालिको द्वार 
प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर्‌ उसका दुरुपयोग भी क्या जाता है! कसी 
के चरित्र हनन कएने अपनी दुश्मनी निकालने या अपने ताभ हेतु किसी 
उपभोक्ता को व्लेक्मेल कएने के कार्य को पीत पत्रकारिता कहते ह । समाचारो 
को तोड मगेड कर छटापना भो इसी ्रेणो मे आता है उपभोच्छाओं को इससे 
सचेत र्ना चा्िए। 

हम र्मे से प्रत्येक व्यक्ति शहरी-प्रामीण मालक-यृद्ध पुरुप-नारी 
शिकषित-निरक्षर बालक~-वालिका श्रमिक-नियोक्ता छटात्र-अध्यापक गरीव-धनी 
सभी एक न एक रूप्‌ म॑ उपभोक्छा है । हर्‌ उपभोक्छा चाहता है कि वह जो 
राशि चुका रहा है उसके वदले मेँ सटी वस्तु तथा वह भी उच्च गुणवत्ता 
एव पू तोल मँ प्रात टो। एसा विवेकपूर्णं निर्णय सही अर्थो म शिक्षितं व्यक्ति 
ही कर सकता हे । मान लीजिये- समाचार पत्र मेँ वीको वश्दन्ती तथा कोलगेट 
या प्रोमोस दरृथपेस्ट का विक्चापन छपा है । तीनो दृथपेस्टे का वजन चराबर 
ष्ोने के साथ ही कीमत भी बरावर है। दीको यग्रदन्ती दूथपेस्ट मेँ मिलाई 
गई आयुवेर्दिक जडी वृचियां भी दर्शायी गई है। अब यदि पाठक दातो की 
सुरक्षा कौ दृष्टि से कोलगेट या प्रोमिस के बजाय वीको टृथपेम्ट का चयन 
करता है तथा प्रयोग के लिए खरीदता है तो उपभोच्छ को सही अथां में 
शिक्षित कहा जाना चाहिए्‌। यही वात किसानों के सम्बन्धं मेँ जेर तथा एच 
एम टी द्क्टर को लेकर कटौ जा सकती हं। दोनो की कीमत गाएण्टी 
नि शुल्क सेवा कयै दृष्टि से किसान निर्णय करता है। अव यदि किसान को 


युजीन शैक्षिक चिच्तन/116 


यह भी पता लग जाये कि किसी भी एक टरेक्ट का फाल जमीन क्रितनी 
-गहरदं तक खोदता है ता किसान को यह अतिरिक्तं लाभ होगा तथा चह 
अपने निर्णय का अधिक विवेकपूर्णं वना सकता ह । मानो व्लाक तथा क्रिलोस्कर 
पम्यसेट के लिए भी यही कहा जा सकता ह । समाचार पत्र से फित्म समीक्षा 
पढ कर पाठक पिर देखे यान देखने का तिर्णय करते हँ! उपभो के 
रूप मे प्राठक पुस्तक समीक्षा पढ कर पुस्तक खरीदने या न खरौदने का 
निर्णय तेता है। यहौ उपभोक्ता शिक्षा है। 

मान लीजिए- आप आयकर दाता हँ। जवर आप दुरदर्शन से सुनते 
हैँ कि मुनिर द्रस्ट ने कर दिखाया न अपना वादा सही 18 प्रतिशत 
बोनस पर जव आप देखते हँ कि इससे आयकर मे ष्ट नहीं मिलती 
है तो आप जीवन बीमा निगम या विकास वोण्ड या डाकघर की वचतं याजना 
की ओर मुडते ह तथा विभिन विकल्पा मे से सहौ एव लाभदायक विकल्प 
चुनते ह जो आपको आयकर भुगतान से बचा सके। कालेज के विदरधी 
को एव एम टी तथा राश्टन की घडी मे से चुनाव कना है । दानो थियो 
की कीमत लगभग समान रै दोनो की गारण्टी की अवधि भी समान है 
पर टाईटन घड़ी की शक्ल सूरत आकर्षक है तो विधाधीं टाइटन घडी खरीदने 
का निर्णय से सक्ता पर एव एम टी की चषठिर्यो ने जो अनारष्टीव 
सम्भान ख्याति या साख पाई है उससे भी विदाथ प्रभावित हुए विना नर्त 
रह सकता तथा वह एच एम टी कौ धटी चुन लेता है। 

आजकल देश के हर जिले मे ठपभोक्छा भच या फोरम का गठन 
क्रिया गया है} जहा भी उपभोक्ता के प्तं कौ अनदेखी की जाती है या 
हिता को आघात पर्टचाया जादा है तो सम्यन्थित उपभोक्ता पेते मचौ से अपनै 
हितौ की सुरक्षा की माग कर सकते ह जिसका कोई शुल्क भी नही लेता 
हे। लेखक के एक मित्र ने वर्पा मे साइकिल से णिएने कै कारण अदालत 
मे वाद प्रस्तुते करै नगर पालिका से हराना प्राह करं सिया। उसका तर्कं 
धाकिजव वह मार्गं कर ददा हे तो सडक सरी स्थिति मे रने की नगरपालिका 
की भिम्भेदारौ दै। आजकल न्यायालय मे देतो वाद पिचारधीन पे ए हं 
तथा समय पर न्याय नहो मिलता इसलिए उपभोच्छ सरक्षण मच चन गठनं 
किया गया है। कम तोलने पर, मिलावट कले प्र, सदे फल येचने पर 
यटिया माल येचने पर इन मचौ भे शिकायद कौ जा सकती है गा सवाल 
सुनषाई ्ोती रं अष्डर कौ दल भे चतरे कौ दाल शृस्दौ मे इट पिस 
सेना चीनी मे पानी उडल दना चावल मँ ककर मिला देना तो सामान्य 
या त गई हं इसी भाति स्यतत मे निरव से वम भूष की अभ्यास 


युजीन शिक चिन्तन /117 


पुस्तिका या कम वजन वे गत्ते कौ जिल्द वाली कापी प्राय घछर््रो के हाथों 
मे धमादी जाती है। नलामें पानी कान आना या पयसि मत्रार्मे न आना 
या समय पर न आना या उसको एक अधिक ईच वाली मुख्य धारा से न 
जोटकर कम ङंची धारा से जोडकर कष्ट पर्ुवाया जाता ह ठो उपभोक्छ अपने 
हितां कौ सुरक्षा के लिए एेसे मच से सहायता ले सकता है! गदे पानी का 
नाला वहते रहना या सार्वजनिक स्थानो से कचरा न हटवाना या सफाई न 
करषाना भी इसी प्रकार के कार्यं हे इन्ह पब्लिक व्यू्ेस एक्ट मे भी लिया 
जा सकता र पर वहीं सुनवाई में बहुत समय लगता है तथा शुल्क भी देना 
होता है! वठा वकील कौ सहायता भी ली जाती ह । पर इन उपभो मचो 
मं वकीलों कौ सहायता जरूरी नहीं है । इन्टी सव बाता को पर्यावरण सुरक्षा 
के अन्तर्गत भी इन्हौ मर्चो म सुनवाई के लिए प्रस्तुत किया जा सक्ता है! 
इस प्रकार उपयुक्त विवचन से स्पष्ट है कि उपभोका्ओं को शिक्षित 
करने के लिए किसी विच्यालय या किसी सस्थाच की आओौपचारिक शिभा व्यवस्था 
कौ अपेक्षा जनसचार माध्यर्मो द्वारा अधिक प्रभावी ढग से शिक्षित क्रिया जा 
सक्ता है। सही वस्तु न मिलने पर्‌ सजग होना उच्च गुणवत्ता तथा मानक 
चस्तु की प्रापि का आग्रह करना हो उपभोच्ठा शि्ा का मूलमव्र है। आन 
हर उपभा्छा को तथा नागरिक को इस प्रकार की शिधा की नितान्त 
आघश्यकता है। 
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युगीन शेक्िक चिन्तन/118 


डिग्री नोकरी अलग-अलम 


डिग्री तथा नौकरी की पृथक्ता से जनसाधारण मे कैसे भ्रम फा 

विकास हआ है इससे वे कैसे गुम हए रै? लोग समञ्च रटे हं कि अव 
हर कोई जिलाधीश या न्यायाधीश चन जायगे या इजीनीयर का काम सम्भात 
लेगे। कौन कटे समश्षाए्‌ कि विना दिग्री के अव भी कलेवर या इजीनीयर्‌ 
या न्यायाधीश नहीं वन सर्केगे। मानलोयनाभीदियेततोक्यावे काम का 
निष्पादन क्र पार्येगे? क्या वं त्वरित गति से निर्णय ले लगे? क्या चे विश्वस 
के साथ काम्‌ निषदा गे? य्या ये सहकर्मि्यों पर रोवदाव या प्रभाव रख 
सकेगे? क्या यै विषम परिस्थितियों मे बिना धैर्य खोये विवेक सम्मत निर्णय 
ले सरकेगे? क्या वे अच्छे युरे का निर्णय फर साधिर्यो का नेवृत्प कर सकने? 
क्याये साभिरयो का प्रभावी मार्गदर्शन क्र सर्वेग?ेये कुष्ठ प्रश्र हं जिन षद 
शान्त मस्विष्क से विचार किया जाना वा्टनीय ₹ै। यदि विना किसी शैक्षिक 
सामाणिक पृष्ठ भूमि पर विचार किये व्यचि कौ ठच्च पद पर विटा दिया 
तो काम निष्पादन में विलम्ब न्त तेगा? क्या विना दिचिक कै निर्णय रे 
लेग? जो सदैव हौ आदेश के लिए उच्वाधिक्रारिया यी ओर देखता रदा टै 
चह अचानक पद प्राप्त करते टौ सही निर्णय ले तेगा नेवृत्व प्रदान भरेगा 
मार्गदर्शन करेगा अदेश दं देगा किसी अप्रिय घटना कौ आशवा कै" समय 
साटस ओर पिश्वास के साय अप्रत्याशित निर्णय ते लगा तदनुसार भदेश 
दे देया रेसी अपेक्षा न्ट की जा सकती ओर कार्य था स्त भी गिरेगा 
षौ -मर भी ति्चित द। यप्ठ कन स्यय तौ हानि होगी था याम भी मिगदेगा 

ओर न वट समय पर हौ निषयाया जा सकेगा! 

इसके दुसरी ओर व्यवहार मे देखा जा रहा है कि स्वतन््रता व 

बाद जनसाधारण में उच्च शिक्षा कौ माग कई गुणा वदी है। साधारण चपरागी 
भी अपने वर्चो को जातक या एम ए. तक शिक्षा दिलाना चाहता दै) अभिभावकों 

मे इस विकसित महत्वाकक्षा के फलस्वरूप 1947 रने ठपलव्थ 500 क्लिर्गो 

तथा 27 विश्चवियालर्यो कौ सख्या वद कर 1595 मे द्रमरा 8000 शया 
150 हो गई है। सैकेण्डरौ तथा हायर सैक्ण्डरौ सयू कौ मय्या शमौ 


अयधि मे 2300 से 62300 हो गई दै। उच्च िमा य अयमरी मर युद्धि 


युगीन शैकिक चिन्तन/119 


के साथ साथ रौजगार के अवसरो में युद्धि नर्हो हई है । परिणाम स्पष्ट है 
कि शिभितो मे बकाते द्रापदी के चीर की वरह वदी है। ओर फिर रिष्षित 
व्यक्ति वो अशिक्षित व्यक्ति के समान न ता गुमराहं किमा जा सकता ट तथा 
न॒ ही उनको आवाज को महटत्वहीन मान क्र छोडा जा सक्ता है। 

उच्च शिक्षा को एक दूसरे सन्दर्भ म॑ भी देखा जाना चाहिए! भारत 
मे उच्च शिभा लगभग पौने पाच-पाच प्रतिशत रै तथा टरा शिक्षित येकार 
रोजगार कौ तलाश ममे श्धर-उधर घुम रह हं जवकि पाशात्यं दशा भे उच्व 
शिक्षा प्राप्त व्यक्ति दशमलव म आते हँ! भारतीय व्यावहारिक अथशास्त्रीय 
अनुसधान प्रिद की एक शोध के अनुसार 1985-86 मं उच्च शिक्षा सस्थान 
मे पढ रहे वुल विधार्थियो कं आधे टौ आर्थिक दृष्टि से उपयु थे। इस 
दृष्टि से यदि भारत में अव भी उच्च शिक्षा का ओर षिकास किया जाता 
है तो मढने वाली बेकार कौ एक अर्थशास्त्र के विधा्थीं कं रूप मे सहजं 
ही कल्पना की जा सकती हे। इस समस्या की गम्भीरता तव ओर यढ जाती 
है जय उच्च शिक्षा सस्थानों में प्रवेश प्राप्त 60 प्रतिशत विघार्थीं या इससे 
भी अधिक छात्र-छात्राएं या तो अनुत्तरं हौ जाते हँ या तृतीय श्रणी म॑ उतीर्ण 
होते है। इसमे प्रति छात्र उच्च शिभा पर होने वाला व्यय कड गुता चढ़ जाता 
है। सामान्य विपर्यो क॑ स्रातर्को को सार्वजनिक क्षत्र मेँ हौ काम मिल सक्ता 
है। पर यट क्षेत्र भी उनके 20 प्रतिशत भाग को ही नियोजित कर सकता 
है। इस प्रकार तीन-चौधाई से भो अधिक शिक्षित नवयुवक राजगार पानि के 
लिए पूर्य सेखडे लोगो की पतिर्मे जुढ जते है। शिक्षित वेकारं कौ 
इसी समस्या को हल कटने के लिये या इस समस्या की गम्भीरता को कम 
कमे के लिए-नई रिक्षा नीति कै अनुसार डिग्री कौ नौकरी से पृथक फरने 
का प्रस्ताव है जिससे दिग्री के प्रति लोर्गो की ललक कमटो यदपि शिक्षा 
की चुनौती मसौदे मे यह स्पष्ट उटेख किया गया है कि पूर्वं से नियुक्त लोक 
सेवको को गतिशीतता के साथ बेहतर पद एव सेवा स्थितिया दने कं लिए 
पत्राचार या दूरस्थ शिक्षा के माध्यम पर विचार करना होगा। 

व्यवहार मे देखा जाता र कि आज रिक्षा के बाद नौकरी प्रास 
करने के लिए दिग्री आशार्या कौ योग्यता के रूप मेँ महत्वपूर्ण कसौटी मानी 
गई ₹ै। केम्त्रिज तथा आक्सफोड विश्वविधालय की टिग्रिया आज भी सम्मान 
की दृष्टि से देखी जती र्ह। डिग्री प्राप्त करने का अर्थं तेता रै पेजगार वा 
नौक्यी के कई रस्ते खुलना! क्डं समाजो मे आज भी दिग्री श्रेष्ठता का सूचक 
मानी जाती है। आत विश्च के हर देशं म डिग्री ठच्च शिक्षा सस्थान द्वारा 
प्रदान की जाती टै 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/120 


पेरिस विश्वविद्यालय ने पहली बार वेचलर की दिग्री दी थी। आज 
ससार के भिन-भिन विश्वविद्यालय द्वार दौ जने वाली डि्रियो म काफी 
विविधता है। उदाहरण के लिए भारत के टौ विहार के कुः विश्वविद्यालय 
कानून कं विद्यार्थी कौ बी एल कौ दग्र दतं है जबकि देश के अन्य 
विश्वविद्यालय एल एल यी की दिग्री देते है। इसी भांति गढवाल तथा 
इलाहतवाद विश्वविद्यालय शोध छत्र को टौ पिल कौ ग्री देता है जबकि 
देश कं अन्य विश्वविद्यालय पी एचडी की डिग्री देते हं। कुछ पाश्चात्य शिष्पा 
सस्थान शिक्षा मे उच्य दिप्लोमा देते हँ जिसै भातत मेँ वु विश्वविद्यालयो 
ने एम एड के भमकक्ष माना रै। इसी कारण इनकी समतुल्यता स्थापित 
क्रमे के लिए प्रयन्न भी किये जातं है। ण्यो-ज्या शिक्षा का प्रसार हु ट 
डिग्री की सामाजिकं स्पीकार्यता व मान्यता म कमी आई है ओर आज बेकारी 
छिमी हुई वेकारी अद्धं बेकारी की स्थिति मे ग्रो के महत्य का हास हुआ 
है। जज स्थिति यह है कि कभी बरतो की प्रतीक कहौ जने वाली दिप्री 
मवयुवको भँ निरशा कुण्ठा हताशा एव कटुता का स्नोत बन गई हे। 

उन सेवाओ मे चिप्र को नौकर से अलग किया जायेमा जिनमे 
विश्वविधालर्यो की डिग्री की अनिवार्य योग्यता कै रूप म॑ आषश्यकता नहीं 
हाती। यह लागू फिये जाने से पिशिष्ट नौकरियों के लिये चलाये जाने वाले 
पादुयक्र्मो का पुनर्नर्धरण शुरू टो जायगा ओर इससे उन उम्मीदवार के 
प्रति अधिक न्याय हागा जो नौकरी कं लिए पूरी तरह योग्य होते हुए भी 
सातिके उम्भीदवारे को अनाषश्यके तरजीह ओर प्राथमिकता दिये जाने के कारण 
नौकरी पान से षचित रह जाते ई 1 

"“भित-भितर काम के लिए भिन्न-भिन प्रकार के ज्ञान कौशल एव 

रुक्ाने की आवश्यकता होती हे तथा किसी भौ नौक्रौ या कामके लिए 
विश्वविद्यालय की डिग्री कं आधार पर किसी आशार्थी कौ चुनना या निरस्त 
कना उपयुक्त साधन नहीं है । इसे सम्बन्ध मे एक महत्वपूर्ण कद्रम यह लिया 
जा सक्ता है वि उपलव्थ नौकरौ या कार्य कं अवसरो का सोच विचार 
कर विष्लंपण किया जाये) इससे पह लाभ होगा कि काम के निष्पादन हेतु 
या उसं निपटने कै लिए जिन कौशलो की आवश्यक्ता है उन कौष़र्लो 
से युक्त शिक्षा तथा दनिग की व्यवस्था की जाये इससे शिक्षा के घ्यवसायीकए्ण 
मे मदद मिलेगी।*" 


1 प्रोग्राम आफ एक्सन भिनिस्टरौ आफ यमत रिसोषं डेवलपमेण्ट (शिष्या विभाग) 


भारत सरकार नई दिष्ट प्रवन्द्रक टेक्सट सुकं प्रस 1986 पृ 7 





युजीन शेदिक चिन्तन/121 


डिग्री को नौकरी से अलग करने के बाद इमकै स्थान पर पिभिन 
चरणो मे राष्ट्रीय परीक्षण सेवा जैसे उपयुक्त तत्र की स्थाना की जायेगी} 
इसका उदेश्य निधोरित नौकस्यि के लिए उभ्मोदवारयो कौ उपयुक्ता निर्धारित 
करने के बाद स्वैच्छिक आधार पर परीक्षण का आयोजन करना ह । इसका 
उदेश्य देशव्यापी स्तर पर तुलनात्मक योग्यता के मानक या मानदण्ड के निधरिण 
के लिए मर्म प्रशस्त करना भी है एेसे परीक्षणौ का मुख्य उदेश्य लोगा 
को चि उनके पासं ओपचारिक दिग्रिया है या नहीं यह दिखाने का अवसर 
प्रदान क्ण्ा ₹ईै\ 

साधारणतया नागरिका के पास वे मरि विभिन कामं करने की क्षमता 
-माग्यता तथा कुशलता है पर्‌ वै काम व्यवहार मै परम्परागत रूप से सातको 
कौ ही उपलब्ध दते रहे है! जो सस्थान भर्ती के लिए अपने यदा परीक्षाए्‌ 
आयोजित करते ई ठीक से टोक बजाकर नौकरी देते ह उने ओपचारिक 
दिग्री का आग्रह नहीं करना चाहिए। रेसा परीक्षण पते से नौकरौ पर लगे 
लोगों को पदोन्नति पने मे भी सष्ायक हौ सकता है। सकषेप म यष स्वैच्छिकः 
आधारं पर राष्ट्र व्यापी परीक्षणो का आयोजन कएने के लिए गुणवत्ता नियन््रण 
करी प्रक्रिया है ताकि योग्गता दक्षता एव कुशलता के तुलनात्क अध्ययन 
कै लिए्‌ भानदण्डा का विकास हो सके। इस प्रक्रिया मेँ स्षतन्त्र परीक्षण भी 
आयोजित किये जा सकते है । "इससे नययुवको मेँ स्यत ही डिग्री पान 
-की ललक कम होमी लिसके फलस्यरूप उच्च शिक्षा सस्थान पे प्रवेशं के 
लिय दबाव भी क्म होगा प्रथश के लिए भीड कम उमेगी। इन सकेता 
प्रर कामं करने के लिए आरम्भ मेँ कार्मिक विभाग मेँ एक प्रकोष्ठ बनाया 
जा सकती रै जो कार्यो का पता लगाए्‌ तथा कर्मचारियो कौ भतीं का समाक्लन 
करे ॥ 1 

व्यवहार मेँ डिग्री का नौकरी से पृथक करना जितना सरत तथा 
आसान भाना जा रहा है वास्तव में उतना है नर्टी स्थिति उल्टी ही है। 
इस तथ्य पर शान्त मस्तिष्क से लाभ-हानि की दृष्टि से विचार करना होगा। 
डिम्री को नौकरी से पृथक करे मे सैद्ान्तिके कियो के साथ-साथ व्यावहारिक 
कदठिनाहया भी रै । इस विषय के स्वरूप एवं सीमा पर विस्तृत विचार मथन 
की आवश्यक्तता है विना पूर्वं तैयारी के कई कठिनाइयों को व्यर्थ ही मे 
आमन्त्रित किया जा सकता रै} 

सेवाओ के तीन वुर्गं माने जते है- उच्व मध्यम तथा निम्न! काफी 


| 4 वही पृष्ट 28 


युजीन शैक्षिक चिन्त1/122 


>समय सं यह आवाज उठती रटी है कि निम्न वर्मं की सेवाओं भें कर्मचार्यो 
की भर्ती के लिए किसी भी प्रकार की योग्यताया डिग्री या प्रमाणपत्र की 
आवरयक्ता न रटे। उदाहरण के लिए पत्रो के आवक-जावक विभाग मेँ एक 
कमचारौ को लिफा्फो पर पता लिखना है। यदि इस कायं क लिए आशार्थी 
का साधारण लिपि का ङ्न है जिससे करि वह पते लिख स्फे तो उसके 
लिए हायर सैकण्डरो परोक्षा पास होने या छातक हाने पर आग्रह कर्यो किया 
जाय? साधारण शिभा सं उनका कार्य हो सक्ता ता डिग्री की आवश्यकता 
सयो? इमी भांति यदि किसी यैक म रुपया कं लेन-देन के लिये कर्मवारी 
कौ आवश्यकता है तो साधारण गणित जानने एव जोड वाकी कर सकने 
याले को भीं किया जा सक्ताहै जो रष्योकोगिनक्रदयाले सरक! 
अब यदि वटं खातक नहींटैतो क्याटानि हो रही है? विना दायर रैकेण्डरी 
परीक्षा पास व्यक्ति वैक के इस कार्यको कर सक्ता तो इस कार्यके 
लिए भती किये जाने के लिए खातक या हायर सैकेण्डरी परीक्षा पास आशार्थी 
भागना वेमानी यात रै1 इसी भांति मध्यम वग को वु निचली संघाओं के 
लिए भी शैमिक याग्यता कीद्यूट दौ जा सक्ती टै ओर यह आशा कौ 
जानी चाहिरए्‌ कि इससे सेवाओं से जुड निष्पादित कार्य के स्तर म र्वा 
गिएवट नटी अयेगी। 

दिग्री- नौकरी पृथक-पृथक कै पक्ष मेँ तकं 

कुष चुने हए कषरा म दिग्री कौ नौकरी से अलग कटने फे लिए 
कदम लिये जाने चाटिए।+ एसी नौकरिया जिनमे हिग्री की आवरयकता नहीं 
टै तथा दिग्री वाले उपलव्थ हो तो उन्हें प्राथमिकता नत दी जाये। उदा्टए्ण 
कं लिए चपरसी तथा क्लर्क कं लिए यदि साभर तथा मे्रिक पास आशाथीं 
चाहिए तो इत पदों पर क्रमश मेटरिक तथा स्नातको को नियुक्तया नीं दी 
जाये। अर्थं यट है कि उच्च शतैभिक योग्यता को श्रेष्ठ न माना जाये अपेक्ष 
रूप से इमका आशय यहौ है किं डिग्री फो अनावश्यक रूप से महत्व न्ट 
दिया जाये। 
खों एम एस गरि के अनुसर डिग्री को नौकरी से अग कएने 
से विशविध्यालरयो म प्रवेश कं लिए निरदेश्य आने वालौ भीड का दबाव 
कम 'हागा इससे शिभा का भी स्तर सुधाण जा सकेगा वर्योकि काम क्ले 
फे लिए डिग्री फा नही, वल्कि काम से सम्बन्धित यित रचि कौशल एव 
र््ान वी जरूरत रोती है। ये आगे कहतै है कि इससे एक लाभ ओर 
होगा ओर वट यह है कि विश्चविधालय मे सही रवि तथा ज्ञान प्रापि कौ 
तत्र भूख ओर इच्छा वाले विचार्थियों को टी प्रवेश दिया जा सकेगा जिससे 
विश्वविदयालर्यो कौ अन्य कईं समस्यां दूर की जा सकेगी! 
युगीन शैक्षिक चिन्तन/123 


कायालय सचालन स गुड लोणा यो यश्य दग्र प्रा क्एेके 
सार्घगनिक सम्यन्धों टक्ण आशुतिपि आपस मेकेनिग्म सक्रेटेरिएट प्रासितर 
आदि यनै दैनिग दी चानौ चाहिए। रेखा ्ा विचार 1955 मेँ कुलपतिया फ 
सम्मेलन मे प्रकट किया गया था। 

एक यार सप लाक सवा आयाग क अध्यध श्रा फिदवई का कटना 
थाक टाई स्कूल क याद समान्य विषयो में खातक यनन न॑ तिए4 से 
6 चपं य समय का जरूरत पडतौ है दथा उने किसी प्रफार खै विरिता 
नरी हौता। इसलिये अच्छ यट दोगा ङि टाई स्कूल कं यान यालक कमी 
स्क्षान जानकर 4-6 चप तक विरि डान ओर ौरल फौ शिमा दी जाय 
गिससे उस कौशल ओर अनुभव भा प्राष्य मके। दग्रा को नौकर सं 
अलग करनं छौ यातना उन सवाओं मे शुरू कौ जायेगो गिनमें विश्व-विद्यालय 
की दिप्रा आवश्यक नटी ्ागा। इस योजना का लागू कलं से विरए कायो 
मं अपेक्षित कुशलता पर आधारित नये पाटयक्रम यतने सर्गेगं ओर इमसे 
उन आगार्धिर्यो के साथ अधिक न्याय हो सक्या निन पास किसी विराष 
काम वी क्टन की कुशलता एव क्षमता हा है लकिन उन्टं यह काम इसलिए 
नर्तौ भितं सक्ता क्योकि उनक लिए स्नातक आशाधिया खो अनावएयक रूप 
सं तरगीह दौ जातां रै! पर इससं ध्यावटारिक व शैक्षिक समस्याए आ सक्ती 
है-जो समय पर्‌ उपचार भी चाहगी। प्रसिद्ध अर्थ-शासप्ी स्वर्गीय श्री लक्ष्मी 
कान्तक्षाने कहा धा क्रि नौकरो वै इच्छुक आरार्धिया का चयन टायर सैकेष्डरी 
परीक्षा पास करने क वादी कए लिया याय तथा आशार्थिया द्वा चाहे 
गये कामक द्षटिसे पिरिष्ट प्रकृति की रिक्षा तथा उससे गुडा उपयोगी 
प्रशिभण दिया जाय। चिकित्मा इन्िनीयरी रक्षा विधि के क्षेत्र मे एसा तत्काल 
किया जा सक्ता ै। उन्हे इस समस्या कौ एक अन्य दृष्टिकोण से भी 
देखा कि इरासे पिश्च विद्यालयों मे प्रेश का दयाव कम हो जायेणा। शष 
विार्थियो क लिए षै शिक्षा फो अधिक अर्धपूर्णं तथा गहन यना सर्वेे। 

श्रा आर.पी मिश्र के अनुसार यट माननं म कई कठिताई नहँ होनी 
चाहिये कि मपाचार न॑दृत्व उच्य यौद्धिक क्षमता त्वरित निणय प्रतवुत्मन मति 
की जिन पदों के लिर्‌ आवश्यक्ता रै वह डिग्री कौ अनिवार्यता यनी रटेगी। 
विरि व्यावसायिक क्षो जैसे इन्िनीयरी चिकित्सा कानून रिक्षा आदिमे 
इस प्रस्ताव को लागू नर्ही किया जा सक्ता! इसी प्रकार मानविकी सामाजिक 
विज्ञान ओर शृद्ध वा प्राकृतिक विज्ञान आदि मे जहाँ विशषर्ञो की सेषाओ 
की आवश्यकता ्टोती है अकादमिक अर्तार्ओं की आवश्यकता यनी रटेगौ। 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/124 


डिग्री-नौकरी पृथक-पुयक के विपक्ष मेँ तकं 

बुनियादी शिक्षा सीखो कमाओं कार्यानुभव आदि प्रयागा के प्ल 
हमार सामने है। आशा खौ गई थी कि 50 प्रतिशत छत्र स्वूल शिक्षाक 
बाद राजगार म चल जायेगं तथा शेष 50 प्रतिरात छात्र हौ उच्च शिक्षा प्रा 
कगे। पर यह आशा पूरो तर्ही हुई-हाय से काम करना कई नहीं चाटता। 
हायर सैकण्डरी स्कूत छोडनै वाते आधे ्टात्र के लिए भी काम या अपना 
रोनगार कं ह? इसलिये प्री को नौकरी से अलग करन कं विपक्ष मे 
यह तर्क दिया जाता रै कि स्कूल कौ शिभा प्राप्न विद्यार्थी क काम नर्ही 
मिला तो विशधविद्यालय उस कुछ समय तां व्यस्त रखगा। 

यह भी विचार सामन आया कि डिग्री को नौकरी सं अलग कलने 
क विचार का धुआआधार्‌ या युद्ध स्तर पर प्रचार किया गया या इस प्रकार 
का वातायरण तैयार किया गया तो उच्च शिक्षा के प्रति जनसाधारण कौ इच्छा 
लुप हो मयेगौ या मात्रा मेँ कमी आयेगी। शिक्षित लोर्गो म यष्ट विचार विकसित 
षो सक्ताटै कि आने याते समयमे दिग्री का कोई महत्व नही रहेगा। 
इस प्रकार प्रतिभा सम्पन्न य्यक्छियों की सेवाओ सं समाज वचित हो जायेगा 
तथा समाज फे हित मेँ उनका वाष्टित उपयोग नही टोगा। यह भी सम्भावना 
हैकिदिग्री को नौकरी सं अलग कटने के स्थान पर हिप्री का अवमूल्यन 
टो जाय। यहा भी इस दुष्ट से सतर्कता यती जानौ अत्यन्त आयश्यक है । 

कटु आलाचक वर्तमान स्थितियों म इसे अप्रासगिक तथा निरय्थक 
'वतायगे। एेसा कमे के लिए उनके पास पर्यास आधार व तर्क होगे। सरकार 
एक तरफ खुले विधविद्यालय तथा पत्राचार पठयक्रम आरम्भ कर रहौ है 
तथा कर्मुचारियौ को सतत अध्ययन करने के लिए प्रेरित कर रही टै तथा 
दूसरी ओर डिग्री फा महत्व कम करना चाहती है विशविद्यालर्यो मे बढती 
हई भीड वेः नाम पर आधे स्वूलौ टाप्रो को रोजगार मेँ भेजना चाहती दै। 
इस प्रकार स्पष्ट है कि जव तक डिग्री नौकरी शिक्षा उच्च शिक्षा व्यावसायिक 
शिक्षा आदि फे सम्बन्ध में ओर मुख्यत इनके आपसी सम्बन्धो मे भी नीति 
स्पष्ट नटी हो जाती जनसाधारण अनिश्चिय की स्थिति में ही रहेगा। जब तक 
इस त्र म योजनानुसार पूर्वं प्रयोग नीं कर लिया जाता विचार की व्यावहािक्ता 
जानने के लिये तत्परता नटीं बरती जाती विचार का कोई महत्व नही रहं 
जाता है! 
निष्कं 

ऊपर के पिवेचन से तया पक्ष-विपक्ष के ठको के आधार पर यह 
कहा जा सक्ताहै कि डिग्री को नौक्यी से अलग करना आसान कर्यं नहीं 
है। फसा करना न तो सम्भव है तेथा न अपेक्षित ह तथा वर्तमान परिस्थितियों 

युजीन शेशिक चिन्तन/125 


मे न व्यावहारिक ष्टौ है इस विचार पर खुत कर यटस क्टने की जरूरत 
है। दिग्री को नौकरी से अलग करने के लि्‌ राज्यो के विभागों तथा राण्यो 
फे लाक सेवा आयोगो को अपेक्षित योग्यता तथा कौशर्लो पर विचार-चिमरशं 
कर निश्चय करना हागा। विभिन्न पदा के लिए चयन के वाद अभिस्चि त्तथा 
क्षमता कौ दृष्टि से सेवा पूर्व प्रशिक्षण शुरू किये जाने चाहिए्‌। इसके लिए 
सम्भव है कई नई सस्थाआं की स्थापना करनी होगी-ईसी सन्दर्भ मे रष्टीय 
परीक्षण सेवा सस्थान कौ स्थापना भी विचाराधीन है । 

समस्या की गम्भोरता को ध्वान में रखते हुए सिप्र को नौकरी से 
अलग कटे का कार्य एकाएक लागू नटीं किया जाये ष्‌ इस कार्यक्रम 
को विभिन चरणां म समय का अन्तराल देकर किया जावे स सप्यन्ध मे 
शोप्रता मे लिया गया निर्णय समस्या का सुलक्चाने कौ अपेा ओर उलश्चा 
भरी सक्ता है। क्योकि यह छोटी मोटी चा आसान या महत्वहीन समस्या नर्ही 
है। विश्वविद्यालय ईस वात फो सहर्षं स्वोकार कर रहे हँ इसमे उनकी सुषिधा 
निहित है कि उन्ह ज्ञान की उत्कट रवि एव सीखने कौ जिद्ञासा वृति वाले 
चयित त्र प्रवेश के लिए मिलगे जिनसे उनकौ अन्य कईं समस्या्ये समाप्त 
हो जार्येगी। 

माता-पिताओ का एक वर्गं यह मान सक्ता है कि सामाजिक जीवन 
म दिप्री का महत्व स्टेदस सिम्यल या प्रतिष्ठाया सम्मानके रूपमे यना 
रहेगा तथा ग्री को नौकरी से अलग न करके उसे कुट सीमा तक महत्व 
अवश्य दिया ही जानम चाहिए। माता-पिता्ओं का एक अन्य वर्गं इस राय 
का भीषो सकता है कि उन दिग्री से गुडे महत्व से कोई मतलव नहीं 
है प्रर उनकी सरक्षित सन्तान अपने पैरो पर खडी टो सके इतनी आशा गो 
चे करणे ष्टी न केवल इतना टौ वरन्‌ वे अवश्य ही यह भी चार्हेणे किं 
यदि उनके सरकष्तो को उच्च शिक्षा मे प्रवेश नहीं दिवा जदा है तो अन्य 
विकल्प तत्काल उपलब्ध ्हो। नौकरियों मे जा सक्ने वालों की सख्या ज्ञात 
कर उनके लिए ष्यावसायिक रिक्षा की निशित रूप से व्यवस्था कौ जानी 
चाहिए्‌। यदि माता-पिता यह अनुभव करते हँ कि नई सस्थाये ब्रेट नर्ही ह 
या उनका स्तर निघ्न है यावे माता-पिताओं की अपोक्षाएं पूरौ नषठी क्र पायेगी 
तो स्पष्ट है कि माता-पिता अपनी सन्तान को इन सस्थाआं मेँ नहीं भेगेगे। 
इसीलिए विश्वपिधालय से बाहर रोजगसेन्मुखी शिधा तथा व्यवसाय के लिए 
आधश्यकः वौराल का प्रशिक्षण देने कौ सुचिचरिः -घोजन तैयार छी जानी 
-चाहिए। यदि एसा नही हुआ तो निश्चिते रूप से परम्परागतं विश्वविच्यालर्यो 
पर विधार्थियो खनो प्रवेश देने के लिए अधिक भार यना ही रहेगा। 

डिग्री को नौकरी से अलग करने के सम्बन्ध में यूनेस्को ने 1971 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/126 


में 'लर्निग दू यौ" शीपक याले प्रतिवेदन मे पूर मत्व के साथ चतायारै 
कि ष््रीं फी यढती हई सख्या तथा विविधता को देखत हुए उनकं लिए 
स्कूली शिषा के याद भी सस्थाओं म विविधता लाने कौ प्रथम स्थान पर 
नितान्त आवश्यकता है इसक लिए रिक्षा सस्थाओं मे वुनियादौ परिवर्तन करने 
होगे। स्वती शिक्षा क वाद यिभित पदों कै लिए चयनित अशार्थियों को 
निष्पादित कयि जने याले काम के लिय अपेभित गुर्णो तथा कौशलो की 
दृष्टि से लम्ब समय की रिक्षा व दैनिय की व्यवस्था की जायगी। इससे 
न केयल पदो के लिए उपयुक्त रिधा प्राप्त आरा्थीं हौ उपलब्ध छ्यगे चरन्‌ 
उच्च शिक्षा सस्थाना को उद््र्य८ीन विधार्थिया को प्रवेश देने के दयाव से 
भी मुक्ति भिलगी। इस भाति कुष्ट सीमा चकं दग्र अपना महत्व खोने से 
भी मच सकेगी। 

0 


युभीन शैक्षिक चिन्तन/127 


अन्तर्विषयी शोध 


पाशवात्य दर्शो मेँ शोध कौ एक नई विधि बौ लोकप्रिय होती जा 
र्मे रै वट है अन्तरपिंपयी शोध। वहा किसी एक ही प्रक्रण या प्रातः 
पर एक से अधिक कड शध कार्यकर्ता कार्य करते रहते टं-साध यैठवं ह 
समम्या फे विभिन पटलुर्भो परर युते मस्तिष्क सै विचारे का आदान-प्रदान 
कते ह इसक्र पीठे भावना यटी है कि एक से अधिक मसतिर्कौ हार सोच- 
विचार कर्‌ किया गया शोध कार्यं तुलनात्मक रूप से अधिक प्रभावौ उपयोगी 
सार्थक स्पष्ट तथा तर्क-सगत टोगा। भाते वर्षं मे भी यदलती ई सामाजिक 
भ्थितिर्यौ म अन्तर्धिषयी अनुसथान के भटत्व को नकार नहीं जा सक्ता रै! 
एक-दूसर अनुशासन या विपय के जानकार यिनो का दृष्टिकोण ममञ्चा वायं 
तरथा उसमे लाभ उठाया जाये। जहा करटौ भी यीग्य व्यक्ति एकत्र ते ट 
यहा विचारो फा आदान-प्रदान सभव ए ओर इससे रचनात्मक ऊर्जां के नवीन 
स्तर कौ टरोला जाता है। जव किसी शोध में विभिन्न विषया या विज्ञानो 
या अनुशासन के सिद्वा का प्रयाग किया नाता है तो उसे अन्तर्िषयी 
शोध काते है। इसे कई विद्वान सहकारी शोध भी कह सक्ते ई पर लेखक 
के अनुसार दोन की आत्मा या भावना (50171) मे अन्तर ै। 

पैसै तो भरत्यें अनुरामन या धिपथ फा अपना दृष्टिकीण होता है 
उसकी अपनी स्वतन्त्र अध्ययन पिधि होती है उदाहरण के लिए समाज शास्त्र 
मनुष्य ष विभिन क्रियार्ओो का समाज के सदस्य के रूप मे अध्ययन करता 
है राजनीति शास्त्र मनुष्य तथा राग्य के अन्त सम्बन्थों पर केन्द्रित रहता टै 
सास्फृतिक अध्ययन मानव शास्त्र मँ किया जाता है। वाजार मेँ किसी षस्तु 
कौ कमी ्टोने पर उपभोक्ता हथा उत्पादक का यया व्यवहार रहता रै इसका 
अध्ययनं अर्ध-शास््र म ॒क्या जाता है अधिगम के लिए प्रभावी स्थि्तिया 
वैनसी टै इसका अध्ययन मनाविज्ञान मेँ किया जाता है। इस प्रकार एक 
लम्ये समय से प्रत्यक विषय का स्वतत्र अध्ययन मनुष्य के इर्द-गिदं टौ घूमता 
रहता है अर्थात्‌ मनुष्य का धुरौ बनाकर्‌ विभिन विपय अपनी सीमां मे 
रते हुए अध्ययन करते ह । उनका अपना-भपना भित दष्ट कोण है तथा 
षे च्यवहार के भिन-भित पटलुओं का अध्ययन करते ह । जव प्रत्यक विषय 


युगीन शैेशिक चिन्तन/128 


क्या अपना अपना भित्र दृष्टिकोण दा है तो स्पष्ट है कि उसकी अध्ययन 
विधि भी निश्चित रूप से भित हागो। उपभोक्ताओं तथा उत्पादों के व्यव्र 
का अध्ययन किया जाता हि तथा अधिगम वी प्रभावी स्थितिया ज्ञात क्ले 
के लिए वर्यो पर प्रयोग किया जाता हे। दोना शोध क्रमश अर्थ-शास्त तथा 
मनोविज्ञान से सम्यन्थ रखते ह । उपर्ुक विवेचन से स्पष्ट है कि दोनो िषया 
मे शोध कौ अध्ययन विधि मेँ समानता नहो है! वह भी सभव है कि अन्य 
विशिष्ट प्रकरणो में न्यूनाधिक रूप से समानदा मिल भी जाये पलु प्रत्येक 
विपय की अपनी धारणाये सकल्पनाये सोती है गिनके आधार पर ज्ञान का 
विकास टता है तथा प्रत्येक विपयं का अपना इतिहास होता रै उसकी अपनी 
शब्दावली टतौ है! उस विपव म शोध करते समय शोध विपि उसके इतिहास 
से निदिष्टकी जाती रै तथा शोध में उसी विषयं वपी शब्दावली का अनिवार्यतं 
पालन किया जाता है । सम्भवतया इसीलिए उसे अनुशासन के नाम से सम्योपित 
किया जाता है। 
कालान्तर मे इस विचारधारा मे परिवर्तन आवा। रिक्षाशास्त्ियो का 

कहना था किं ज्ञान डुकडो में नर्टी दिया जाना चारिषए, एक विपय को दूसरे 
यिषय से पूर्णत शत प्रतिशत पृथक करके भिन कमरे मँ उसे बन्द नष 
किया जा सकता। एसा हान एकागी टे जो समग्र चित्र परसतुत नटी करता। 
एक विषय को पाते समय दूसरे विषय को दिमाग से निकाल द यह स्थिति 
वाष्ठनीय नर्ही है कुछ अशो मेँ निष्धित रूप से टानिकारक भी टौ सकती 
है। एेसा ज्ञान जो यथ्ये के सामने समप्र चित्र प्रस्तुत न फर, सभय है उनके 
लिए अपच का कारण वने। 

अन्तविंपयो शोध की परिभाषा 

पाश्चात्य दशा म इस दरक मे हुई लोकप्रिय शोध 

विज्ञानो या विषयो की विधियो का अनुसरण किया जाता क 
के विशेपो कौ विभिन सेवाओं का उपयोग किया जाता ह । इसे 'ही अतर्पयो 
या अन्तर्विदूया शोथ कहते हे । यदपि यट विधि भारत मे अभौ लोकप्रिय 
नहं हो पायौ है। इतना हौ नही कई विरोषड़ वो इमे मानने यौ ह कया 
नह है उनका दृढ मत है कि समाजशास्त्र समाजशास्त्र है उसे मनोविक्चन 
या अर्थशस्् नही चाया जा सकवा। इस अनर्विषयी शोष विधि को क 
लेखक सहकारो विधि भा करते हं चूकि इस पिधि मेँ क अलुश्ासनो क 
विद्वान सहयोग से काम को आगे बढते ै। कटु चिद्नो ५ 9 
एक कदम आग यढकर्‌ इसे सहकारो अतुरासन ही नाम्‌ दे खला ह} भन्न 
भिन्न विपरयो के विशोक अपने इग च सेवाआ का इस तरह योगदान करते 


युमीन दिक चिन्तन/129 


है कि उनकी विधिया में एकीकरण हो जाठा टै तादात्म्य हो जता रै! भिन्न 
भितं अनुशामर्नो के विशेषञ्च भले टौ एक अनुस्थान योना पर काम क्यो 
ने कर रटे दँ उसे अन्तर्िपयी शोध तव तक नर्टी क्ट जा स्ता जव 
तक कि उनमें परस्पर समन्यय न टौ। जिस प्रकार एक कास सगीत के 
लिए हारमोनियम तवला यासुरी आदि विभिन प्रकार क वाद्य सत्र पर कलाकार 
काम कते रहते ह॑ इनका अपना पृथक्‌ पृथक्‌ व्यक्तित्व हौता ह फिर भी 
ये पूर्णतया स्वतेत्र होर कार्यं नटीं कएते तथा न ही उनका स्तत्र अस्तित्व 
कोई अर्थं रखता ह। उनमे यिभिता होते ए भी एक समञ्ौता है एक 
प्रकार की विशिष्ट समञ्ञ-युञ्च रै एकता टै जिससे एक कर्णप्रिय मधुर सगीत 
की ए्वना होती है । इसी प्रकार विभिन विज्ञाना के विशेषङ-अर्धशास्तरी समाज 
शास्प्री शिक्षाशास्त्री मानव शास्यरी वाणिग्य-शास्त्ी मनोचैक्ञानिक प्रशसक 
भूगोतवेत्ता राजनीत्ति-शास्त्री यथपि अपने अनुशरासनो का पालन करते है परस्पर 
एक हकर फाम कते हं। इस भाति कई व्यछ््ां व॑ ज्ञान फा उनकी 
विशिष्टतार्ओ का प्रयोग ोने से इसे सुधरी हई परिष्कृतं विपि कटा जा सक्ता 
है तथा वृहदूशोध प्रायोजनाओं मे इसका निएपद उपयोग किया जा सक्ता 
हे। 
स प्रकार फे शोध को मुख्यत दो भागा में वादा जा सक्ता है- 
(क) अन्तविद्या या ( 110 01510110) इसमे शोध को एक टौ 
विपथ कौ परिधि मे सीमित कर दिया जाता है उदाहरणा ग्रामीण वेकारी- 
परकूति मापन सनता अर्थतत्र से सवध तथा उपचार - 
(ख) अन्तरर्विधा पिपि-( 1711@-01501010त0इसमे शोध को एक 
साथ करट विष्यो से सवपित करके अनुसधान आरम्भ किया जाता टै यथा- 
मदो-घाटी याजनार्ओं के साथ यसे लोगो के एकीकृत विकास की समस्याए्‌। 

इस प्रकार के शोध कार्य फो तीन स्तरों पर विभाजित कियाजा 
सकता टै - 
1 सद्रान्दिक स्तर-विकास वा विज्ञान मानवीय पिकास आदि 
2 व्यावहारिक स्तर-शिभानुशासन अन्य विपर्यो प्रतिमानो सिद्धान्तो आदि से 
शानं प्रा करता है) 
3 वैचारिक स्तर-समास कौ चिन्तन कौ सही दिशा प्रदान नेरना-मानव द्वारा 
पर्यावरण के साथ समजन एर विवेचन आदि। इस स्तर मे दार्शनिक पक्ष पर 
आग्रह रहता ई। 
अन्तर्विषयी शोध की आवश्यकता 

सहकारी या अन्र्विपयी शोध की आवश्यकता या भत्व फे ननि 
निग्र आधार प्रस्तुत कयि जते ह 

युजीन रेशिक चिन्तन/130 =" 


१ कई भां एक अनुशासन स्वदचर रूप से अपने आप मे पूर्णं नरी 
है। विरापज्ञा क अनुसार कड कषतर क यैद्ानिक भी सामान्य व्यि के समान 
है यदि चट उसम प्रयुक्त सामात्य यैजानिफ विधि कै गूढ अर्थ को जाने 
यिना सिफ़ अपने निजी अनुरासन कौ यैहानिक विधि अपनाता ह तां चट 
इस अनुशासन के किसी भी अन्य व्यक्ति के समान हौ धोर्‌ परम्पएवादौ है। 
यष्ट मात्र विद्म्यना होमो यदि अर्थं शस्यरौ यट कहे क्रि समाय कौ समस्त 
जराया पे समस्याओं का भूल कारण अर्थशास्त्र के गर्भ मेँ है तेथा केवल 
अर्थरास्य्ौय उपायो से ते दूरक्ए्े फा आग्रट कर| स्पष्ट है कि सत्कारी 
या अन्तरपिपयौ विधि द्वा अन्य विशेषो कौ भी मदद ली जानी चाष्ठिए्‌। 
2 विभिन अनुशासर्नो फे पृथक-पृथक एते दए भी उनका कषप पूर्णतया 
एक दूसरे से भित्र नौ है । इसका एक मात्र कारण यह रै कि सभी अनुशासन 
का केर एक हौ है मनुष्य। भौतिक विज्ञान भी मानव दवाय सचालितं टै 
तथा मानव फे लिर्‌ ट६। समाज विज्ञान मे यह एक्ता ओर भी अधिक रै 

इसलिए भौतिक विहार्नी फा सामाजिक पट्लू भी ट तथा सामाजिक विज्ञानो 
का भौतिक पटल कत्र विस्तृत रहता र॑ कई लोग मिलकर काम क्ते ह 
तो विषय का विस्तार इतना अधिक हो जाता रै कि लोग च्यस्त हो जते 
॥ कई सामाणिक तथा आर्थिक समस्याओं के काएण किसी नई दवा का 
आविष्कार्‌ त्रा है आर्थिक विकास केवल आर्थिक क्रियाओं से प्रभावित 
नरी टौठा- इसके लिए सामाजिक य मानवीय प्रयात भी समान रूप से महत्वपूरण 
होते ई! समान साधन मुविधाए ने षर भी दो कक्षाओं कौ शैक्षिक प्रगति 
भे भिनत टो सक्ती रै। आर्थिक उन्नति के लिए भीरेसाष्टीक्दाणजा 
सक्ता दै। इन सय भिनताओं के लिए सामाजिकं फारण उत्तददायौ टोते है । 
इससे निष्कर्षं निकलता है कि किसी एक अनुास्नन की समस्या सुलञ्चाने 
के लिए तुरन्त दूसरे विज्ञानो कौ सहायता कौ आयर्यकता पड जाती दै। 
3 अनतर्पिषयी शोध मेँ वस्तुनिष्ठ लाना भी आवश्यक दै । इस शोध 
विधिके प्रमुख लेखक यग का कथने है कि ' अनतर्विषयी शोध की सवसे 
बटौ विशेयता यद है कि मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक कारणो से धिरे एव 
उलक्षे ए मनुष्य जीवन मेँ शोध कार्यं सहज एव स्पष्ट मना देता दै। सभी 
विषयों के ्ान तथा विशेषजञत ग्रा होने से विस प्रकार की टि नष्ट सती 

समस्या उत्पन नह होतौ। विभिन विया का तुलनात्मक अध्ययन करने से 
किसी एक विपय पद्धति के दोप स्पष्ट दृष्टिगोचर होतं ह तथा हन पद्धतियो 
से प्राप विपरीत ष विरोधी निष्कर्पो षा समन्वय भौ हो जाता है। 

4 सामाजिक घटना की प्रकृति कुठ इस प्रकार खौ होती है कि उसके 
लिए अन्तर्षिषयी शोध अधिक उपरक्त रहता है { सामाजिक घटनां आर्थिक 

युजीने शैक्षिक चिन्तन/131 


मनोयैानिक रेतिष्टसिक तथा भौतिक घटनाओं से प्रभावित छतो ह भिनक 
लिए विशि्टीक्ए्ण केक्षेप्र मं कुछ भी नर्टी कटा जा सकदा। ये घटनाय 
स्वय भी प्रिस्थितियो को प्रभावित करती ह । अत॒ आधुनिफ समाजरास्पी 
सामाजिक घटना का उसे समग्र रूप मे सामूटिक रूप सै अध्ययन करे 
ह। उदा्टएण के लिए-भाधुनिरीक्रण एक एेसा पहलू टै जिस पर आर्थिक 
सामाजिक भौतिक राजनैतिक सास्कृतिक मनौवैहानिक आदि अनेक पटलू 
प्रभाव डालते रै । हसक प्रभाव भी इतना मिश्रित रै कि उसका पृथक्‌-पृथक्‌ 
अध्यथन नटी किया जा सक्ता। रसे अध्ययन का यदि प्रयत्र किया गया 
तो एकागी होगा जो पहलू या घटना का समग्र चित्र प्रस्तुत नर्टी कर सक्ता। 

कतिपय निष्ठित प्रकल्पनाओं या निष्कर्पो पर पटुचने के लिए उसी 
से सम्बन्धिते विभिन्न अत उन समस्याओं कौ आर भिन पर शाध किया 
जाना टै कार्य कएने कौ प्रद्रियाओं मेँ अनतर्विपयी शोध फलप्रद एव प्रभावी 
ही सक्ता है। प्त वह सम्भवहै किषषत्र एव विषय की दृष्टि से उनका 
महत्व न्यूनाधिक हो सक्ता है। इसीलिए वृहद्‌ शोध प्रायोजनार्ओं तथा क्षप्रीय 
अनुसन्धान की निरन्तर आवश्यकता ने व्यक्तिगत प्रयार्सो के समन्येय फे महत्व 
खो ओर भी प्रकाशित कर दिया है। 

यही नती विभिन सरकारी एव गैर सप्कारी सस्थाओं मं अनुदान 
देक! इस तर के शोध कार्य कं प्रति जो रुचि प्रकट कीरै इसमे भौ 
अन्तर्विपयी शोध के विकास मे मदद मिली है! चैसे भी कटं सस्थाये शीप्र 
हौ फल जानने को उत्सुक रहती है । अत॒ वे समस्या पर अनोर्विपयी शोध 
भ्रक्रिया से ही काम करवाना पसद करती ह। 

यष तो सुनिधित रै कि प्रत्येक व्यक्ति सभी क्षेत्रो मे विशेषक्ञता 
प्राप्त महीं कर सक्ता तथान टी इस प्रकार की आशा की जानी चाहिए्‌। 
एसी स्थिति मे यह व्यावहारिक न्ट होगा कि सभी अध्ययन व्यक्तिगत स्तर 
पर ही कराये जार्ये। अत्तरविषयी शोष मे एक दूसरे को कीर्थं पद्वतिया कौ 
भी आपस मे जांच पडताल हो जाती टै ओर फिर विभित विचारधारां वाले 
अपने अनुशासरनीं मे आपस मे विचारविमर्शं के याद गो मिर्णय लेते ह उससे 
किसी प्रकार की सामान्य त्रुटि तथा तकनीकी दोय रहने कौ सम्भावना भी 
समाप्त हो जाती है। हाँ यह अवश्य है कि इस प्रकार के आपसी बौद्धिक 
विचार मन्थन तथा निर्णय मे समय लगता है पर अत्र्विपयी शोध के महत्व 
को देखते ए यह सारटीनं है । इसलिये कु अर्शो ठक यह कटना कि आधारभूत 
योगदान अनुसधानकर्ताओं के दल ह्वार नहीं किया जा सकता तुदियूर्णं होगा। 
यदि समस्या शूद्र अनुसधान का विषय दौ चो इसमे कट षिपर्यो या अनुशासन 
के विद्वान से योगदान की अपेक्षा चौ जा सक्ती हं। इसीलिये दस प्रकार 


युजीन शैक्षिक चिन्तन/132 


के अनुसधान की महत्ता दिन प्रतिदिने वदती खा रही है। आज सभी समाजे 
चै्ञानिक इस प्रकार की शोध विपि की आवश्यकता अनुभव कर रहं । 
न केवल इससे एक दूसर कं यागदानां का परिचय मिलता रै वल्कं इससे 
कटं सामान्य समस्याओं का भी उपचार प्रात रोता है इसीलिए आज अन्र्विपयौ 
अनुसधान दलों का सगठन करके विभिन समस्या का समाधानं करिया 
जाता है। 

अन्तर्विपयी शोध षा महत्व एव आवश्यकता पर षिचार करे से 
इसको निप्र विशेपताए्‌ स्पष्ट रोती है - 
(1) अन्र्विषयी शोध कार्य मे जैसाकि शीर्पकसेषीस्प्ट है विभिन 
अनुशासनं कं विशेपज्ञ परस्पर सहयोग से आपसी समङ्ञ-वृञ्च एव सद्‌भाव 
से एक दूस का दृष्टिकोण समङ्षते हुए प्रायोजना पर अग्रसर रोते ह। इस 
विधि र्मे किसां एक अनुशासन की षिधि कौ ध्यान में रखते ए नहीं बल्कि 
स्याग से काम किया जाता रै। जरूरत कै अनुसार विभिन्न अनुशासन के 
विशेषज्ञ अपनी भूमिका निभते है सयोग देते है। 
(2) दल के सभी सदस्यो को केवलं सम्बन्धित समस्या के लिए ष्टी 
अनुसधान करना चाटिए। प्रायोजना मे सम्मिलित विभिन विशेपक्ञ यदि मुख्य 
यात ध्यान मे रण कर किसी गौण वात पर ही ध्यान केचित करते 
तो भूल मार्य के प्रति पभपात हो सक्ता है तथा यह भी सभव रै कि मूल 
शोध कार्य सही ठग से नहीं हटो। एक उदाहरण से यष्ट वात अधिक स्य 
जो जायेगी । बरोजगारी के सर्वक्षण प्र विभिन विषयो के विशेषज्ञ काभ कर 
रटे ै। स बीच मनीवैहानिक शोध के विभिन चरणों पर कार्य करत ए, 
यदि यट जानने का प्रयत्न कर किं माता-पिता अपने प्रथम पुत्र के लिए 
थया धधा पसद क्रते ह या भूगोलवेत्त उसी शोध अध्ययन के साधं साथ 
ओकी भूमि का सर्वेक्षण जाति वार कएना चाहता है या सस्कृति का विद्वान 
उनके भनोर्जन के साधनो का पता लगाना चाहता है या अर्थशास्मरी उनके 
पारिवारिक यगय का अध्ययन करना चाहता है या राजनीति शास्त्री उनकी 
एजनीतिक दल के पसदगी या किसी दल या किसी नेता के प्रति पसदगी 
का अध्ययन करना चाहता टै तो सभी विशेषज्ञ न तो ठौसं अध्ययन कएने 
क्यौ स्थिति में टेगे न इसे अनार्पिषयी शोध विधि कहा जायेगा ओर सभव 
है- मूल कार्यं बेरोजगारी का स्वक्षण पूरा भी नष्टो ओप्यदिपूरा्तेभी 
गया तो सर्बसम्मत निश्चित निप्क्पं हो न निक्ल पारये। ेमी स्थिति भँ सभी 
मानवीय प्रयत्र निष्फल दोगे। 
(3) अतुसथान का प्रयोजन समान को लाभ पटुचाना है! अत सर्वाधिक 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/133 


महत्वपूर्णं उदेश्य किसी द्रात्वालिक या दीरययामी समस्या का टल खोजन है 
दूसरे शब्दो मे याका खा सक्ता षे कि शध मिष्कर्यो का उपयोग समान 
की व्याधयो को दूर कएने के लिए सरलता एव सुविधा से किया जा सक्ता 
है अत निलन खोजते समय समस्या कौ य्यावह्यरिकता टौ मस्तिष्क मे रहती 
है। मान लीगिये बढती ईं जनसख्या पर एक वृटद्‌ शोध कर्यं हाथ मे 
लिया जाना है विद्यालय के शिक्षक वढती हुई जनसय्या रे व यडे परिवार 
की धारणा वी कक्षाओं म॒ जनसघ्या सम्बन्धी माल्थस के सिद्धान्त आदि 
पर ध्यान केद्धित कर सकते है । वाल-मृत्यु तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर चिकित्सा 
विज्ञानी कार्यं करते ह। बडे परिवारो की या जनसख्पा के सधन धनत्वं या 
नगरीकरणं की कठिनाश्यो का अर्थशास्त्री अच्छा अध्ययन क्र सकते हं। धरम 
के विशिष्टीकरण कौ हानिया या श्रमं कल्याण सवधी समस्याये मजदूर बस्ती 
के सामाजिक जीवन का अध्ययन समाजशास्त्री अच्छा कर सकता टै। गर्भ 
नितोधक उपायो पर कार्या चिकित्सक अच्छा कार्य कर सकता है । इस स्थिति 
मे एस योजना पर विभिन अनुशासन के विरपज्ञो ने मिलकर सोच-विचार्‌ 
कर, सही परिस्थितियों मे अन्तर्मन से काम किया रै तो प्राप्त निष्कर्षं गनसघ्ा 
नियग्रण पर प्रभावो रूप से लागू किए जा स्वेर्णे। इस भाति समस्या क 
निदान भे व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रमुख रहता है ॥ 
सहकारी या अन्तर्विषयी शोध विधि के गुण 

ईस विधि की पिशेपतारे, महत्य एव आवश्यकता जान लेने के बाद 
उचित लगता है कि अन्तर्विपयौ शोध पिधि के गुरणो पर प्रकाशं डाला जाय~ 

इससे विभिन्न विपर्यो के विशेपर्ञो के मीच विरोध समाप्र होकर 
एकता सष्नुभूति तथा समन्वय का विकास होता है। इस विधि के माध्यम 
से एक दूसरे के दृष्टिकोण को सहौ रूप मेँ समक्ञने का प्रयत्म किथा जाता 
है। अनेक सनदेशपूर्णं स्थितियों समाए टो जाती है । अनुसधान दल के सभी 
सदस्य प्रायोजना को अपना कार्य मान कर आगे बढते ह। 

किसी भी पिपय का विस्तृत व गहन अध्ययन हौ जारा है। पृथक 
पृथक इको मे शोध क्रे सेने वाली वुधिरयो सै भी मुक्ति मिल जातौ 
है। 


विषय या शोध प्रयोजना का अध्ययने एकागौ न होकर समग्र रूप 
म ता है। प्रायोजनां के सभौ पहलु्ओं पर आवश्यकतानुसार प्रकाश पडता 
है\ -एक से अधिक मस्तिष्को छाए काम करने से टि क सम्भावना समपि 
्ो जाती है। इसकौ वस्ुनिष्ठता पर निर्भर किया जा सक्ता है। 

अनुशासनं का विशिष्ट आग्रह समाप हो जाता है तथा विभिन्न विषयो 
मे समन्वय कौ भावना उत्यन ्टोती हे। 


युगीन शेक्षिक चिच्तन/134 


+ -# 


सामाजिक समस्याओं फो सहो पर्परिक्य म लिया जाता है इनका 
वाधितं सही तथा सवागीण अध्ययन क्त्या जता रहै। 

इस विधि म साधनों का अधिकतम उपयाग होता है। जा साधन 
यो उपकरण जिनके पास होते है उन्टं॑ अधिक उपयोगी कामी मेँ लगा दिया 
जाता है इससे साधनों की गतिशीलता बटती र जिससे अनुसधानकर्ता भी 
लाभ उठते ह तथा सनग रवं ह 
व्यवहार म अन्तर्विषयी शोथ विधि 

अन्तरविंपयी शोध कौ पूर्वं मौलिक आवश्यकता एक सुनिश्चित शोध 
प्रायोजना कौ रचना है जिसमे शोध के उद्दश्य तथा क्षेत्र सटी सही निरूपित 
हो। उदश्य प्रयतो का निधाए्ण करते हं\ तभी यह निश्चित किया जाता र 
कि प्रायाजना म किन किन विपर्यो क पिरोपज्ञा की आवश्यकता पटेमी। प्रायोजना 
म॑ हाय वटने वाले विभिन्न अनुशासना के विद्वान एेसं व्यक्ति हो जो अपने 
विषय चं जाने माने स्याति प्रास विद्वान होने के साथ हौ रूढिवादी न हो। 
विचारे म वे इतने उदार हां कि ये दूर विज्ञाना कौ पद्रतिया ग्रहण कर 
ले तथा उनसे हाथ मिला कर्‌ परस्पर विचार विमर्शं से कार्यं कर। कोठारी 
शिक्षा आयोग (1964-6) कं अनुसार अनेक सीमा तक ओर्‌ अन्ते विद्या 
विषय शीघ्रता से विकसिते हो कर स्यतत्र अध्ययन ओौर अनुसधान के क्षेत्र 
चनं दहे ई। उदाहरण के लिए गणित ओर भौतिकी रसायन अओौर भूविज्ञान 
जीव धिज्ञान ओर भौतिकी गणित ओर अर्थशास्त्र के सरिलष्ट पाट्यक्रम व 
लाभदायक ओर रचिक्र णे! एेसे पाद्यक्रमों छौ व्यवस्था सयधित विभागा 
खनौ सपु सूप से करी चाहिए जीव विज्ञान विभाग के चुने 
हुए ज्म, सतिकी में तथा भौनिक विभाग के चुने हुए आदमी रसायन विभाग 
र्म प्रतिनियुक्ति पर एट सक्ते ह। फिर विज्ञाने विभाग विरोपतया भौतिकी तथा 
गणित अनुसधान मे रचि रखने वालं इन्मोनियरा क घनिष्ठ सम्पकं से अत्यत 
लाभग्वित हो सक्तं आज जरूरत इस बात की रै किं हमारी 
शिक्षा प्रणती मे विज्ञान शिल्प विज्ञान तथा अनुशासनों को पास-पासं लगाया 
जाये। जैसा कि अरे देल ने कटा है *विच्ञान व इन्लीनियरौ के विषय 
मे सवसे वडा अपकार ओर कोड न्ते टो सक्ताहैकिएकयोदूमके 
पिस्दध उक्साया जाये ओर दनि के वीच खाई खाली जाये| * इसी सम्बन्ध 
षौचो यण क्यो कटा रै- 'अन्तविपयो शेध च त्लिए्‌ पित्‌ वरप 
यै अनुशासन युच्छ सम्मिलित प्रयास खौ आवश्यक्ता रै जो स्वार्थं त्व 
दलतीलों दथा ईर्ष्या से विचलिग न टो। सभी विेषनज्ञा में पस्य एक दूए 


युगीन शेदिक चिन्तन /135 


महत्वपूर्णं उदेश्य किसी वत्कालिक या दीर्थगामी समस्या का घल खना रं । 
दूसरे शब्दो म यो कटा सक्ता करि शोध निष्को का उपयोग समाज 
कयै व्याधयो कौ दूर क्एने कै लिए सरलता एव सुविधा से करिया जा सक्दा 
है अत निदान खोजते समय समस्या की व्यावठारिकता टा मस्तिष्क मे रहती 
है। मान लाजिये वदती हई जनसख्या पर एक वृद्‌ शोध कवं हाथ म॑ 
लिथा जाना र विद्यालय के शिक्षक यदत ई जनसख्या रे व वदे परिवाद 
की धारणा यद्धौ कक्षार्जो म जनसघ्मा सम्बन्धी माल्थस के सिद्रानत आदि 
पद ध्यान केन्द्रित कर सक्ते है । वाल-मृत्तु त्था स्थास्थ्य सेवाओ पर चिकित्सा 
विज्ञानी कार्य कते ई। यङे पपिवार्ते कौ या जनसख्या क सघन धनत्वं या 
नगरीकरण कौ कठिनाय का अर्थशास्प्री अच्छा अध्ययन कर सक्ते ह। श्रम 
के विशिष्टीकरण फी हानिया या श्रम कल्याण सवधी समस्याय, मजदूर यस्ता 
के सामाजिक जीवन का अध्ययत समायसास्त्ी अच्छा क्र सकता है। गर्भ 
नितेधकं उपायो पर कार्यरत चिकित्सक अच्छा कार्य कर सक्ता हे। हस स्थिति 
मे इस योजना पर विभिन्न अनुरासर्नो के विशपह ने मिलकर सोच-पिचार 
कर, सही परिस्थितिरयो मे अन्तर्मन से काम किया रै तो प्राप्त निष्कर्षं ऊनसट्या 
नियत्रण पर प्रभावी रूप से लागू किए जा स्केर्णे। इस भाति समस्या क 
निदान भँ व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रमुख रष्वा है। 
सहकारी या अन्तर्विषथी शोध विधि के गुण 

इस विधि कौ विरोपवारे, मत्य एष आवश्यकता जान सेने के याद 
उचित लदा है कि अन्वर्विषयी शोध विधि केः गुर्णो पर प्रकारा खला जाय 

इससे विभिन्न विषयो के विशेष के पोच पिरोधं समाप्त होक 
एकता सहानुभूतिं तथा समन्वय का विकास हेवा है। इस विधि कै माध्यम 
से एक दूस के दृष्टिकोण फो सही रूप मे समङ्ते का प्रयल क्रिया जतां 
है। अनेक सददेष्टपर्णं स्थितियों समाप्त टौ जाती ह। अनुसधान दल कै सभी 
सदस्य प्रायोजना को अपना कार्यं मानं क्र आगे यदते है। 

किसी भी विषय का विस्त व गहने अध्ययन टो जाता रै। पृथक 
पृथक इको मे शोध करने से तेने वालो बुर्ियो से भी मुक्ति मिल जाती 
है। 

विषय या शोध प्रायोजना का अध्ययन एकागी न होकर समग्र रूप 
मे होता है) प्रायोजना कै सभौ परलुओं पर आवश्यकतानुसार प्रकाश पडता 
है एके सै मभिक मस्तिष्को दारा काम करते से ददि की सम्भावना समा 
हो जातौ है। इसकी वस्तुनष्ठवा पर निर्भर किया जा सकता ह। 

अनुष्सरनो का विशिष्ट आग्रट समा हो जाता है तथा विभिन्न पिषयो 
मं समन्वय कौ भावना उत्पतन होती है। 


युमीन शेकषिक चिन्तन /134 


सामाजिक समस्याम वो सहो पर्रक्य मे लिया जाता है इनका 
याति सौ तथा सर्वागीण अध्ययन किया जाता ह । 
षस विधि मे साधनो का अधिकतम उपयाग रोता ₹ै। जो साधन 
या उपकरण निनके पास रोते हं उन्टं अधिक उपयोगी कामो मँ लगा दिया 
जाता है इससे साधनों कौ गतिशीलता वटतो हं जिससे अनुसधानकरतां भी 
लाभ उठते है तथा सजग रहते ह। 
व्यवहार म अनर्विपयी शोध विधि 
अनतर्थिपयी शोध की पूर्वं मौलिक आवश्यकता एक सुनिश्चित शोध 
परायोजना वी स्वना है जिसमे शोध क उदेश्य तथा क्षेत्र सही सटी निरूपित 
टो। षश्य प्रवतो का निधारण करते हं । तभौ यह निधित किया जाता ई 
कि प्रायाजना म किन किन विपर्यो के विशेषज्ञा की आवश्यकता पडगी । प्रयोजना 
भे एथ बटाने वाले विभिन अनुशासनों के विद्रा एसे च्यक्ति हो जो अपने 
विपयके जाने माने ख्याति प्रा धिघ्रान होने के साथ ही रूदिवादी न हौ। 
विवार मे ये इतने ठदार हौ कि ये दूस विज्ञाना फौ पद्वतिया ग्रटण कर 
लै तथा उनसे हाय मिला कर परस्प विचार विमर्शं से कार्यं करे। कोठारी 
रिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार *” अनेक सीमा तक ओौर अन्त विद्या 
विषय शीघ्रता से विकसित हो कर स्वतत्र अध्ययन ओर अनुसधान के क्षेत्र 
यन एषे ह। उदाएण कै लिए गणित ओर भौतिकी रसायन ओर भूषिङ्ञान 
जीव विज्ञान ओर भौतिकी गणित ओर अर्थशास्त्र के सरिलष्ट पाद्यक्रम वे 
सभदायक सौर सविकर गे \ एेसे पादयक्रमे कौ व्यवस्था सबधित्‌ विभागो 
षो सयुक्त रूप से कएनी चाहिए जीव विज्ञान विभाग के चुने 
हए आदम, ,तिकी मँ तथा भौतिक पिभाग के चुने हुए आदमी रसायन विभाग 
म प्रतिनियुक्ति पर रह सते ₹। फिर विज्ञान विभाग विशेषतया भौतिकी तथा 
गणित अनुसधान मेँ रचि रखने वाले इन्जीनियते के घनिष्ठ सम्पर्क से अत्यत 
लाभान्वित हो सकते रै आज जरूरत इस बात की है कि हमारी 
शिष्टा प्रणाली मै विज्ञान शिल्प पिङ्ान तथा अनुरासरनो वो पास-पास् लगाया 
जाये। जैसा कि जेएे स्द्रेयय ने कठा हे विज्ञान य इन्जीनियी के विषय 
मे सवसे यडा अपकार ओर कोई नर्ही ठो सक्ता है कि एकको दूस के 
विरुद्ध उकसाया जाये ओर दोना के बीच खाई उलो जाये। शमी सम्बन्ध 
मेव "यग कायो कटना हे- " अनदर्िपवी शष के लिए विभिन विशपञ 
के अनुशासन यु सम्मिलित प्रयास की आवश्यक्हा है जो स्यां तर्ब 
लीलो वथा ईय से भिचलिव न हो। सभौ विरो म परर एव- दूस 


युगीन शेदिक चिन्तन 135 


के प्रति सम्ञदारी तथा सदानुभूति होनी चाहिए! ये वाते न ्टोकर अनामिषथी 
शोध मँ अनावश्यक सचतान उत्पत ने छी पूरी-पूरौ सभावना रद्तो ह॑। 
अन्तविषयी शोध पर कार्यं क्एवै की तीन स्थितिवा पे सक्ती है- 
1 शिक्षा शास्र स्वय समस्त अनुसधान पार्यं कर। या केवल अआवरयक्ता 
फे समय विभिन समस्या पर विशेष्ञा से परामशं क स। 
2 अन्तर्विषयौ शोध प्रायोतना पर कार्यं उनके विशेष हवा हठी किया 
जाय} पे स्वये अपनो एोधं योजनाय यनारपे पथा मिलकर समन्वय कर ले। 
उसके याद शोध का उपक्रम आरभ पे तथा सभी पिरोषह्न एक मन टो समन्वय 
से काम कर) शोध के विभित चरणो मे सभी विशेषज्ञ प्रामोगना की प्रगति 
प्र विचार क्‌! मिल यैठ कर, परस्पर विवार-विमर्शं कर सतुलन वना 
पखं। अन्त म एक स्थान परं शोध का एकीकरण फर दिया जये। 
3 विभिन्न विपर्यो क विशेषड़ अपना अनुसधान कार्यं स्वतेप्र रूप मँ 
करे ओर अन्त मे ठनकी शोध के आधार पर समन्वय दथा एकोकरण के 
ष्वा उसी रूपरंखा के अनुसार कार्य किया जये। 

अनर्षिपयौ शोध प्रायोजनाओं में निदेशक को अधिक रवि लनी 
चाषिए+ कभी कभी उसे कषत्रीय अनुसधान कर्ता फे साथ जाना चाहिपे। 
तथा उत्तरदाताओं से मिलना चाषटिए। इसते क्रय कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन 
मित्ते एवे स्वय कौ क्षेम सम्यन्धी समस्याओं से जानकापी ररेगौ। इससे म्‌ 
कैवल अध्ययन कौ अधिक उपयोगी यनाया जा सकता रै मल्कि इससे समय 
एव धन की भी वचत ठो सकती है। प्राय देखा जाता है कि जो व्यक्ति 
प्रायोजना प्राप्त करता है वट सरकारी एव नैर सरकारी सस्थाओं से आर्थिक 
मदद लेता रै एव स्वय उसका निदेशक यन जाता है तथा अन्य सहवोगि्यो 
शो उपनिदेशक तथा अनुसधान सायक आदि यना देता ह। इससे दलीय 
भावना सगठित न ठो पाती । सिर भी निदेशक को सम्पादकीय व निरीक्षकीय 
भूमिकाए अदा करते हुए शोध क्षत्र मेँ जाने कौ अपनी प्रतिष्ठा को नौचे नहीं 
मानना चाटिए्‌। कप्रौय कायं मे भाय लेने से उसे क्रियात्मक रूप से अपना 
शैक्षिक अधिकार स्थापित करने मे साया प्राप छोगी। 

अन्तर्विपयी अनुखधान षिपि से शोध कार्य सम्प कएने फे लिए, 
उदाहरणार्थ नदी धाटी परियोजना क्षेत्रो के निवासिर्यो के समग्र विकास का 
विस्कृत ऊध्ययन किया जा सक्ता है \ सम्पूर्णं शोध कार्य को विभिन शर्वं 
मे बारीकी से लिपिबद्व कर विशिष्ट ज्ञान या कौशल या तकनीक के जानकार 
अनुसधानकर्तांओ को या उनके दल को सौपा जा सकता है ~ 


युगीन शाक्षक चन्तन/135 


1 आुनिक्ता नैतिक मूल्य तथा सामाजिक 


परिवर्तन के प्रति किशारों वी अभिवृति ~ समाजयिङ्ञानी 

2 सामाजिक आधिक स्थिति के सन्दर्भे 

स्कूली वच्चो की शैक्षिक सम्प्राषि ~ मनापै्चानिक 

3 जन्मदर्‌ मे परिवर्तन कुपोपण तथा रग ~ चिकित्सक 

4 विभिन आयु स्तरो प्र मातृभाषा का 

शब्द्‌ भण्डार्‌ ~ शिभाधिकारी 

5 अन्तर्जैवीय तत्व तथा सामाजिक दूरौ ~ जैव चिह्ानी।मनीवैचानिक 
6 मतदान या च्यवटार मे प्रजातच्र ~ रजनातिशास्त्री 

7 भू स्वामित्व जोत तथा एजस्ष ~ भूगोलयेता/भूविज्ञानी 
8 पारिवारिक वजर वचत तथा 

ग्रामीण वरोजगारौ ~ अर्थशास्त्री 


9 लोकगीत लाकनृत्य तथा लाक सस्कृति 
10 निवास कौ सुनिर्धारित वस्तुकला तथा 


समाज विकरानी(नृशास्तरी 


सस्ते मकान बनाने के साधन य तरीक ~ अभियान्त्िक 

11 शिशु प्रालने कौ विधियो तथा वर्च्वो का 

स्वास्य्य -चिकित्सा स्वास्थ्य विनानो 

12 भूमि विवाद तथा इसी प्रकार क 

विवादों के नियमन की विधिया ~ कील 

13 कल्याणकारौ गतिविधियों खा सर्वेक्षण ~ समाज सुधारक्सामाजिक 
कार्यकर 


ऊपर यताये सभी 13 दल एक साथ एक हौ पद्‌ कार्यं योजना 
पर शोधकार्यं केरेगे। जव जहा जैसी आवश्यकता हागो वे मिल बैठ कर 
बात क्रेय विचार विमं के विवाद के विन्दु पर विचाये का भूल रूप 
से आदान प्रदान होगा! एेसी वैठक दल सक्लन सारणीकरण्र अक्न विग्रूपण 
तथा प्रतिवेदन लेखन के समय आवश्यकतानुसार आ कग । 

शोध के लिए कुछ ओर विपय सुश्चाये जा सबते है- 
* पिषठडी जातिया के कुपोपण वथा बीमारी सम्बन्धी समस्यार्ये 
* पचायती राज का नगरीय प्रशासनं व्यवस्थां पर्‌ प्रभाव 
* उद्यम तथा श्रमिक स्धों कौ शिकायत का निराकरणं 
* ग्रामीण येरोजगारी प्रकृति गम्भीरता विस्तार विकास दथा सम्भावित उपचार 
* प्राथमिक कथाओं के विदयार्थिया का नैतिक विकास 
* इन्दिरा गाधी/महात्ा गाधी के वरि में विार्धियो क ज्ञान का विस्तार तथा 

मत्रा 
यमीन जेिक चिन्तन।1ॐ 


किसी गवि का समग्र अध्ययन 
ध्यावसायिक शिभा का इतिहास 
सहयोगी तथा प्रतिस्पद्धत्मिक व्यवहार का अध्ययन 
अम चुनाव म॑ जीती महिला प्रत्याशिया का समग्र अध्ययन 
* प्रशासन मे अनुसूचित जात्ति अनुमूचित जनाति तथा महिला प्रत्याशियौ 
का समग्र अध्ययन 
* कैदिया के असामागिक व्यवहार का अध्ययनं 
* पचायत चुनाव का ग्न एव समग्र अध्ययन 
अन्तर्विषयी शोध विधि कौ परिसीमाए - 

अन्तरविपयी अनुखधान म कड विपर्यो का मिश्रण होता हं तथा एक 
प्रायोजना म कई शोध सटायक तथा शाधर्र्ता होते र। अत यह जरूरौ हदा 
है कि पे सव प्रायोजना से सम्बन्धित मूलभूतं सनज्ञाआ तथा अवधारणाओं से 
परिचित हो दथा शोध प्रायोजना के उदेश्या का ज्ञान हा। वै अपने विचार 
प्रकट करम को स्यतेन्र ही न हो वल्कि एेसा करने के लिए उन्हं प्रोत्साहन 
मिल तथा यै अपने आपको दल प्रायोजना से सम्बद्व॒ समश्च । 

एक प्रायोजना पर सफल कार्य के लिए यैयक्तिक विशेपदाभं के 
अतिरिक् ओर भी कई तत्या को ध्यान मेँ रखना पडता है । उचित समन्यय 
वनाय रखने के लिए. अन्तर्विषयी शोध दल मे प्रत्येकं सदस्य वो एक दूस 
के पिचयकाक्म से कम प्रारम्भिकं ज्ञान अवश्य रखना चाटिए्‌ ओर फिर 
यह भी जरूरी नर्टी है कि सभी प्रकार कौ समस्याभो का अध्ययन अन्तर्विषयी 
शोध सिधि द्वार टी हो। इस विपि से केवल सामान्य तथां व्यावसायिक समस्याओं 
यर ही सर्वेक्षण द्वारा अनुसधान किया जा सकेता ह ! गहन अध्ययनं तथा सैद्वान्तिक 

विवेचन एष सभी परिस्थितिर्यो मे योग्यताभा की बहुलता का समाकलन 

गहन तथा पिस्तृत अन्वेषण अथवा दैनिक कर्यो मे विनियोजन अनततर्विपयी 
अनुसथान धिधि द्वारा अधिक उपयु होता ह। 

अन्तर्विपयी शोध मे प्राय अधिक धन खर्च होता है जिसके अभाव 
मेन तो तकनीकी शोध तु सहायता ओर नं विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति 
ही प्रा कयि जा सके हे। इसी प्रकार इस तरह के शोध मेँ समय का 
भी बहुत महत्व येता है बहुत थोडे समय में वृहद्‌ शोध कार्य एक बडे 
शोध दल द्वारा सम्यत्न किया जा सक्ता ह 1 सभी अनुशासनो के विशेषज्ञ एक 
खपुक समय षट उपलब्ध हो सकेगे इत्ये धी सन्देट -बनो -रहता टै शोध 
आयोजना वृहत्‌ स्तर पर ्ोने म व्यय होता है। अत॒ आर्थिक दृष्टि सै सरकारी 
तथा नैर सरकारी सस्थाओं पर निर्भर रहना पडता है ओर यहो कारण दै 


५ 
# 
क 
क 


युजीन शेशिक चिन्तन/138 


कि कभी कभी आर्थिक समस्या भी इस प्रकार कं अनुसथान म॑ वाधा उत्पन 
कर्‌ दती है। सरकार एव भैर सरकाते सस्थाओं द्वारा आर्थिक सहायता नहं 
मिली तो शोध कार्य फी गति धीमी हो जती है ऊर कभी कभी तो प्रायोजना 
पूरी ष्ठी नहीं हो पाती। 

प्राय होता यह टं कि अनुसधान दल म जिन विभिन विरो 
का चयन ष्टौता है वट चयन सटी नरी ट पाता ओर उसकी वजट से शोध 
प्रायागनाएं असफल पते जातौ ह । अत एक अनुसधान दल म॑ प्रत्येक सदस्य 
को अपन कत्र मे विशेषज्ञ या ज्ञाता हाना चाहिए। स्पष्ट है किं ये अपने 
दृष्टिकाण स॑ सोचते ट आर उनम जितना ण्यादा र विभिन विज्ञानो के अन्त 
सम्बन्धा तथा उनके भिन~भिन दृष्टिकाणो को सीखन एव समङ्खनै की इच्छा 
हानी चाटिए। एसा न होन पर प्राय एक सर्वसम्मत निर्णय लेने मेदरीष्ठो 
जती र तथाक्भो कभी मतभेद भी हो जाते हं! अत एसे समय पर विरोषशो 
का आपसी मतभेद भुला कर बाद्धिक सद्भाव दिखाना चाहिए जिससे शोध 
कार्यं सही दिशा वनाय रखे सभी वो आपस में सटयौग करना चाहिए। 

कभी कभी अन्तविपयी शाध र्मे दल सदस्या कै मध्य सघर्प से 
मतैक्य न शन से हानि पर्टुचतो है जयकि दल मे एसे सदस्य ते हं जिनकी 
सामाजिक सास्कृतिक तेथा आर्थिक पृष्ठभूमि भिन्न हाती हं जैसे भाषा धर्म 
तथा विभितर आर्थिक वग। एेसे दल म समायाजन मे कविनाई उत्पन हौती 
है दल को षने बाता से ऊषर रह क्र कार्यं करना चारिए। दल कौ सफलता 
क लिए सगेठन एक मुख्य वात है । शोथ दल के सरल सगठन के लिए 
शैक्षणिक प्रतिमान (एकेडेमिकनावर्म) शक्तिं अथवा तन से अधिक महत्वपूर्ण 
६ । नौकरशाही ढाचे म लागा से अपने उच्दाधिकारिया की आज्ञा (विना किसी 
भ्रकार का प्रश्नं किये) मानने को अपेक्षा की जाती है तथा यह जरूरी होत्रा 
है चिः य अपने उच्वाधिकारिया के विचारा सं हमेशा सहमत हौ । तेकिन 
यह अम्तविपयी शौध मे नहीं चल सक्ता! यहा पर ठच्च पद पर कार्यत 
च्यक्ति को नौकरशाही कौ तरह वास (8055) न मानकर उसे एक विशेपज्तता 
प्रा विद्वान ष अनुभवी व्यक्ति माना जाय। लेकिन इसके साथ ही यह पद 
सोपान मेँ यदि दल का कोई सदस्य नीचे के पद परहो तो भी उसके विचारो 
का उसके ज्ञान एव अनुभव का आदर करना चाहिए उनको यह कभी अनुभव 
नष्टानि देना चाहिए कि वे आलाचना से बाहर हं। वे भी उत्तमे ही उत्तरदायी 
है जितने कि शोभ प्रायोजना के निदेशकः। 

इस विधि में शोध प्रायोजना के असगढित तथा अकेद्धितं होने का 
डर र्ता रै। प्रत्यैक विशिष्ट विपय कौ अपनी अनुसधान विधि चेती है 
ओ उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है। विभि पद्वतियां के समन्वय य 

युगीन शेनिक चिन्तन/139 


सहयोग से बनी शोध प्रायोजना कटा तक वस्तुनिष्ठ व यैज्ञानिक एह सकेगी? 
यह सनद्ास्पद ह। 

अनतर्विषयी शोध अध्ययन दल मे करई स्तर के कार्यकर्ता हेते ह 
जैसे निदेशक शोध सहायक सर्वक्षणकर्ता जदि) महत्वपूर्णं यह दहै कि चे 
सव एक दूसरे क प्रति समान दृष्टि से देखं तथा यदि उच्च पदासीनं व्यक्ति 
को सम्मान दिया जाता है तो वह इसलिए नही कि उस पर कोई जोर जवरदस्ठी 
है बल्कि इस लिए किं वह व्यक्ति विरोपज्ञ एव अनुभवी ह। यह सम्मान 
कौ भावना अपने आप उत्पत होती है न कि किसी दवाव से। 

यट स्पष्ट है कि एक दल समन्वयात्मक परिणाम प्राह करसकता 
है जिसमं एसी एकता टो जो विविधः प्रकार के विशपरञो के एकत्रित होने 
से प्राप नहीं टो सक्ती है। परन्तु यषा इससे भी अधिक महत्वपूरण परश्च सिद्धान्त 
एव कार्य पद्वति स सम्बन्धित हं । अत दल में एक एेसा विशेषज्ञ होना चाहिए 
जो समस्या की गहराई तक जा सके एव अपने सहयोगियो षो भी समन्ने 
मे सफल हो सके, उन्ह सन्ताप दे स्वे। यह केवल उस अध्ययनं तक हौ 
सौमित मी ्ठोगा वल्कि भविष्य में होने साले शोध कायो के लिए भी एक 
आधारभूत प्रलेख हो सकेगा। 

अन्तविषयौ शोध विधि मेँ समस्या का सटी हल निकालने के स्थान 
प्र विभिन अनुशासनो मेँ समन्वय स्थापित करने पर ही अधिक ध्यानं दिया 
जाता है। सम्भव है अन्तविपयी शोध प्रायोजना के लालच मेँ इतने परिवर्तन 
कएे पडे कि घे उसका स्वरूप हौ यदल दे उसकौ मूल आत्माष्ठीन 
रहै तथा सही निष्कर्षं निकालना हौ असम्भव हो जाये। 
४, अन्तरविपयी शोध विधि से केवल सामान्य तथा व्यावहारिक समस्याम 
पर सरवक्षण ह्वार अतुसधान किया जाता है ! गहन अध्ययन तथा सैद्रान्तिक 
विवेचन इसके द्वा सभव नटी है। 
इस विधि में शोध प्रायोजना के असगठित तथा अकेन्धिते होने का 
खर रहता हं । प्रत्येक विशिष्ट विषय की अपनी अनुसधान पद्वति देती है जो 
ठसक लिए सर्पाधिक उपयुक्त होती है । विभिन पद्रवियो के समन्वय व सहयोग 
से बनी शोध प्रायोजना कहा तक वस्तुनि च वैज्ञानिक रह सकेगी? यष्ट 
सन्द्-पूर्णं है। 
५ अन्तविपयो शोधविधि मेँ समस्या का सहो हल निकालने के स्थान 
र विभिन अनुशासन मे समन्वय स्थापितं करते पर ही अधिक ध्यात दिया 
याता है! सभव है अनतरविययी शोध प्रायोजना कै लालच मेँ इतने परिवतन 
कएने पड कि वे सका स्वरूप हौ वदल देँ उसकी मूल आत्मा टौ न रहे 
तथा सौ निष्कर्षं निकालना टौ असभव टो जाये। 


युगीन शैक्षिक चिन्तन/140 


उपसंहार 
अन्तर्विपयी शोध विधि के दोप एव समाय पद लेनेके वादभी 
इस बात से मना नहीं किया जा सकता है कि यह विधि समाजं विज्ञानो 
भे प्रयोग नही कौ जा सकती या हामिप्रद र। सावधानी सजगता आग्रह 
से मुक होकर, निष्पक्ष रह कर कार्य किया जाये तो इस विधि की उपयोगिता 
का लाभ उठाया जा सकता है। इसकी व्यावहारिकता पर सन्देह नही किया 
जा सक्ता\ चैसर भो भप्त म पचवर्पौय योजनाओं के लामू शने के बाद 
से अन्तपिपयो शोध का महत्ता दी जाने लगी है \ "विश्वविद्यालय के अनुसधान 
के स्तर म सुधार के लिए" कोठारी शि्पा आयोग (1964-6) का कहना 
है कि" यह आवश्यक रै कि येली कार्य (टीम वर्क) का विकास ्टो। 
इसकी आवश्यकता विभागा के अन्दर तथा समूच विश्वविद्यालय क्षे मे स्वस्थ 
अनुसधान के वातावरण ओर अनुसधान के विकास के लिए है। टोली कार्य 
वास्तविक रूप म हाना चाहिए ।** इसके अलावा प्रायोजना मे जिस सदस्य 
का जो भी यागदान रषा टो, उसे उसका पूर श्रेय भिलना चारिए+ यह नही 
कि काम सवते किया तथा श्रेय कवल प्रायोजना निदेशक को मिले व्यवहार 
मेँ देखा जाता है कि सामाजिक विज्ञानो भे वृहद्‌ शोध कार्यो मे कई लोग 
अच्छे उच्च स्तर का कार्यं करते हे पर उनको अपने इस कार्य का श्रेय नरी 
मिलता तथा अनुपयुक्त रूप से प्रायोजना निदेशक फा श्रेय दिया जाता है 
जोकभी एक पर्छि नरी लिखता तथा अनुसधान कषेत्र यौ भी जाकर नहीं दखता। 
अच्छाष्टो इस तरट खौ सकीणताओं का अन्तविषयी शोध में प्रण्ट ना। 
षो। 
श 


युजीन शैशिक चिन्त7/141 


समाज विज्ञानो मे अनुसधान की स्थिति 


स्वर्गीय आचार्य विनोबा भावे ने आज कौ रिक्षा व्यवस्था पर्‌ असन्तोष 
च्यक्त करत हुए एक बार कटा था कि आज की शिक्षा व्यवस्था मं ॐ या 
36 प्रतिशत अक या श्रेय प्राप्त करने वाले विद्याथीं उत्तीर्णं होतै है। इसका 
अर्थं यह भी बताया जा सकता है किं न्यूनाधिक रूप से 10 में से 'सादे 
तीन या चार अक प्राप्त कर लेना उत्तीर्णं रोने के लिए ठीक है। यदि इसे 
ठीक मान लिया जाये तो अव यो केल्यना कौजिए्‌ कि एक व्यक्ति भूखा 
है तथां यह 10 रेटिया खा सकता है। अव यदि कोई भोजन कराने षाला 
उसे 4 रदी तो ठीक से सेक या पकी हई परोस दे तथा शेष 6 राटिया 
कच्वी ही बिना पकी परोस दे तो उस भूखे व्यक्ति का स्वास्थ्य कैसा हौगा- 
उसकी मानसिक स्थिति कैसी होगी? आप स्वय अनुमान लगा सक्ते ँ। क्या 
अनुस्धान के क्षेत्र मँ इम दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता? सम्भवत 
अनुधान की भी यही स्थिति है। षिनोवा जी के उदाहरण मेँ अतिशयोक्ति 
हो सकती है पद यह भी निश्चित है किं कहौ न करीं तो सीमा रेखा खीचनी 
ही होगी। 

सत्य को जानने के लिए अनुसधान एक चैजानिक विधि है अनुसधान 
परीभण की अन्य तकनीर्को के समान ठौ सगत्त विधिवत एव उपयुक्त तकनीक 
है जो कल्पनाशीलता सृजनात्मकतता तथा दक्षतापूरणं तकनीको के प्रयोग पर्‌ आश्रित 
है। अनुसधान का तात्पर्य सत्य कौ योज नये तथ्यो को जानकारी तथा पूर्व 
से ज्ञात निष्कर्पो का नई स्थितियों मे नया या सशोधित अर्थं लगानारै या 
उसे प्रकाश मेँ लाना है जो तर्को पर आधारित हो स्वीकार्यं मानदष्डों पर्‌ 
खरो उतरता हो। इस भाति अनुसधान शोधकर्ता का मानसं विकसित करता 
दै उसके ज्ञान को चैना बनाता है तथा उसकी सूचनाओ कां विस्तार करता 
है1 इससे त्र्यो के वदे मे समाज की अन्त क्रियार्ओं के बारे मे उसकी समशचवृज्च 
बदती दै तरथा वह किसी भी घटना या तथ्य के बे मे अधिकं पारखी मनता 
है। अर्थपूर्णं अनुस्थान कै लिए यही मात्र आवश्यक नही हं कि शोधकतां 
एर्कों कौ उलञ्चनौ से ऊपर उठे वरन्‌ उसे मानद के समग्र कल्याण की दृष्टि 
से भी सोचना है। 

अनुसधान एक श्रम साध्य तथा कठिन कार्यं हे । इसके आरभ होने 

युगीन शेक्षिक चिन्तन /142 


से लेकर समात्र हने तक अनुसधान कर्ता को सततत सजग रह क्र काम 
करना होता ह॑ सत्य- सग्रह के लिए प्रयलशील रहना पडता र । इसलिषए 
जरूरी ह कि वह अपने पूर्वं निर्धारित मार्ग से कठिनाईं या बाधा आनं पर 
डिग न जाये उदेश्य से जग सी भटक्न अनुसधान कं स्तर का निचित रूप 
से गिरा देती है। जिस प्रकार अपनी पैदावार से मात्र किसान टी सम्बन्धित 
नर्द है वन्‌ उसको पैदावार सै बनिया सहयोगी पडौसौ या खती मेँ सट्यग 
कएने वालै गजस्य चसूली वाते कर्मचारी आदि सभी सम्बन्धित है जुडे हुए 
ह। उसी भात्रि मौटे क्प से समाज उसमे जुडा हुआ है। कल कारखानो 
के उत्पाद की भी यही स्थिति है, उससे न केदल मालिक या साहसी या 
प्रवधकत या श्रमिक हां सम्बन्धित है बल्कि समाज का टर सदस्य सम्यन्ित 
ह य सस सरकार रखतं हं। इसी भाति अनुसधान कर्ता क कार्यं सं प्राप्त 
निष्कर्ष से अन्तिम फर्लो से पूरा समाज सरोकार रखता ह॒ तथा ये उससे 
जुड एए है । ऽसोलिए अनुसधान कता का यट भां निरन्तरं दिमाग म रखना 
चाहिए कि सिद्वात या कई ज्ञान का तव तक काह मत्व नर्टी है जव तकं 
उसका प्यायहारिक पक्ष सबल तथा स्पष्ट न हा साधा समाज क उत्थानं 
प्रगति एव कल्याण मं याग दे इसलिए अनुसधान का विशेप बल सिद्वाती 
कै स्यायहारिक पक्ष पर हा रहता है! 

शोध मर्णनिर्दशका को कोठारौ शिक्षा आयोग (1964-66) की 
रिम्पणियो अपर्य याद रना चाहिए! आयाग कं अनुसार कुष प्रमु का्ेजो 
कै अतिरिक्त सम्बद्ध कालेजों मे अनुसधान की वास्तविक सुचिधार्यै वा तो 
है हौ नहीं या अत्यन्त सीमित है क्षिक शोध अव भी रौशयायस्या 
महे। एम एड के शोध निबन्धो म कदाचिव्‌ हौ अनुसधान कहलाने 
फी योग्यता होती एै। । पीएचडी के स्तर पर यह कार्यरत विपितेत्र 
मे कमओोर रहता है ? इसी सदर्भं मे प्रो रईस अहमद ने कीस विश्वपिद्यालय 
तथा भारतीय प्रोद्योगिकी सस्थाभ के अध्ययन से निष्कर्पं प्रातं किया कि 
पिदर्थियों को अनपेक्षित रूपए से उच्च श्रेणी या गुण या अक दिये जाते है 
निघ्न स्तरीय शोध ग्रन्थ पोौएवषो के लिए स्वीकार किये जति है सबधो 
की यहं वं से च्यवस्था कर सौ जाती है । आन्तरिक मूल्याकन म वैहिपराव 
अधिक अकं दिय जति ह। पौ एव डी के त्रो के प्रवेश के मार्गर्शक सिद्वाना 
का पालन नहो किया जाता टं 








(1) रिसा आपोग कर परतियेणन (194 66) रिक्ष मलय भाद सरकयर, न" निता 
मेनेजर पच्तिकेसन्स दियत (हिनो सस्करथ) 1968 पूवे 353 


(2) ष्णी पृष्ट 3 
(3) # दिन्दू यनधरौ1$ 1994 


युजीन शैशिक चिन्ता/143 









मूलत जो कारण शिक्षा के स्तर गिरने के लिए उत्तरदायी बताये 
जाते है न्यूनाधिक रूप सेये सभी कारण अनुसधान के गिते स्तर के लिए 
भी उत्तरदायी भाने जा सकते है। जिस प्रर टर कई उच्च शिक्षा पाना 
चाहता है उदेश्यहीन भीड विष्वविघालय या महाविद्यालय मे प्रवेश की इच्छुक 
है-स्सी भाति हर कोई शोध करने को तत्पर रै! प्रथम तो उनको भविष्य 
सुरक्षित नही लग रहा है दूसरे वे अनुसधान के विद्यार्थी बन कर जौविका 
कीखोनकोदो ढाई या तीन वर्प टल रहे है! अतुसधान के विद्यार्थी वनने 
के पीठे उनका एक निहित स्वार्थ भी हं ओर वह है नौकयी न सही तो 
छात्रवृतति हौ सही । आज कौ स्थितिया म अनुसधान कएने के पीछे एक ओर 
महत्वहौन आधार यह भी बताया जा सक्ताटैकिवे वरिष्ठ ष्ठत्र के रूप 
म विश्वविद्यालय या महाविद्यालय मे दादागिरी करना चाहते है । स्पष्ट है कि 
इन विचारो से या पृष्ठभूमि म अनुसधान करने वाला पुरे मन से काम नहँ 
करेगा उनका उदेश्य येनकेन प्रकरेण उपाधि प्रा करना रहेगा। इन स्थित्तियो 
मे सहज हौ अनुमान लगाया जा सका है कि अनुसधान का स्तर यदि गिरि 
त्रो बोई आशर्यं नहीं होना चािए। 

पिले दशक मे विश्वविद्यालय या महाविद्यालय मेँ व्याख्याता षद 
के आप्रवेशन कं लिए अनुसधान उपाधि कौ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 
ह्वार अनिवार्यता से लागू किय जाने से भी अनुसधान का स्तर गिर है। कारण 
कि हर कोई व्याख्याता बनने का इच््ुक येन-केन प्रकरेण शोर्टकट से भी 
उपाधि प्राप्त करने म जुट जाता ₹। इमसे पी एच डी के चिदार्थियो का मार्गदर्शन 
तथो निर्देशनं कणे वाले शिक्षाविदो के सामने प्रवेशार्थियों की अनपेकषित भीड 
इक्टरी हो गई। प्राप्त समय को तो आप वढा नरौ सकते फलत वे सभी 


कहे वे शर्ट भी अपनते है आप मर चिदरथा चमौ पाम पौजिये 
भरल मं भ आपकैः विदां को पास कला ए या करवाता ष्ट] यट होड 
भौ प्रवि षड वार सकाया चथा पिरववि्यालया मे भी दी जती ६। इस 
पवैवत्ति से धौ अतुपधान कायं का स्वर्‌ निरा ह। 

इर वेध्य यर एक अन्य दृष्टिकोण स भी विचा विया जाना चाहिए। 
भग्रयरन के लिए आपकं सामने तीन आरायी है- 

अ-ाई स्कूल या सैकेण्डरी स्यूल सै अधिन्नातक तक की सभी 
पर्षा प्रथम प्रेणी से उत्तार्थ 

आ-्ाई स्कूल या सेकण्डरी स्कूल सं अधिखातक तक का सभी 
परभाए सामान्य दिती श्रणौ सं उत्तीण^पा एव खी 

ईरा स्यूत या सैकेण्डती स्वूल परोक्षा द्वितीय प्रेण टायर सैकेण्डरी 
प्रथम छ्नातक परभा रताय पया अधिलातक द्वितीय प्रणी मे उत्तरण ^पौ एव खौ 

न आशाधि्यां कौ याग्यतार्ओं से इनकी गुणवत्ता स्वय स्पष्ट है। 
ध्वण्याहा पद क लिए पौ एच डी की अनिवायत्रा दूसरे तथा क्रीमरं आशारथी 
को व्याख्याता तो यनवा दगी पर्‌ क्या पे सभी परीक्षां प्रथम ्रेणी से उत्तीर्ण 
अगरथी से श्रेष्ठ रै? यह सयाग टौ माना जाना चिए विः सभी परीका 
प्रथम श्रणौ मे उततर्णं कनं वाला आशाधी पौ एच कौ ओर ध्यान न दे। 
पर उस्रकौ श्रेष्ठता षर सन्देह किया जाना समीचीन नदी लगता। 

पाश्चात्य रशं म॑ भारतीय शोध उपाधि का गिरता हुआ स्तर देखकर 
पिरषविधालय अनुदान आयोग ने अधिखातक तथा पौ एव दो के वीच मे एक 
समीय (या करही-कष्ट अशक्यलीन दा स्रीय भौ) एम फिल पाद्पक्रम आरभ 
कने कौ अनुमा की है। पर यूजीसी कौ सभी अतुशासाये मानने के लिए 
सभी पिधयिद्यालय अनिवार्यते वाध्य नही है। यही काए्ण है निः कई 
विधविदयालरयो म कई विपर्यो मे अभी तक एम फलि पाठ्यक्रम का विकास 
हौ नहो किया गया है यहा अभी तक अधिखातक परीक्षा पस विधार्थी ही 
पौरी के लिए पात्र माने जते है। एम फिल पाठ्यक्रम से शध के स्तर 
भे सुधार कौ आशा की गई थो पर उसे भी विश्वविधयालय कौ मनमानी 
ने कार्यरूप भ परिणत नष्ीं हो दिया। 

समाज विज्ञानो मे भौतिक विज्ञानो की तरह प्रयाग नर्ही किये जा 
श्रकते करण कि समाज विानी जिन पर प्रयोग करते है चै निर्जवि वस्तुं 
नेहीं है जिन वालको या विद्यार्थियों प्र प्रयोग किया गया है या जिनसे सूचनं 
प्रा घौ गई हं चे प्रतिषेदन पहुंचने तक परिवत्तित हो जते है-यालक का 
भ्न/विचार हर क्षण चदलदा है। इसलिए एक बार प्राप किया गया निष्कर्षं 
षव समय हरं यालक्त धर र स्थिति मे समान रूप से लामू हागा यसी 

युगीन शैशिक चिन्ता/145 


मूलत जो कारण शिक्षा के स्तर गिरे के लिए उत्तरदायी चतायै 
जाते है म्यूनाधिक रूप सं वे सभी कारण अनुसधान के गिरत स्तर के तिए 
भी उत्तरदायी माने जा सक्ते है। जिस प्रकार टर कोई उच्च शिक्षा पाना 
चाहता रै उदश्यहीन भीड विश्वविद्यालय या महाविद्यालय मे प्रवेश की इच्छुक 
है-इसी भाति हर काई शोध कटने को तत्पर ह! प्रथम तो उनकौ भविष्य 
सुरक्षित नही लग एटा रै दूसरे वे अनुसधान के विद्यार्थी बन कट जीविका 
की खोज कौ दो ठाई या तीन वर्पं रल रहे है। अनुसधान के विरथी बनने 
के पीठे उनका एक निहित स्वार्थ भी है ओर वह है नौकरी न सही तो 
छात्रयृत्ति टौ सटौ। आज को स्थितिया मेँ अनुसधान कएने के पीठे एक ओर 
महत्वहीन आधार यह भी बताया जा सक्ता है किवे वरिष्ठ ष्टाप्रके रूप 
म विश्वविद्यालय या महाविद्यालय म दादागिरी करना चाहते है । स्पष्ट है कि 
षन विचारो से या पृष्ठभूमि म अनुसथान करने वाला पूर मन से काम नहीं 
करेगा उनका उद्वर्य येनकेन प्रकारेण उपाधि प्रा करना दटेगा। इन स्थितियों 
मं सटज हौ अनुमान लगाया जा सक्ता रै कि अनुसधान का स्तर यदि गिरे 
तो कई आश्चर्य नही हना चाहिए। 

पटले दशक म विश्वविद्यालया या मटाविद्यालयो मेँ व्याख्याता पद 
के आप्रवैशन के लिए अनुसधान उपाधि कौ विश्वविघालय अतुदान आयोग 
द्राण अनिवार्यता से लागू किये जाने से भी अनुसधान का स्तर गिग है। कारण 
कि हर कोई ष्याख्याता वनने का इच्युक येन-केन प्रकारेण शंरटकट से भी 
उपाधि प्राप्त करने मे जुट जाता हं । इससे पी एव डी के विद्यार्थियों का मार्गदर्शन 
तथा निर्देशन करने वाले शिक्ाविदो के सामने प्रवेशार्धियोँ कौ अनपेक्षित भीड 
इकटरी हो गर्ई। प्राप्त समय को तो आप बढा नही सक्ते फलत वे सभी 
का सही रूप मे उपयुक्त मार्गदर्शन नटी कर सक्ते ओर नष्ी स्पष्टे 
कि भीख भ सम्मिलित सवके सव विद्याथीं पोएचडी फे लिए पत्रो 
सक्ते ह! इसके सिवाय शोध प्रन कौ रूपरेखा अनुमोदित होते हौ शोध 
प्रमन्थ लेखन का कार्यं भो तय प्ये याता है। जो शोधकर्ता रूपरेखा हौ तैयार 
नहीं कर सके तथा उसमे बार-बार सशोधन होता रहे इस स्थिति मे शोध 
प्रबन्ध लेखन वा दुरूहं टो जाता ह॑ इसलिए उसे इस प्रविधि मेँ निष्णात 
होना वाहिए। यदि कार्य प्रणाली या योजना हठी ठीक न यने तो कई कठिनाय 
का सामना करना पडता ₹ं। इसलिये इन स्थितियो से वचना श्रेयष्कर रहता है । 

व्याठ्याता कौ पदोनति प्रवाचक के पद पर होती ह इस पदोनति 
के लिए मानदण्ड मँ अपने मार्गदर्शन मे पीएवखी प्रात ग्रो फी सख्या 
भी एक है । शोध निदेशक अपनी पदोमति की आशा मे अधिकाधिक पौ एच डी 
करवातै कं काम र्म जुट जति हं वे जपने साथियो से जगे बढने की होड 


युगीन शेकषिक चिन्तन/144 


क्ते है वै शार्टकट भी अषनाते है आप मरे विद्या्थीं कौ पास कौजिये 
बदले मे म आपके विद्यार्थी को पास करता हू या करवाता हं। यट ठोड 
क प्रृत्ति कई यार सकाया तथा विश्वविद्यालयो मे भी देखी जातौ है। इस 
मनोयृत्ति से भी अनुसधान कार्य का स्तर गिराह। 

इस तथ्य पर एक अन्य दृष्टिकोण स॑ भी विचार किया जाना चार्हिए। 
आप्रवेशन के लिए आपके सामनं तीन आशार्थी है- 

अ-हाई स्कूल या सैकेण्डरी स्कूल से अधिसातक तक कौ सभी 
परीक्षाए प्रथम ्रेणी से उतीर्ण 

आ-चई स्वूल या सैकेण्डरी स्कूल से अधि्ातक तक कौ सभी 
परीक्षाए सामान्य दवितीय श्रेणी से उत्तर्ण^पौीएव खी 

ई-ाई स्कूल या सैकेण्डरी स्कूल परोक्षा द्वितीय श्रेणी हायर सैकेण्डरी 
प्रथम सतक परीक्षा तृतीय तथा अधिन्नातक दवितीय श्रेणी मे उत्तीर्णनपीएव दी 

इन आशर्थिया की याग्यताआ! से इनकी गुणवता स्वय स्पष्ट टै। 
व्याण्याता पद के लिए पी एव डी की अनिवार्यता दूसरे तथा तीसरे आशाथीं 
को व्याख्याता ता वनवा दमी पर क्या वे सभी परीक्षे प्रथम श्रेणी सं उत्तीर्ण 
आशा से श्रे है? यट सयाग टौ माना जाना चाहिए कि सभी परीक्षाएं 
प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्णं कएने वाला अशार्था पौ एच डी कौ आर ध्यान न दे। 
पर उसकौ त्र्ठता पर सन्देह किया जाना समीचीन नही लगता। 

पाश्चात्य देशो मं भारतीय शोध उपाधि का गिरता हुआ स्वर दंघकर 
पिरवपिधालय अनुदान आयोग ने अयिलातक दथा पौ एच दी के वीच रमे एक 
सप्रीप (या कटी -फरही अशकालीन दो सत्रीय भी) एम पिल पाटयक्रम आरभ 
करने कौ अनुशास कौ है। पर यूजगीसी कौ सभो अनुरोसाय मानने के लिए 
सभी विश्वविद्यालय अरिार्यव बाध्य नहीं है। यही कारण टै कि कई 
विश्वविध्रालर्यो मे क्‌ विष्यो मे अभी तक एम फिल पाठ्यक्रम का विकास 
ही नष्टौ किया गया है वहा अभी तक अधिस्नातक परीक्षा पास विदा्थी हौ 
पीएवद्ां के लि्‌ पात्र माने जते ह। एम पिल पाठक्रम से शौ क स्तर 
म सुधार की आशा कौ गई धो पर उसे भी विश्वविद्यालय की मनमानी 
ने कूर्यरूप मेँ परिणत नहीं होने दिया। 

समाज विकानों मे भौतिक विज्ञात की तर प्रयोग नरह क्यिजा 
सवते कारय कि समाज विदानी धिन पर प्रयोग करते हं ये निर्व य्त्‌ 
महो है जिन यालकों या विदर्थिया र प्रयोग किया गया ह या चिनसं सूचनाय 
प्रात कौ गई ह वे प्रतिषेदन पहुंचने तक परिवर्तित टो सते टै-वालक का 
मनविचार हर क्षण दलता ह। इसलिए एक यार प्राह किया गया निष्कं 
ष समम ह चालक पर हर स्थिति म समान रूप से सागर तया देलौ 

युगी शेधिक विन्तन/145 


मूलत जो कारण शिक्षा क स्तर मिटै के लिए उत्तरदायी बताये 
जाते हं न्यूनाधिक रूप से वं सभी कारण अनुसधान कं गिरते स्तर के लिए 
भी उत्तरदायी माने जा सक्ते है। जिस प्रकार हर कोई उच्च शिक्षा पाना 
चाहता  उद्श्यटीन भीड विश्वविद्यालय या महाविद्यालय मे प्रवेश कौ इच्छुक 
दै-इसी भाति दर कोई शथ करने को तत्पर रै। प्रथम तो उनको भविष्य 
सुरक्षित नटी लग रहा है दूसरे वे अनुसथान क विदयर्थी वन कर जीविका 
की खोज को दौ ठाई या तीन वर्प टल रटे ह। अनुसधान के विघार्थी बनने 
के पीठे उनका एक निहित स्वार्थ भी है ओर वह ह नौकरी न सही तो 
छातवृत्ति ही सही। आज की स्थितियो मे अनुसधान करने के पौषे एक ओर 
महत्वहीन आधार यह भी वताया जा सक्ता किवे वण्िष्टात्रके रूप 
मे विश्वविद्यालय या महाविद्यालय म दादागिरी करना चाहते ठ । स्पष्ट है कि 
इन विचारा से या पृष्ठभूमि म अनुसधान कएने वाला पूरे मन से फाम नहीं 
करेगा उनका उदेश्य येनरैन प्रकरेण उपाधि प्रा करना रहेगा। इन स्थितियो 
मे सटज 'टौ अनुमान लगाया जा सक्ता है कि अनुसधान का स्तर यदि गिरे 
तो कोई आश्चर्यं नही होना चाहिए्‌। 
पिष्टले दशक मे विश्वविद्यालयो या मदटाविधालरयो मे व्याख्याता षद 
के आप्रवशन के लिए अनुसधान उपाधि कौ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 
द्वार अनिवार्यता सं लागू किय जाने से भी अनुसधान का स्तर गिरा है। कारण 
कि टर कोई व्याख्याता वनने का इच्छुक येन-केन प्रकारेण शर्टकट से भी 
उपाधि प्रा कएने म जुट जाता है । इससे पीएचडी के विद्यार्थियों का मार्गदर्शन 
तथा निर्देशन करने वाले शिक्षाविदो के सामने प्रवेशार्थियों की अनपेक्षित भीख 
इक्टरी हो गई! प्राप्त समय को तो आप वदा नही सकते फलत वे सभी 
का सही रूप मै उपयुक्त मार्गदर्शन नही कर सकते ओर नही स्पष्ट 
कि भीड मे सम्मिलित सवके सग विद्यार्थी पीएची फे लिए पप्नष्ो 
सक्ते ईं । इसके सिवाय शोध प्रबध की रूपरेखा अनुमोदित ोते हौ शोध 
प्रबन्ध लेखन का कार्य भी तय हो जाता है। जो शोधकर्ता रूपरेखा ही तैयार 
नहीं कर सके पथा उसमे बार-बार संशोधन होता रहे, इस स्थिति में शोध 
प्रबन्ध लेखन बडा दुरूह टो जाता ह॑ श्सलिए्‌ उसे इस प्रविधि मे निष्णात 
होना चाहिए। यदि कार्य प्रणाली या योजना हठी ठीक न यने शो कई कठिनाइयो 
का सामना करना पडता है! इसलिये इन स्थितियो से वचना प्रेयष्कर रहता है। 
स्याख्याता की पदोतति प्रवाचक के षद पर टोती है इसं पदोनति 
क पलिए मानदण्ड भ अपे मार्गदर्शन मे पोएवडो प्राप्त छत्रो कौ सख्या 
भी एक है । रोध चिलशक अपनी पदोनति कौ आशा मे अधिकाधिक पी एच री 
क्ए्वाने के काम मे जुट जते है ये अपने साथियो सै आगे बदने की होड 
युगीन शेदिक चिव्तन/144 


करते है वे शाटकट भौ अपनति है आप मेर विद्यार्थो को पास कोजिये 
वदले म म आपके विचा्थी को पास करवा टू या करवाता हू। यह रोड 
कौ प्रवृत्ति कड यार सकाया तथा विश्वविधालया मे भी देखी जाती है। इस 
मनावृत्ति स भी अनुसधान कार्य का स्वर गिण ह। 

इस तथ्य पर एक अन्य दृष्टिकोण से भी विचार किया जाना चा्हिए। 
आप्रवशन के लिए आपकं सामन तीन अआरा्थीं है- 

अ-ाई स्वूल या सैकेण्डरी स्कूल से अधिस्रातक तक की सभी 
प्राणाए्‌ प्रथम प्रणी सं उत्तीर्ण 

आ-्ाई स्कूल या संकण्डरी स्कूत से अधिचखतक चक की सभी 
परीक्षाए सामान्य द्वितीय श्रणी से उत्तीण^पीएव डी 

इ-हाई स्वूल या सैकण्डरो स्कूल परीक्षा द्वितीय श्रेणी हायर सकेण्डरी 
प्रथम स्रतिक परोक्षा तृतीय तथा अधिच्नातक द्वितीय श्रणी मे उ्तर्ण^पौ एच 

इन आशर्थिरयो कौ याग्यताओं से इनकी गुणवत्ता स्वय स्मष्ट है! 
व्याख्याता पद्‌ क लिए पौ एच डो कौ अनिवायता दूसरे तथा तौसरं आशार्थीं 
को प्याख्याता तो यनया देगी पर क्या यै सभौ परोक्षा प्रथम प्रेण से उततीणं 
आशा्थीं से श्रष्ठ है? यह सयाग ही माना जाना चाहिए कि सभी परीक्षाएं 
प्रथम श्रणी म उत्तर्णं करने वाला आरार्थीं पीएचडी की ओर ध्याने न दे। 
प्र उसकी ग्रषठता पर सन्देह किया जाना समीचीन नहीं लगता। 

पाश्चात्य देशा मेँ भारतीय शोध उपाधि का गिरता हुआ स्वर देखकर 
विश्वविद्यालय अनुदान आयाग न अधिल्नातक तथा भी एच षी के वीच मे एक 
सप्रीय (या कर्टी-करटी अशकालोन दा सत्रीय भी) एम फिल पाठ्यक्रम आरभ 
कटने की अनुरासा कीटै। परयूजीसी की सभी अनुशसाये माननं के लिए 
सभी विश्वविद्यालय अनिवार्यत बाध्य नहं है। यष्टी कारण है कि कु 
विश्वविधालर्यो म॑ कट्‌ विपर्यो म अभी तक एम फति पव्यक्रम का विकास 
हो नही किया णया है वहा अभी तफ अधिल्लातक परीक्षा पास विधार्थी ही 
पौएवदी के लिए पात्र माने जाते है। एम पिल पा्यक्रम से शोधके स्तर 
मे सुधार की आशा की गईं धी पर उसे भी विर्वविधालय कौ मनमानी 
नै कार्यरूप मे परिणत नहीं होने दिया। 

समाज यिक्ञानों मे भौतिक विज्ञाना कौ तरह प्रयोग नहीं क्ये जा 
सकते कारण कि समाज सिङ्धानी जिन पर प्रयोग करते है घे निर्जीव वसत 
नहँ है जिन वालको या विधार्थियो पर प्रयोग किया गया है या जिनसे सूचनाय 
प्राप्त की गई है वे भ्रतिवेदन पटने तक परिवत्तित हो जत है-यालक कन 
पनविचार हर क्षण यदलदा है} इसलिए एक वार्‌ प्रात किया गया निष्क 
हर समय हर वालक पर इर स्थिति मे समान रपस गू हया रे 

युगीन शैक्षिक चिव्तन/145 


आशा नहीं की जा सकती} इस प्रकार समाज विज्ञानो मे शोध के मिष्कर्यं 
प्राकृतिक या शद्ध विज्ञानो कौ तरह तौ अपक्षानुसार्‌ या पूर्व निश्चित प्राप्त नर्ही 
होत है तथा न दौ शतप्रतिशत सही रूप से लागु ्ो सक्ते है 1 समाजविज्ञानी 
सामान्यीकरण पर प्रहुचते है पर समाज म॑ भी भिनता पाई जती है एक 
समाज की सस्कृति से दूसरे समाज मे भी भितता पाई जाती ह एक समाज 
क्री सस्कृति दूसरे समाज की सस्कृति से भित होती है। 

इसके अतिरिक्त समाज विज्ञानी भी शोधक्तां होने के पूर्वं समाज 
करा सदस्य रै। उस पर अच्छे बुर रवो्नीय-अर्वंछनीय सभी वार्तो को प्रभावं 
पष्टता रै { किसी भौ प्रवर का निर्णय लेते वक्तं वह अपने मनोभावं से स्तयालिते 
हाता है उसकी षिचारधार दर्शन वातावरण उसके निर्णय को प्रभावित्त करतं 
दै। समाज विज्ञानी इन सव तथ्या तथा पृष्ठभूमि से न चाहते हुए भी अनजनि 
भ निष्कर्पौ का प्रभावित कर सक्ता है। एक हंस्तभेप पसद न रन वाला 
अर्थशास्त्री उदाहरण कं लिए, मुक्त व्यापार से जु प्रकरण या सम्या पर्‌ 
शोध करवाना पसद करगा। इसी प्रकार कौ स्थिति शैक्षिक अनुस्धान कं लिए 
भी आ सक्सी है। ओर. म्यूनाधिक रूप से उसके निष्कर्षं उसको वैयक्तिक 
मूल्य सरचना से प्रभावित हो सकते ह । ओर वह शुद्ध या प्राकृतिक षिनानी 
की तरह हौ निर्णय लगा एसी आशा नहीं की जा सकती। इस स्थिति में 
भी अनुसधान का स्तर गिरता है। 

अनुसधानकर्ता की मूल्य सरचना के साथ हौ जरा भिन एकं कदम 
आगे बटकर देख तो कात हाता है कि अनुसधानफर्ता निर्धारित उदेश्य के 
विपरीत निष्कर्पो के प्राप्त हाने पर उसके उदेश्यो से ही सशोधन कर लिया 
उन्हं बदल दिये कई बार एमा काना शोध निदशक कौ जानकारी भे होता 
दै तथा कट वार्‌ नीं भो । विद्यां अपने शोध निदेशक कौ अप्रसन्नता 
माल न लेने के कारण निष्करयं वदल लेता रै! एसा प्राय परिकल्पना के 
परीभण के लिए किया जात्ना है ! एक विवेकी अनुसधानक्तां का यह नैतिक 
एष ष्यावह्ारिक दायित्व है कि वह जो भी जैसे भी निष्कर्य प्रत्त कपएताह 
साटसर पूवक उन्हे उसी रूप मे प्रस्तुत कर । यही व्यावहारिक नैतिक्ठा को 
आग्रट है। 

कई अनुसधान कायं निरीक्षण या अवलोकन तकनीक पर आधारित 
हात हं। कड वार निरीभणक्ता का समक एकत्र करने का उदेश्य हौ ज्ञात 
नही त्रा उसे नहीं मालूम कि उसं क्या सूचना लनी रै फिर बह भी 
समाज क सदस्य है उम प्र भी अच्छ युर का प्रभाव पडता! कंई यार 
सहभागिता निरीक्षण के समय सूचना दाता जागरूक होने से सहौ प्रतिक्रिया 
नी क्ते ै। एक वात ओर्‌ भी किन हा निरीमणकर्तां फा सूचनां एक 


& युजीन शेक चिन्तन/146 


करने का विधिवत टेनिग मिला टाती हँ। इन गलत सूचनाओं से शेध की 
गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पडने की पूरो-पुरौ सभावना रहती है। 

एक ओर किनाटं यह रै कि यदि शोधार्थी की पृष्ठभूमि मनाविज्ञान 
कपी है तथा उसे न्यून शैक्षिक सम्प्रति व घटका की जाच करनी टं परोक्षण 
कटा है-एसा व्यक्ति किसी एक विषय की आर्‌ शुक सकता है । वुद्विलब्धि 
भी खनी ह ता वट शोधाथीं सभी पूर्वग्रह छड देगा-यह सम्भव नौं है। 
वुद्धिलव्ि कं लिए स्थानाय भापा म या अभापीय परीक्षण सामग्री यदि नी 
हं वो अन्य उपकरणा से इसका सहो-सही मापन हौगा एसा सोचना भी 
यहुते बी भूल है। या शोधार्थी या मार्गं निर्देशक की भित-भित पृष्ठ भूमि 
म॑भीशाधका स्तर गिरने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है ओर एसं अनुसधान 
कायं धथ्छयं से सम्पत हो रदे है। 

अनुसधान का स्तर गिन का एक ओर सरत है पुस्तकालय सेवाये। 
रिपणिया लैन॑वाद टिप्पणी नाने सदर्भं सारित्य की मूचां तैयार करने का 
अधुरा क्ञान अपनी भूमिका निभाता है। आत स्थिति यहे ठै कि षाद टिप्पणी 
तथा सदर्भं साहित्य की टिप्पणी म कौर अन्तर टी नहीं किया जता इनको 
तैयार कले का ज्ञान एव कौशल शोधार्थिर्यो को होता हौ नटी ह। यहा यह 
"याद रा जाना चाहिए कि एक अच्छा शिक्षक या अच्छा विद्वान सन्दर्भ सातय 
कैष्ेत्र मे भी अच्छा कार्य करेगा यह जरूरी नहीं है। अच्छा शिक्षक था 
विद्वान हाना एकं वात टै तथा अच्छी सन्दर्भ सूवी या पाद टिप्णी तैयार 
कएना पूर्णत दूसरी था भिप्र यात है ओर सम्भव है एक अच्छा विद्वान पाद 
टिप्पणी तैयार कएने कौ कला मे पारयतं या निष्णात न लो/पाद टिप्पणी का 
विपरण देतै समय सरपं तथा पष्ठ सख्या के वे पूणतया आश्वस्त टो तैना 
घाहिए्‌। अन्यथा पाठको वो मूल पाठ देखते समय अमुविधा हाती है। इसलिय 
सावधानी वती जानौ चाहिए। इतना ही नटी शोधार्ध्यो क मार्गं निर्देशक 
भी कड उदाटरणां म इस कौशल में परिपक्व नहीं हाते। पाद टिप्पणी नाना 
जनते है तो लघक सम्पादक एक से अधिक लेखक तथा पुत्रिका की पाद 
टिष्पणियों मे कोई अन्तर नहीं टोता। इस दोप से मुक्छि पाने व लिए पुस्तकालय 
सेवा वौ प्रभायी यनाया जाना चाहिए+ इसकी नितान्त आवश्यकता है। पर 
दयनीय स्थिति तो तव हाती है -क्व स्वय रिषक् ही इसङ्ञानकेष्त्रमे 
करि लेते है उनसे कैते उच्च स्वरके कार्य की बुदटि या दोव रहित काय 
की आशा कौ जाये? यद देखा गया है कि रिप्पणिया वनाने या पाद रिप्यणी 
का वतै ध्िस्सित कले च्छ लि्‌ खमय लिभागः क्र ऋ वोट परायणान्‌ 
षी नर्द है इस काय वैः लिए कालार टी नहीं रखा गया ह 1 शोध प्रगिवदन 
का स्तर सुधारने कं लिए. उनका मषटत्व यनाय रखन क तिए इस क्षत्रर्मे 
पातत ध्यान तथा समय दिया ही खाना चादि न केवल घ्ना हौ बल्कि 
शवधार्थियो का पयाय अभ्यासं भौ क्रया जना चाहिए। निन ग्न्य पत्रपत्रिका 


युजी7 शैक्षिक पिन्तन।147 


आशा नहीं कमी जा सक्ती। इस प्रकार समाज विह्न मेँ शोध के निष्कर्षं 
प्राकृतिक या शुद्ध विनाना च्छ तरह तो अपेश्षानुसार या पूर्वं निधि प्रा नहीं 
ते हं तथा न हौ शत-प्रतिशत सटी रूप से लागू लो सक्ते है । समाजविह्ानी 
सामान्ीक्एण पर पटुचते है पर समजिमे भी भिनता पाई जातीटै एक 
समाज की सस्कृति से दूसरे समाज मे भी भितता पाई जाती है एक समाम्‌ 
कौ सस्कृति दूसरे समाज की सस्कृति से भिन हती है। 

इसेफ अतिरिक्त समान विज्ञानी भी शोधकर्ता हाने के पूवं समाज 
का सदस्य ै। उस पर अच्छे बुर र्ो्टनीय-अर्यो्ीय सभी वातो का प्रभाव 
पडता है । किसी भौ प्रकार का निणय लेते वक्त वाट अपने मनाभा्वो से सचालित 
सता है उसफमै विचारधार दर्शन वातावरण उसके निर्णय वो प्रभावित करते 
ै\ समात विक्ानी इन सव तथ्यो तथा पृष्ठभूमि सं न चाहते हुए भी अनजाने 
म॑ निष्कर्पा को प्रभावित क्र सक्ता है! एक स्तभेप पसद न करन वाला 
अर्थशास्त्री उदाटरण के लिए, मुक्त व्यापार से जडे प्रकरण या समस्या पर 
शोध करवाना पसद कएगा। इसी प्रकार की स्थिति शैक्षिक भनुसधानं क लिए 
भौ आ सकती है! ओर न्यूनाधिकं रूप से ठसक निष्कपं उसकी यैयक्तिकि 
मूल्य सरचना से प्रभावित हो सक्ते है। ओर षटं शद्ध या प्राकृतिक विज्ञानी 
की तरह हौ निर्णय लगा एसी आशा न्ती की जा सकती। स स्थिति म 
भी अनुसधान का स्तर गिरता रै। 

अनुसधानक्र्ता की मूल्य सरचना के साथ हौ जगा भित एक कदम 
आग बढकर्‌ देख ता चात हाता है कि अनुसधानकर्ता निधासिति उदर्यो के 
विपरीत निष्कर्पो कं प्राप्त हाने पर उसके उदश्या से हौ सशोधन कर्‌ लिया 
न्दे वदल दिये कई यार सा क्टए्ना शोध मिदेशक कौ जानकारी मेँ होता 
दै तथा कटु वार्‌ नहीं भी \ विधार्थी अपने शोथ निदेशक कौ अप्रसन्नता 
मालन लेने के कारण निष्कर्ष बदल लेता ै। एसा प्राय परिकल्पनार्ओं के 
परीक्षण क लिए किया जाता ह। एक विवेको अनुसथानकर्ता का यह नैतिक 
एव व्यावारिक दायित्य है करि वह जो भी जैसे भी निष्कर्ष ग्रा क्फताटै 
साटस पूर्यक उने उसी रूप म॑ प्रस्तुत कर्‌। यही व्यावहारिक नैतिक्ठा का 
अग्रह है। 

कई अनुसधान कार्य निरीक्षण या अवलोकन तकनीक पर आधारित 
होत ट। कड वार निरीभणकर्ता को समक एकत्र कएने का उदेश्य हौ जात 
नर्हा साता उसे नली मालूम कि उसे क्या सूचना लनी है पिरि वट भौ 
समान का सदस्य टै उस पर भौ अच्छ बुरे खा प्रभाव पडता 1 कं चार 
सटभािता निरीमण के समय सूचना दाता जागरूक होने से सही प्रतिक्रिया 
महौ कसते है! एक यत्र ओर भी किन दही निरीक्षणकर्ता को सूचना एकत्र 


युमीन शेक्षिक चिन्तन/146 


कएने की विधिवत टृनिग मिला हाती ₹। इन गलत सूचनाओं सं ध की 
गुणवता पर प्रतियूल प्रभाव पनं का पूरी-पूरा सभावना रहता 1 
एक ओर कठिनाई यह ह कि यदि शाधार्था कौ पृष्ठभूमि मनाविान 
कौ ह तथा उसे न्यून शक्िक स्रा क धरकों कौ जाच क्ली ह परीक्षण 
कला ईै-ेमा व्यछ्ि विसा एक विपय कौ आर शुक सर्ता ई यद्विनव्यि 
भी दनी है तो वह शाधायी सभी पूवाग्रट छा दगा-यह सम्भव न्दो ह} 
वद्धिलव्यि व॑ लिए स्थानाय भाषा म या अभापाय परीय मामद्रा यदि नर्त 
है तो अन्य उपक्रणः मे इसका मटी-सदां मापन हागा एमा मापना भी 
बहुत डी भूल है। या शाधा्थी या मर्ण निर्राफ कौ भित-भिन पृ भूमि 
मभौ शोधको स्तर गिरने की पूरा-पूरी सम्भायना श्तौ रै आर एम जनुमथान 
काय धष से सम्यतदहो रहटे। 
अनुसधान का स्तर गिर का एक ओर्‌ सरत रै पुम्नकालय मयाय। 
टिणणिया लने वाद रिष्पणी यनाने सदर्भं सारित्य का मूया तैयार करन का 
अधूरा ज्ञानं अपनी भूमिका निभाता है1 आड स्थिति यद ह रि चाद रिप्यणी 
हथा सदर्भं साहित्य कौ रिप्णा म काई अन्तर घ नटीं करिया खाता दफा 
तैयार कएे का क्ञन एव कौरल शोधाधिर्यो का चवा ट वटी ह। या यट 
याद्‌ ररा जाना चाहिए कि एक अच्छा रिभक या अच्छा चिद्रान मन्दभं मादित्य 
कंकर भी अच्छा काय क्रया यह जच्य नटीं है। अच्छा रिश्क या 
विद्वान होना एक वात है तथा अच्छी सन्दर्भ सूबी या पाद रिप्णा ताद्‌ 
क्ता पूर्णत दूसरा या भिन वात रै ओर सम्भव ६ एक अच्छा विद्रात भार 
टिणणी तैयार करने कौ कला म पारगत या निष्णात न (पा न्णिणा फा 
विवरण दतं समय वर्षं तथा पृष्ठ सख्या क यार पूतया नाश्रम्न 7 शना 
चािए। अन्यथा पाठकों को मूल्‌ पाठ दखते समय अमुविधा दावा द । दयनिय 
सावधानी वरतो जानी चाटिए्‌। हना हौ नटीं शाधायिया क माग निन्य 
भी कड उदाहरणा म इम कौशल मे 'परिपस्य न्ती टान। प नि यनम 
जानते है ठो लखक सम्पादक एर स अथिर लेखक त्था पत्रिका छ} यन 
िप्पणियों मे कोई अन्तर नदीं दोता। इत दाप मे मुन्दि पानं प्र निए 1.1 
स्वा को प्रभावी वनाया जाना चारिए। इसका मिवा यायरयकण $ [श 
दयनीय स्थिति ता तव हाती रै जय स्वय रिका टम न्व श्णम 
बौद टेव है उनस कैसे उच्च स्तर के काय यौ दरिया नव ग्द 
की आशा की जये? यह दला गया रै नि निष्यनिया यट ग्न 
का कौशल विकसित क्न के लि्‌ समय विभ श्र श) 
घ नही है इस कार्य क लिट्‌ कालाग टौ ननं गय 1 
का स्तर सुधारने के लिए, उनका मदत वन्यं गगर 
पर्याद ध्याच चया समय दिया टा खना न्दू > = 
शोधार्थिवो का पर्यप् अभ्याम भां कया =>, म, > 


[+ 
(न 
(४ 
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दर = ऋ 
प ~ 


युगीन शैगिक निजा 


से सहायता प्रात हुईं उनकी सूची दौ जानी चाहिए यदि किसी अज्ञात सामग्री 
कौमददली ग्रै तोशसे विना किसी भेद भाव के सटी रूपे प्रस्तुत 
करना चाहिए। सन्दर्भ साहित्य कैसे तैयार करना ह -कालक्रमानुसारं या 
वर्णमालानुसार यह निरिचत करना महत्वपूर्णं ह तथा इसं विपय अनुसार तैयार 
करना है- पृष्ठभूमि सम्प्रत्यय सन्दर्भ साहित्य शाधविधि ्षत्रवाद्‌ आदि। किसी 
भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्वं शोधार्था कौ पक्ष-वियक्ष की सभी वातं 
पर ध्यान देना चाहिए! शोध निदेशक के साथ विचार विमर्शं कर स्पष्ट कर 
लेना चािए्‌। कई शोध छात्र तलिकाये भी पाद्य सामग्री के साथ द्य जोड 
देते हं। इस सम्यन्थ मे सर्वमान्य नियमो का पालन होना चाहिए। यदि तालिका 
5 पक्छ्िथ से अधिक विस्वार्वाली है तो उसके लिए पृथक्‌-पृष्ठ काम म॑ 
लिया जाना चािए। तालिका का सोत यदि आवश्यक हो तो उसी के भीचे 
या चरण लेखन के रूप मे पूरे विवरण सित देना चाहिए! एसा न कएने 
से अनुस्धान कौ गुणवत्ता का स्तर प्रतिकूल रूप सै प्रभावित होता रै। 

सूचनाए समग्र करने के जिन उपकरणो प्रश्रावलिर्यो अनुसूचियो, 
को चाटे वे स्वनिर्भित ही ष्यो न टो सहायता ली गई है उने परिशिष्ट 
भे दिया हौ जाना चाटिए। जो सर्वसुलभ हो उन्ट एक वार छोडा जा सकता 
है पर स्वनिर्मितं साधनों या प्रश्रावलिया को तौ परिशिष्ट मे जोडा टौ जाना 
चाहिए। कईं अनुसधानकर्ता इस पर ध्यान नहीं देते इस गलती से मचनां 
चाटिए। एसा करके शोध ग्रन्थ कौ गुणवत्ता बढाई जा सकती है। 

अनुसधान कार्यं का स्तर सुधारने कं लिए तथा उसकी जनसाधारण 
सहित समाज के सभी वर्गो के लिए्‌ उपयौणिता कौ दृष्टि से रेखाचित्र ग्राफ 
वृत्तचित्र आदि का भरपूर प्रयोग करना चाहिए, न दृश्य साधनो की अपनी 
उपयोगित्रा रै पर हर अनुसधान कर्ता टर क्षेत्र म॑ कुशल टो महारत हासिल 
किये हो- एसी न तो अपेक्षा क्नी चाहिए तथान ही व्यवहार मे एेसा 
सम्भव ह । अनपढ़ या कम पठा लिखा पाठक रेखाचिग्रो या ग्रन्थ कौ सहायता 
से शीघ्र हौ अनुमान लगा लेते ह उन्टे विषय वस्तु समने मे मदद मिलती 
है) यदि एेसा होता टै तो अनुसधान कार्य की उपयोगिता कई गुणा बढ जाती 
है भाषा के सम्बन्ध मेँ विशाल शब्दे भण्डार तथा योग्यता शोधकर्ता मे ्टोनी 
-चाहिए। इसफे अभाव मे गुणयत्ता का निर्वाह नही हो सकता? टकण के पशात 
टक्ण कौ अशुद्धियां निश्चित रूप से सुधारौ जानी चाहिए। अच्छा यह ्ागा 
कि अशुद्धिया का परिष्कार समान स्याही से टौ लिया अये। 

प्रत्येक अध्याय के अन्त मेँ कई शोधकर्ता अध्याय सार जोडत है 1 
यदि एेसा कएना आवश्यक टौ तो अनावश्यकं सामग्री जोडने से टर सम्भव 
प्यत्र कए बचा जाना चाहिए। काईं भी शोधकर्ता सजग रह कर यष कार्य 
कट सकता है। 

कुछ अनुसधान कार्यं क्ेत्रीय कार्यो पर या वाहय सूचनाओं पर आधारित 


युमीन शिक चिन्तन/148 


कै 


हो सक्त ईं। एेसे अनुस्रधान कार्य तो ओर भी अन्य परकर के दोपो से 
युक्छ एते हं। यदि पूर्ध सूचना देकर सूचनाएं या समक तर किये गये 
तो मूचना दाता मिता तथा अभिभावक से सलाह मशविरा वक श्वफैता ह 
यह सजग हौ सकता ह इससे सही सूचना प्राप नहीं हाती रवै तयासी 
केर सकत हँ जिससे सहौ सूचनां या वास्ठविक समक प्रास नहीं होगे। स्य 
को अच्छे रूप में प्रस्तुत कएना मानव कौ कमजौरी रही है । सूचना देकर 
निरीक्षण करने प्र विद्यालय कितना सुव्यवस्थित मिलता है यह किसी से छिपा 
नहीं है। इतेना सही मान लीजिए कि कोटं अनुसधान कार्यं किशोर के आत्म 
प्रत्यय सै सम्वधिते है ओर शाधकर्तां आत्मप्रत्यय का स्तर जानने के लिए 
हएनामस्षिह का परीक्षण या उपकरण प्रयोग करता है। एेप्री स्थिति मेँ शोध 
का स्तर्‌ अवश्य हौ घटिया रहेगा क्योवि हनामसिह को परीभण जाच तो 
त्म प्रत्यय की षी करता है पर यह परीक्षण बालका के लिएटहैन कि 
किशोरों के लिए। इसका कारण यह टै विः शाधकर्ता यो उपयुक्छ परीक्षण 
उपकरण काज्ञान ही नही है। 

इन मनौवैदरानिक उपकरर्णो का एक ओौर दोप है वह यह है करि 
कई उपकरण सिदैशो मे या पाश्चात्य देशो मे प्रमापोकृत हुए है तथा सस्कृतिक 
पातावरण से मुक्छ (कलघर फी) भौ नर्टी है । श्नं उपकरणा से प्राप्त सूचनाओ 
पर भाधारिति या प्रा निष्कर्षं भी सही ही तेग, विधवास कं साथ एेसा नही 
कष्ठ जा सक्ता। शोध कार्य आरम्भ करे के पूर्वं एेसे उपकरर्णो यौ जचा- 
परखा जाना चाहिए। एक कदम ओ, 2-3 दशको पूर्वं भारताय न्यादशं पर 
प्रमाणीकृत्र उपकरण आज भी उतना टी प्रभावी होगा यह भी पुरे विस 

साथ नटीं कहा जा सक्दरा। समय के अन्तराल पर एसे उपकरणं की 

विश्वसनीयता फिर से देखी जानी चाहिए तथा उपयुक्त न भायै जानं पर उनव 
प्रयाग नष्टौ करना चाहिए। यदि रेमे उपक्ररण प्रयोग किये सति हे ता शाध 
भो स्ते गिरने की पूरौ सभावना रतां रै1 

सत्री सूचनाओ) पर आधाप्ति शोध कार्यो मे एक ओर दोप न्यादर्शे 
सम्यन्धौ यट पाया जाना है कि न्यादर्शं का चयन सजगवापूर्यक निष्पक्ष हौ 
यर नहीं किया जाता है। मान लोजिये- किसी विद्यालय फे 500 चात्र म 
स॑ शट दसवा छत्र यथा 111 21 14151 न्यादर्शं में सम्मिलित किया जाना 
टै। पर्‌ शोधकर्ता न्यादर्श चयन कौ उपयु विधि का अनुसरण नही करता 
है याश्सहेतु पचीदगिर्यो या वारीकियों से वच कर हर कोई जो भी उपलग्य 
जा 50 छो को चुन लेता है। एेसे शोध से प्राप निष्क्‌ सामात्योकरण 
प्र आधारित द्धो या पूरी जनस्य का प्रतिनिधित्य करेगे -इसर्े सन्दद टौ 
रतमा। पेसी स्थिति मे भो शोथ का स्वर्‌ णि हे। 

भारतौय स्थितिर्यो मे कई कषतर मे उपकरणों से प्रत सूचनार्ओं र 
आधारित शोध कायं चैध नक्तं माने ~ग सकते । मुख्यव यौन सम्यन्धौ दाम्पत्य 


युगीन शीशिक विन्तन/149 


जीवन पर आधारित शोध मे ्रश्रावली अतुसूची आदि प्रयोग नहीं करना 
चाहिए्‌। इस क्षेत्रो म॒उत्तरदाताभा से सी उत्तर की मन कौ वातं जानने 
की आशा नदो षौ जा सक्तो! कितना टौ आप विधास दिलाये कि प्रास 
सूचनाए गापनीय रमो तथा क्वल शध कार्यं मे द्यी उपयोग कौ जायगी 
भारतीय उत्तरदाता मन कौ वात क्ट टी दगा एेसा षिश्वास नटी किया जा 
सकता। शोधकर्ता अपने प्रतिवेदन म इस दाप का सकत भी करदेते ई 
पर एसे नाजुक कतरो मे प्राप्त सूचनाओं कौ अन्य साधना या उपक्रणो या 
तकनीक -स पुष्टि कर लनी चारिए, उदाररणार्थ- साधात्कार एव निरीक्षण आदि। 
पारिवारिक आय के सम्बन्ध मेँ भी यटी स्थिति न्यूनाधिक रूप से पाई जा 
सक्ती है। 

लेखक कौ एकं वार एक पी एच डी के निदशकर ने वडी शिथिलता 
से अनौपचारिक भट के समय बताया कि वे अपने विदयार्धिर्यो को तीन भागो 
भेर्बाट तेते है- 
1 पीएचडी का पजीकरण कराओ तथा मौखिक परोक्षा दो। 
2 पौएच डौ का पजीकरण कराओ श्रुतलेख लिखो प्रप्तिवेदन टाप कराओ 
पिश्वविद्यालय को प्रस्तुतं कथे तथा मौखिक परीक्षा दा। 
3 तीसरं वर्गं मे व विद्याथीं आते ह जो पजीकरण करवाते है पठते हं 
सूचनाए सग्रह करते है टिप्पणिया लेते ह॒प्रतिवेदन तैयार करते है शोध 
निदेशक से अनुमादित करवाते हं प्रतिवेदन में सरोधन होता है -टाईुप करवाया 
जाता है विश्वविद्यालय को प्रस्तुत किया जाता है मौखिक परीभा दौ जाती दै। 

इन तीना प्रकार के विदार्थियो से शध निदेशक मटोदय अपन 
गुणातुक्रम की दृष्टि से स्तरानुसार विद्यार्थी की स्थिति एय गभीरतानुसार शुल्क 
वसूल क्रते है। 

पाठक अनुमान लगा सकते है कि इस प्रकार के शोध निदेशर्को 
करी उपज पी एच ङौ घने याते विद्यार्थी कैसे होगे? पाठक पटना चण्डीगढ 
दिष्टी चम्बईं के शोध निदेशक के व्यवहार से भी अपरिचित नही टे 
शोध ग्रन्थ किसका मुखपृष्ठ कहा किसने बदला? मौखिक परीक्षा किसने दौ 
उपाधि किसे मिली? दिष्टी मे विज्ञान सकाय कौ शौध छत्रा कै साथ निन्शक 
काक्या कैसा व्यवटार्‌ एहा? पाठक इन घटमाओं से भलीभाति परिचित तेगे। 

अवं आप साच सक्ते ह कि अनुखधान कार्य का स्तर गिल 
कौन सिना उत्तरदायी है? यदि उ्तरष्टीय स्तर पर शोध का स्तर सुथार 
कर अन्राषटीय प्रतिस्पर्धा के विद^समोन्‌, धरातल पर लाना + -> न स्थितियों 
मे सुधार करना ही दोगा अन्य कोई विकल्प नी है। 


ढा जमनालाल वायता, ढी. लिट. 


जम 1938 पारसोतौ (चिद रद ) राजस्या 
शिक्षा एम. ए. (चर षर) एष कप एम 
एर ए.पएत्‌ मई ई सष्ठ री.यौ. 
त्रकरिल दिष्तेमा, पौ एव. रौ (रि) 
खौ लिट. (य्‌. एष ए, रिष्ट) 
प्रकशि पुप्तके श्त क स्दपान्व सरस्य 
शैक्षिक विषा, सफलं साक्षात्कार कैपे दे? रिष्ठा 
के मये उभये छिन, रिश्च चेद्‌ पर, बक 
की समस्याये नैनिक परीष्टण एवं ठपकएत्मक 
रिण, नर्‌ एषटौव रिार्मति, ठेगगर किकैक, 
सौरि इन एयूकेशन ग्रार्स्स अक एवूकेरय 
१ थरं कदं स्दूदेष्ट लिदरशिर च्पावशिक 
शिष्षाभाग एक दो नौकरी कैसे सवे? केलि 
सफ रिजल्ट्स 
चस्य रक विशेषय द" पिके स 
भ रिष्ठा कौ समस्वापे 
पदक एवं सम्मातु अग्रा पेठ षपुर ष्टम 
पा पटन्र से प्रकारिष्त दंव राहौद दतिकेके 
सम्मारक पण्टस के सस्व 
अदि ध्यरणैव रेष्ठिक रेप रनेषन के 
पष्य 
18 विभति रष्टीद रैकिक सापयिङक एवं 
सस्कृशिक संग्टने कयै म्टर्वीवयं पस्यद 
रिष संव्पव अ पूर्णं सस्य 
पौ एद टः रोके बदसस्पवरेहड 
र्व एव एन्दस्न्टीव विनत एन्टोनते 
पे जनेड बर पुरस्कृत 
र्टर एवं ठर्दरूटेद गरेर ये सन्य 
ष्ठि 
बुकदटेड सरम दमरेश्व अटक इट 
भे ज्र रेट एवं कटम्बूर्‌ एई 
पज ट्व रीर पिरद के र्कक्‌ 
य एतस्य 
पूर्व प्रिस्मर परिक शस ट सपङृष्यरण्य 
अध्यय रिष्ट प्प, कडेर (टय) 
एद दर दष्टदष्टद ठरुरद इष्ड अध्वरम 
शिष्य संत्य, कदे (ररम)